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sadanandjidb.sql
-- phpMyAdmin SQL Dump -- version 5.0.2 -- https://www.phpmyadmin.net/ -- -- Host: 127.0.0.1:3307 -- Generation Time: Jul 15, 2022 at 10:18 AM -- Server version: 10.4.14-MariaDB -- PHP Version: 7.4.9 SET SQL_MODE = "NO_AUTO_VALUE_ON_ZERO"; START TRANSACTION; SET time_zone = "+00:00"; /*!40101 SET @OLD_CHARACTER_SET_CLIENT=@@CHARACTER_SET_CLIENT */; /*!40101 SET @OLD_CHARACTER_SET_RESULTS=@@CHARACTER_SET_RESULTS */; /*!40101 SET @OLD_COLLATION_CONNECTION=@@COLLATION_CONNECTION */; /*!40101 SET NAMES utf8mb4 */; -- -- Database: `sadanandjidb` -- -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `activitycategorytb` -- CREATE TABLE `activitycategorytb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `activitycategorytb` -- INSERT INTO `activitycategorytb` (`id`, `title`, `image_name`, `added_on`) VALUES (1, 'Republic Day1', '1655378104-img1.jpg', '16 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `activityimagestb` -- CREATE TABLE `activityimagestb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `file_name` varchar(300) NOT NULL, `uploaded_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `activityimagestb` -- INSERT INTO `activityimagestb` (`id`, `title`, `file_name`, `uploaded_on`) VALUES (1, 'Republic Day1', '1655381075-testi1.jpg', '2022-06-16 17:34:35'), (4, 'Republic Day1', '1655456119-WhatsApp Image 2022-05-27 at 5.41.38 PM.jpeg', '2022-06-17 14:25:19'), (5, 'Republic Day1', '1655456119-WhatsApp Image 2022-05-27 at 5.46.09 PM.jpeg', '2022-06-17 14:25:19'), (6, 'Republic Day1', '1655456119-WhatsApp Image 2022-05-27 at 5.47.59 PM.jpeg', '2022-06-17 14:25:19'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `articletb` -- CREATE TABLE `articletb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `articletb` -- INSERT INTO `articletb` (`id`, `title`, `discription`, `added_on`) VALUES (1, 'संसार (WORLD)', '<h2><a href=\"https://santgyaneshwarji.org/ArticleDetails.aspx?id=1\">संसार (WORLD)</a></h2>\r\n\r\n<p>जड़ और चेतन नामक दो वस्तुओं से गुण और दोषमय दो वृत्तियों से बनी चौरासी लाख योनियों द्वारा अपने गुण और कर्म से युक्त संस्कारों के अनुसार परमेश्वर के संकल्प से उत्पन्न एवं संचालित एक कर्म तथा भोग स्थल ही संसार है। इस प्रकार संसार वह कर्म एवं भोग से युक्त स्थान है, जहाँ पर जीव अपने संस्कारों के आधार पर परमात्मा के निर्देशन में चौरासी लाख योनियों के माध्यम से विचरण करता है। जड़ (MATTER) जड़ से तात्पर्य पदार्थ (Matter) से होता है जो चेतनाहीन होता है, जो क्रमिक रूप से उत्पन्न होते हुये पाँच प्रकारों में जाकर स्थित हो गया है। जैसे – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी । पदार्थ – ‘पदार्थ शक्ति का सघन रूप है।’ Matter is the deeply form of power.</p>\r\n\r\n<h2><a href=\"https://santgyaneshwarji.org/ArticleDetails.aspx?id=1\">(1) आकाश तत्त्व</a></h2>\r\n\r\n<p>आकाश से तात्पर्य उस वस्तु विशेष से है जो मात्र शब्द से युक्त हो, साथ ही जो अन्य का सहारा लिए बिना सीधे शक्ति (चेतना) से उत्पन्न हुआ है। गुण – राग-द्वेष, लज्जा, भय और मोह ये पाँच गुण आकाश तत्त्व के हैं। शब्द – आकाश तथा आकाश से संबंधित वस्तुओं की जानकारी का एकमात्र विषय शब्द ही है। इस प्रकार शब्द आकाश तत्त्व का एकमात्र विषय है अर्थात आकाश तथा आकाश से युक्त वस्तुओं को शब्द के अलावा अन्य किसी भी विषय से जाना नहीं जा सकता है। चूंकि संसार की सभी वस्तुएँ आकाश से संबंधित होती हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो आकाश तत्त्व से रहित हो। यही कारण है की किसी भी वस्तु की जानकारी में पहली कड़ी शब्द की ही होती है जो उस वस्तु का नाम है। अतः किसी भी वस्तु, व्यक्ति तथा शक्ति-सत्ता की, किसी भी जानकारी के लिए सर्वप्रथम शब्द का होना अत्यावश्यक है। चूँकि जड़ जगत की सारी वस्तुएँ (पदार्थ) पाँच भागो में ही विभाजित हैं । ऐसी कोई वस्तु नहीं जो इन पाँच (आकाश, वायु, तेज, जल, एवं पृथ्वी) विभागों से बाहर की हो । इन विभागों के अपने-अपने विषय अपनी-अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ,अपनी-अपनी कर्मेन्द्रियाँ आदि होती है जो संक्षिप्ततः यहाँ रखी जा रही हैं – कान:- आकाश तथा आकाश से सम्बंधित किसी भी वस्तु की जानकारी, जो मात्र शब्द द्वारा ही होती है, शरीर मे शब्दों को पकड़ने(जानने) के लिए जो अंग परमात्मा के निर्देशन मे प्रकृति द्वारा निर्मित (बना) है, वही अंग कान (कर्ण) (Ear) है। अर्थात शब्द को पकड़ने वाला अंग कान कहलाता है तथा उसके द्वारा शब्दो को पकड़ने तथा उस वस्तु, व्यक्ति व शक्ति-सत्ता के पहचान वाली क्रिया को तानना कहा जाता है । सभी ज्ञानेन्द्रियों के सहायतार्थ शरीर में सभी के पास एक-एक सहायक इंद्रियाँ भी होती है जो कर्मेन्द्रियाँकहलाती हैं। इन कर्मेन्द्रियों का कार्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार कार्य करना मात्र ही होता है। वाक् – वाक् एक कर्मेन्द्रिय है जिसे वाणी भी कहा जाता है। इसका एकमात्र कार्य कुछ न कुछ बोलना ही होता है। किसी वस्तु, व्यक्ति, शक्ति-सत्ता या स्थान की जानकारी तथा पहचान कराने में यह कर्णेन्द्रिय तक शब्दों को बोलकर पहुँचाने का कार्य करती है जिससे कि उन शब्दों को पकड़कर (सुनकर) कर्णेन्द्रिय अपनी जानकारी वाला अगला कार्य प्रारम्भ कर देती है। वाक् कान की सहायक इन्द्रिय अथवा कर्मेन्द्रिय है।</p>\r\n\r\n<h2><a href=\"https://santgyaneshwarji.org/ArticleDetails.aspx?id=1\">(2) वायु तत्त्व</a></h2>\r\n\r\n<p>चेतन जब आकाश में क्रियाशील होता है तब चेतन और आकाश की संयुक्त क्रिया से जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है, वह वायु (Air) है। वायु की उत्पत्ति चूंकि आकाश की सहायता से होती है इसलिए वायु में आकाश भी समाहित होता है, जिससे उस आकाश के गुण-दोष वायु में भी पाये जाते हैं परन्तु गौड़ रूप से, क्योंकि प्रधान रूप से वायु स्वयं होता है। अर्थात वायु वह वस्तु विशेष होती है जो शब्द तथा स्पर्श से युक्त होती है परन्तु रूप, रस तथा गन्ध से रहित रहते हुये शक्ति (चेतन) की गति से उत्पन्न हुई हो। जीवधारी द्वारा जीवन हेतु ली गयी वायु को ही प्राण वायु कहा जाता है। गुण- दौड़ना, चलना, गाँठ पड़ना, संकोच और प्रसारण, ये पाँच गुण वायुतत्व के हैं। स्पर्श – वायु तथा वायु से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी से सम्बंधित, विषय को स्पर्श कहते हैं। वायु में चूंकि आकाश भी समाहित होता है। इस प्रकार स्पर्श के साथ ही शब्द भी उसमें निहित रहता है। अतः वायु को हम स्पर्श तथा शब्द दोनों के माध्यम से ही जान सकते हैं। इन दोनों विषयों के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय से वायु को नहीं जाना जा सकता है। त्वचा – वायु तथा वायु से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी व पहचान, जो स्पर्श तथा शब्द के माध्यम से होती है, को पकड़ने (अनुभव करने) हेतु बने शरीर के अंग को त्वचा कहते हैं। त्वचा ज्ञानेन्द्रियों में दूसरे स्थान पर आती है जिसका एकमात्र कार्य वायु को स्पर्श के माध्यम से अनुभव करना होता है। पाणि – त्वचा रूपी ज्ञानेन्द्रिय के सहायक इन्द्रिय को पाणि (हस्त) कहा जाता है। त्वचा के इशारे पर ही उसी के सहायक के रूप में कार्य करने के कारण ही पाणि भी कर्मेन्द्रिय ही है। इसका कार्य वस्तुओं का लेना देना तथा त्वचा के इशारे पर पहुँचकर उसकी सहायता करना मात्र होता है। वायु संसार की वह वस्तु है जो किसी भी जीवधारी के लिए आवश्यकता मात्र ही नहीं, अपितु जीवधारियों का जीवन ही उसके बिना असम्भव होता है। लगभग संसार के अन्तर्गत कोई ऐसा कार्य नहीं होगा जिसमें वायु का प्रयोग न होता हो। वायु की मर्यादा योगी-महात्मा आदि आध्यात्मिक व्यक्ति ही प्रधानतया स्वीकार करते हैं। शरीर के द्वारा ली गई वायु को ही प्राणवायु कहा जाता है, जिसको दस भागों- पाँच प्रधान (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) तथा पाँच उप प्रधान (नाग, कुर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय) में विभक्त होकर कार्य करते हुये जाना (अनुभव) व देखा जाता है। प्राण वायु – स्वांस द्वारा ली गई वायु जो हृदय में स्थित होकर शरीर संचालन का कार्य करती है वह प्राण वायु है। किसी भी वस्तु को शरीर के अन्दर पहुँचाने का कार्य प्राण वायु ही करती है। इसी वायु को वैज्ञानिक लोग आक्सीजन (O 2) कहते हैं, जो वैज्ञानिकों के अनुसार जीवधारियों में जीवन का एकमात्र आधार होता है। इसकी अनुपस्थिति में अथवा रुक जाने में जीवधारियों की जीवन प्रक्रिया ही रुक जाएगी। अपान वायु– शरीर में गुदा स्थान में स्थित होकर शरीर से मल आदि विकारों को बाहर करने वाली वायु ही अपान वायु है। समान वायु – शरीर में नाभि देश में स्थित होकर लिए गए भोज्य-पदार्थ अथवा पेय-पदार्थ से उत्पन्न शक्ति को शरीर के अन्तर्गत समस्त अंगों को उसके अनुसार समान रूप से पहुँचाने वाली वायु ही समान वायु है। व्यान वायु – सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हुए शक्ति (ऊर्जा) को समस्त शरीर में व्याप्त करने का कार्य समान वायु के सहयोगी के रूप में कार्य करने वाली वायु ही व्यान वायु है। उदान वायु – शरीर के अन्दर जीव अथवा अन्य वस्तुओं को उर्ध्व(ऊपर की ओर) ले जाने वाली वायु, जो कण्ठ में स्थित रह</p>\r\n\r\n<h2><a href=\"https://santgyaneshwarji.org/ArticleDetails.aspx?id=1\">(3) अग्नि तत्त्व</a></h2>\r\n\r\n<p>अग्नि या तेज तत्त्व- चेतन, आकाश तथा वायु की संयुक्त क्रियाशीलता से उत्पन्न वस्तु या पदार्थ ही अग्नि या तेज तत्त्व है। अग्नि तत्त्व की उत्पत्ति में प्रधानता वायु तत्त्व की होती है, यही कारण है कि अग्नि या तेज तत्त्व को वायु तत्त्व से उत्पन्न हुआ कहा जाता है, फिर भी आकाश तत्त्व का भी सहयोग होता है। चूंकि अग्नि तत्त्व में आकाश तथा वायु तत्त्व भी समाहित रहता है। इसलिए इस तेज तत्त्व को रूप के अलावा शब्द तथा स्पर्श से भी जाना जाता है, परन्तु इसकी जानकारी के लिए रूप की ही प्रधानता है, क्योंकि रूप इसका अपना विषय है। यही कारण है कि तेज की अनुपस्थिति में किसी भी वस्तु को हम देख नहीं सकते हैं क्योंकि देखने का माध्यम रूप और रूप का आधार तेज होता है। गुण- भूख, प्यास, निद्रा, कान्ति और आलस्य ये पाँच गुण तेज के हैं। रूप- तेज तथा तेज से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने वाला विषय ही रूप है। किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता की जानकारी एवं पहचान हेतु शब्द (नाम) ही पूर्ण नहीं होता, अपितु शब्द (नाम) के पश्चात परन्तु साथ ही रूप का होना अत्यावश्यक होता है। जिस प्रकार शब्द के बिना वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता आदि की जानकारी नहीं हो सकती। ठीक उसी प्रकार रूप के बिना वस्तु की पहचान नहीं हो सकती। अर्थात किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता की पहचान हेतु शब्द (नाम) तथा रूप दोनों की साथ-साथ ही उपस्थिति अनिवार्य है। “रूप, शब्द का अर्थवत् बोध मात्र ही होता है। अतः शब्द, रूप की जानकारी तथा रूप, शब्द का अर्थवत् बोध (पहचान) कराने वाली एक-दूसरे की अनिवार्य कड़ी है।” इस प्रकार संसार की किसी भी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता की जानकारी एवं पहचान हेतु शब्द (नाम) एवं रूप ये दोनों प्रधान ही नहीं अपितु अनिवार्य विषय है। अतः तेज ही एकमात्र दिखाई देने वाली वस्तु या माध्यम अथवा शक्ति है। तेज के अलावा किसी भी अन्य वस्तु को न तो देखते हैं और न देख सकते हैं। आँख (चक्षु) – तेज या तेज से सम्बंधित वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता के यथार्थ पहचान हेतु उसके रूप को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही चक्षु (आँख) है। चूंकि तेज में आकाश तथा वायु भी समाहित होता है, जिसे शब्द तथा स्पर्श से जाना जाता है। इसलिए शब्द तथा स्पर्श को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रियों जो कर्ण तथा त्वचा है, से भी जाना जा सकता है परन्तु यथार्थता की पहचान स्पष्टतः नहीं हो सकती है क्योंकि रूप ही तेज तत्त्व का प्रधान विषय है। इसलिए रूप और चक्षु ही यथार्थता की पहचान स्पष्टतः कराने में सक्षम है। पाद (पैर) – किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता पहचान हेतु ज्ञानेन्द्रिय चक्षु के सहायतार्थ गन्तव्य स्थान (लक्ष्य) तक चक्षु को पहुँचाने वाली कर्मेन्द्रिय ही पाद (पैर) है। किसी भी वस्तु, व्यक्ति या शक्ति-सत्ता की जानकारी पहचान हेतु कर्ण तथा चक्षु को उसके पास पहुँचाना मात्र ही इसका प्रधान कार्य होता है।</p>\r\n\r\n<h2><a href=\"https://santgyaneshwarji.org/ArticleDetails.aspx?id=1\">(4) जल तत्त्व</a></h2>\r\n\r\n<p>चेतन, आकाश, वायु तथा तेज द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न एक द्रव विशेष ही जल है। दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग आक्सीजन के मेल से उत्पन्न द्रव पदार्थ जल(H २O ) है। गुण – शुक्र, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार ये पाँच जल तत्त्व के गुण हैं। शरीर संचालन हेतु वायु के समान ही रक्त की भी आवश्यकता होती है और रक्त जल के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। यही कारण है कि संचालन में जलतत्त्व की भी एक विशेष भूमिका होती है। रस - जल तथा जल से युक्त वस्तु की यथार्थतः पहचान करने वाले विषय को रस कहते हैं। यह बात भी सत्य है कि आकाश, वायु, तथा तेज इन तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के मेल से उत्पन्न चौथा पदार्थ जल (H २O ) है। इसी कारण यह भी सत्य है कि तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के गुण व विषय भी जल पदार्थ में समाहित हों अर्थात् जल की जानकारी शब्द, स्पर्श, रूप आदि के माध्यम से भी इनकी अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा हो सकती है परन्तु स्पष्टतः पहचान रस से ही होगी क्योंकि रस जल मात्र का ही अपना विशेष विषय है। अतः “जलतत्त्व की यथार्थतः पहचान कराने वाला विषय मात्र ही रस है।” रसना (जीभ)- जल तथा जल से युक्त पदार्थ की यथार्थ जानकारी तथा पहचान कराने वाले रस को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही रसना है। चूंकि जल में आकाश, वायु तथा तेज तत्त्व भी समाहित रहता है क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इन उपर्युक्त तीनों पदार्थों के गुण व विषय का होना स्वाभाविक ही है। इसलिए जल को हम शब्द, स्पर्श रूप के माध्यम से कर्ण, त्वचा, चक्षु के द्वारा भी जान सकते। अतः रस व रसना ही जल का अपना विषय व ज्ञानेन्द्रिय है जिसके माध्यम से ही जल की यथार्थता की जानकारी व पहचान होती है अन्य से नहीं। लिंग- यह वह इन्द्रिय है जो जल के माध्यम से शरीर की गंदगी को साफ करते हुये गंदगी से युक्त जल (शुक्र, मूत्र आदि) को बाहर कर देती है। इसीलिए इसे कर्मेन्द्रिय कहते हैं। यह (लिंग) जल तथा जल से युक्त पदार्थों के त्याग के द्वारा अपने प्रधान ज्ञानेन्द्रिय रसना को जल की शुद्धता-अशुद्धता के ज्ञान तथा ग्रहण करने में सहयोग प्रदान करता है। चूंकि लिंग का अभीष्ट देवता प्रजापति होता है, इसलिए यह शुक्र के त्याग द्वारा प्रजाओं की उत्पत्ति में भी एक मात्र सहयोगी का कार्य करता है जो सामान्य स्थिति में इसके बिना असम्भव होता है।</p>\r\n', '14 Jun, 2022'), (3, 'Artcle1', '<p>wqwqqw</p>\r\n', '29 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `ashramaddressbooktb` -- CREATE TABLE `ashramaddressbooktb` ( `id` int(11) NOT NULL, `name` varchar(300) NOT NULL, `address` varchar(500) NOT NULL, `phone` varchar(100) NOT NULL, `email` varchar(150) NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `ashramaddressbooktb` -- INSERT INTO `ashramaddressbooktb` (`id`, `name`, `address`, `phone`, `email`, `image_name`, `added_on`) VALUES (1, 'PURUSHOTTAM DHAM ASHRAM', 'Purushottam Nagar, Siddhaur Barabanki, Uttar Pradesh, Pin-225413, India', '+91-9196001364', 'bhagwadavatari@gmail.com', '1656164380-Barabanki.JPG', '25 Jun, 2022'), (2, 'SHRIHARI DWAR ASHRAM', 'Ranipur Mor, Hill Bypass Road, Near Railway crossing to North, Haridwar Pin - 249401, Uttarakhand (India)', '+91-9895703177, 7895703177', 'bhagwadavatari@gmail.com', '1656162644-shriharidwar.jpg', '25 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `audiobhajantb` -- CREATE TABLE `audiobhajantb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(300) NOT NULL, `discription` varchar(500) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `audiobhajantb` -- INSERT INTO `audiobhajantb` (`id`, `title`, `discription`, `added_on`) VALUES (1, 'परम प्रभु की है ये वाणी', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/112-prabhu+k.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/112-prabhu+k.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>\r\n', '22 Jun, 2022'), (2, 'भजो मन सदानन्द', '<audio controls>\r\n <source 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not support the audio element.\r\n </audio>', '22 Jun, 2022'), (5, 'जीवन ले', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/05++jiven+a.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/05++jiven+a.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '22 Jun, 2022'), (6, '06- अवतार मिक्स', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/08++Aveter+mix.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/08++Aveter+mix.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (7, '07- पतित', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/09++pitita.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source 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src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/107-kankan+wa+ghat+ghat+me.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/107-kankan+wa+ghat+ghat+me.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (16, 'किसको अपना कहे यहाँ', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/108-kissko+ap.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/108-kissko+ap.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (17, 'कुछ न बिगड़ेगा तेरा', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/109-kohi+ni+hi.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/109-kohi+ni+hi.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (18, 'नैया करेंगे किनारा प्रभु जी', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/110-naiya.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/110-naiya.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (19, 'प्रभु के सिवा इसको', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/111-prabhu+k+siwa.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/111-prabhu+k+siwa.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (20, 'प्रभु के घर में आओ', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/112-prabhu+k.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/112-prabhu+k.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (21, 'प्रभु तेरी मर्जी', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/114-prabhu+teri+marji.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/114-prabhu+teri+marji.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (22, 'प्रभु जी अपना बनाकर', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/115-prbhu+jiapna+banakar.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/115-prbhu+jiapna+banakar.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (23, 'प्रीत लगाकर', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/116-preet.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/116-preet.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (24, 'सारे जगत को', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/117-sare+jagat+ko.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/117-sare+jagat+ko.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (25, 'मान हो गया गुमान हो गया', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/118-Maan+Ho+Gaya+Gumaan+Ho.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/118-Maan+Ho+Gaya+Gumaan+Ho.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (26, 'कलयुग के पाखण्डी', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/119-Kaliyug+Ke+Pakhandi.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/119-Kaliyug+Ke+Pakhandi.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (27, 'ऐ भवरा घूमता अकेला', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/12-E+Bhanwra+Ghumta+Akela+Sada.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/12-E+Bhanwra+Ghumta+Akela+Sada.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (28, 'श्रृंगारी किशुन दुलारे', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/120-shringari+kisun+dulare.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/120-shringari+kisun+dulare.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (29, 'ज्ञान सदानंद का दीवाना', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/13-Gyana+Sadanand+ka+++1.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/13-Gyana+Sadanand+ka+++1.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (30, 'दया करो हे', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/15-dayakaro+he.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/15-dayakaro+he.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio> ', '10 Jul, 2022'), (31, 'सुनो सुनो जो भटक', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/16-Suno+Suno+Jo+Bhatak.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/16-Suno+Suno+Jo+Bhatak.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (32, 'ये सतयुग वाला प्याला', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/17-Ye+Satsang+Vala+Pyala.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/17-Ye+Satsang+Vala+Pyala.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (33, 'मालिक तेरे चरणों की', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/18-Malik+Tere+Charno+ki.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/18-Malik+Tere+Charno+ki.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (34, 'एक बात कहूँ मैं भैया', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/19-Ek+Baat+Kahun+Main+Bhaiya.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/19-Ek+Baat+Kahun+Main+Bhaiya.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (35, 'भक्ति सेवा मिल गया', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/20-Bhakti+Sewa+Mil+Gaya.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/20-Bhakti+Sewa+Mil+Gaya.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (36, 'कुछ न बिगड़ेगा तेरा', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/21-Kuch+Na+Bigdega+Tera.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/21-Kuch+Na+Bigdega+Tera.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (37, 'परवर दिगार आलम', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/22-Parwar+Digar+Allam.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/22-Parwar+Digar+Allam.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (38, 'विनती प्रभु जी से', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/23-Biniti+Prabhu+Ji+Se.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/23-Biniti+Prabhu+Ji+Se.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (39, 'डूबतो को बचा लेने', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/24-Dubton+Ko+Bacha+Lene.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/24-Dubton+Ko+Bacha+Lene.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (40, 'पहचान लो ये दुनिया', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/25-Pahchan+Lo+Ye+Dunia.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/25-Pahchan+Lo+Ye+Dunia.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (41, 'प्रभु चरण सरन रह ले', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/26-Prabhu+Charan+Sharan+Rah+Le.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/26-Prabhu+Charan+Sharan+Rah+Le.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (42, 'प्रभु पाके तू क्यों', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/27-Prabhu+Paake+Tu+Kyon.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/27-Prabhu+Paake+Tu+Kyon.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (43, 'आ गईले आ गईले', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/28-Aagaile+Aagaile+Aagaile+Ho.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/28-Aagaile+Aagaile+Aagaile+Ho.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (44, 'देवरिया के किशुन के लाला', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/30-Devariya+Ke+Kishun+Ke+Lala.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/30-Devariya+Ke+Kishun+Ke+Lala.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (45, 'दुनिया के मेला को', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/31-Duniya+Ke+Mela+Ko.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/31-Duniya+Ke+Mela+Ko.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (46, 'कब की लागी लगन', ' <audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/32-Kab+Ki+Lagi+Lagan.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/32-Kab+Ki+Lagi+Lagan.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (47, 'हे परम पुरुष हे परमदेव', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/33-Hey+Parampurus+Hey+Paramdev.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/33-Hey+Parampurus+Hey+Paramdev.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (48, 'आ जाते हैं सदानन्द', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/34-Aa+Jaate+Hain+Sadanand.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/34-Aa+Jaate+Hain+Sadanand.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (49, 'अवतार की बेला', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/35-awataar.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/35-awataar.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (50, 'हे पतित उद्धारक नाथ', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/36-Hey+Patit+Udharak+Nath.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/36-Hey+Patit+Udharak+Nath.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (51, 'यहाँ भी सदानन्द', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/36-Yaha+Bhi+Sadanand.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/36-Yaha+Bhi+Sadanand.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (52, 'सदानंद तेरे चरणों की', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/37-Sadanand+Tere+Charno+Ki.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/37-Sadanand+Tere+Charno+Ki.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (53, 'हे दीन बन्धु भगवान', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/38-+Hey+DeenBandhu+Bhagwan.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/38-+Hey+DeenBandhu+Bhagwan.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (54, 'घडी घडी पल पल बीती', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/40-Ghadi+Ghadi+Pal+Pal+Beeti+Jati.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/40-Ghadi+Ghadi+Pal+Pal+Beeti+Jati.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (55, 'सचिदानन्द रूप', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/41-Sacchidanand+Roop.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/41-Sacchidanand+Roop.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (56, 'हरे रामा हरे कृष्णा', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/42-Hare+Rama+Hare+Krishna+(2).mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/42-Hare+Rama+Hare+Krishna+(2).mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (57, '57- जिन्दगी को कभी', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/43-Jindagi+ko+kehi+6ina+vara+-+Nepali.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/43-Jindagi+ko+kehi+6ina+vara+-+Nepali.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (58, 'मान मेरा कहना', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/44-Maan+Mera+Kehna.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/44-Maan+Mera+Kehna.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (59, 'छोड़ो', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/46-chodo++a.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/46-chodo++a.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (60, 'मेरे प्रभु जी तेरे बिना', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/48-mere+prabhu+ji+tere+bina.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/48-mere+prabhu+ji+tere+bina.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (61, 'सदानन्द तेरे ज्ञान ने', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/49-Sadanand+Tere+Gyan+Ne.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/49-Sadanand+Tere+Gyan+Ne.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (62, 'भगवान् को भुला', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/50-Bhagwan+Ko+Bhula.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/50-Bhagwan+Ko+Bhula.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (63, 'जब दर पे तुम्हारे ही', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/51-Jab+Dar+Pe+Tumhare+Hi.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/51-Jab+Dar+Pe+Tumhare+Hi.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (64, 'कोई कारण होगा', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/52-Koi+Karan+Hoga.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/52-Koi+Karan+Hoga.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (65, 'मेरे मालिक के दरबार में', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/53-Mere+Malik+Ke+Darbar+Me.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/53-Mere+Malik+Ke+Darbar+Me.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (66, 'मेरी नैया डूवन लागे', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/54-Mere+Naiya+Duban+Laage.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/54-Mere+Naiya+Duban+Laage.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (67, 'प्रभु सदानन्द जी ने', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/55-Prabhu+Sadanad+Ji+Ne.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/55-Prabhu+Sadanad+Ji+Ne.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (68, 'सदानन्द जी मेरी नैया', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/56-Sadanand+Ji+Meri+Naiya.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/56-Sadanand+Ji+Meri+Naiya.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (69, 'विष्णु राम श्री कृष्णा सदानन्द', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/57-Vishnu+Ram+Shri+Krishna+Sadanand.mp3\" 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'हे सदानन्द', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/60-hea+sadanda.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/60-hea+sadanda.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (73, 'मुझे याद आने वाले', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/61-Mujhe+Yaad+Aane+Waale.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/61-Mujhe+Yaad+Aane+Waale.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (74, 'परम प्रभु आगिले', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/62-Param+Prabhu+Aaye+gayilan.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/62-Param+Prabhu+Aaye+gayilan.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (75, 'प्रभु को चाहने वाले', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/63-Prabhu+ko+Chahne+Walon.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/63-Prabhu+ko+Chahne+Walon.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (76, 'मानुस जन्म अनमोल रे', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/65-Manus+Janam+Anmol+Re.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/65-Manus+Janam+Anmol+Re.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (77, 'मिट जाएगी सब तेरी', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/66-Mit+Jayegi+Sab+Teri+Naam.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/66-Mit+Jayegi+Sab+Teri+Naam.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (78, 'सन्देशा आया है', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/67-Sandesha+Aaya+Hai.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/67-Sandesha+Aaya+Hai.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (79, 'प्रभु सदानन्द किया करो', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/68-Prabhu+Sadanand+Kiya+Karo.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/68-Prabhu+Sadanand+Kiya+Karo.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'), (80, 'सदानन्द प्रभु जी का नाम है', '<audio controls>\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/69-Sadanand+Prabhu+Ka+Naam+Hai.mp3\" type=\"audio/ogg\">\r\n <source src=\"https://bstpssprakashan.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audio+Bhajan/69-Sadanand+Prabhu+Ka+Naam+Hai.mp3\" type=\"audio/mpeg\">\r\n Your browser does not support the audio element.\r\n </audio>', '10 Jul, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `audiosatsangtb` -- CREATE TABLE `audiosatsangtb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(300) NOT NULL, `discription` varchar(500) NOT NULL, `category` varchar(100) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `audiosatsangtb` -- INSERT INTO `audiosatsangtb` (`id`, `title`, `discription`, `category`, `added_on`) VALUES (1, 'Bairwa Nepal (Part-1)', '<iframe frameborder=\"0\" width=\"100%\" src=\"https://drive.google.com/file/d/1ciDX9cguHHq4dLhL_bSkMt1Sx7aM0g4t/preview\"></iframe>', 'Bairwa Nepal', '23 Jun, 2022'), (2, 'Bairwa Nepal (Part-2)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1g1R596PqBGr4EXvzYu1pMv4SodrdA82o/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '23 Jun, 2022'), (6, 'Bairwa Nepal (Part-3)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1Qslqb0_AVBlAmUp-gcZEoktFaWPphvoR/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '23 Jun, 2022'), (7, 'Bairwa Nepal (Part-4)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/10HQwdM2htNY2z4fZBCtvgsW1pQCCmrra/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (8, 'Bairwa Nepal (Part-5)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/15-F1F9KYctUcrykeog2MRkuf1UUVS5-z/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (9, 'Bairwa Nepal (Part-6)', ' <iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1Ztb0acLwMiWGdlx-pQEWWiDeknk-y4WI/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (10, 'Bairwa Nepal (Part-7)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1nplufsSUkIiEwceHrev-nulZl5DYMfrk/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (11, 'Bairwa Nepal (Part-8)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1uS7_2moMU6jb4D-4fs4jCYTrc6WiVT6E/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (12, 'Bairwa Nepal (Part-9)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n 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(17, 'Bairwa Nepal (Part-14)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1zD2sgJOQLEcT0Wq2y6D7oHnI9TkcRyfM/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (18, 'Bairwa Nepal (Part-15)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1qkuo93fhy6GxOLbpGGWp8Nin50TfW1GB/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (19, 'Bairwa Nepal (Part-16)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1XvYuxFArn82eF4y5QiEhvFbFDexSJ_n0/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (20, 'Bairwa Nepal (Part-17)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n src=\"https://drive.google.com/file/d/1Qn2mZv5-nJSwT9rxiG9rGqQEXug9PbPk/preview\">\r\n </iframe>', 'Bairwa Nepal', '10 Jul, 2022'), (21, 'Bairwa Nepal (Part-18)', '<iframe\r\n frameborder=\"0\"\r\n width=\"100%\"\r\n 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src=\"https://drive.google.com/file/d/1xeTa3b_HTbCmzpL66TDY-il7ukz-Ku_d/preview\">\r\n </iframe>', 'Magh Mela Allahabad-2006', '15 Jul, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `faqtb` -- CREATE TABLE `faqtb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(1000) NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `faqtb` -- INSERT INTO `faqtb` (`id`, `title`, `discription`, `added_on`) VALUES (1, 'Why is Sadanand Tattvagyan Parishad very advantageous to us ?', '<p>Sadanand Tattvagyan Parishad is the only Association assisting its individuals in leading towards Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal. The fundamental base for all of its activities is TATTVAGYAN of Lord Vishnuji-Ramji-Krisnaji-Sadanandji who are GODLY INCARNATIONS of all the four eras. No institution, organisation, association, society or forum is there in the world which is acting purely for Khuda-GOD-Bhagwan on True, Real and distinct concepts of World, Body, Self, Soul and GOD alongwith the FOUR Systems namely Education, Self-Realization, Spiritualization and Supreme KNOWLEDGE of the WORD or TATTVAGYAN of PARAMTATTVAM or KHUDAI ELM of Huruf-e-Muqataat. All the individuals of Sadanand Tattvagyan Parishad will be receiving True and Real Path to Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal as the Activities of this Association is governed by Mahatmas who have really achieved and met Khuda-GOD-Bhagwan or Sat SiriAkaal Who is beyond Aalim-e-Noor, Divine Light Soul or Divya Jyoti Aatma-Eeshwar-Bramha or Shiv.</p>\r\n', '15 Jun, 2022'), (3, 'What is Self ? Is Self the same as Rooh ? Is Rooh same as Jeeva ?', '<p>Certainly the Self is the driver of the body. It is completely different from Soul or Aatam or Eeshwar or Bramha or Divine Light or Noor or Khuda-GOD-Bhagwan. The same Self is also called Jeeva in Sanskrit (or in Hindi) or Rooh in Arabic (or in Urdu). Self is not Soul and Soul is not GOD. Jeeva is not Aatma and Aatma is not Parmatma. Similarly Rooh is not Noor and Noor is not Allaahtaala or Khuda. Most of modern Religious Preachers are greatly deluding the people about the Self, Soul and GOD declaring that all the Three are the same. In fact they themselves are not clear about the the Three.</p>\r\n', '19 Jun, 2022'), (4, 'What is Soul ? Is Soul the same as Aatma ? Is Aatma the same as Eeshwar ?', '<p>Soul is also called the Aatma or Eeshwar or Bramha or Spirit or Noor. It is Divine by existence. It is effulgent of Divine Light. It is not like inert material but pure conscious. It can take decisions, It can move any where It wills, It can inspire anyone It likes, It can provide all the ameneties on merely Its will. It acts upon WILL only. It is formless and It travels throughtout the Universe as fast as nothing. Within no second It reaches the other corner of the Universe. Souls are many like Selfs or bodies. All the Souls are subordinates of Supreme Lord are the controlling tools of GOD. Souls receives Divinity from the GOD. No Soul remains Divine if diverted from the Lord.</p>\r\n', '19 Jun, 2022'), (5, 'Is GOD different from Soul ? Is Paramatma different from Aatma ?', '<p>You are right when you say that GOD is beyond the Soul, Paremshwar is different from Eeshwar, Parambrmaha is separate from Bramha, Allaahtaala is different from Aalim-e-Noor and GOD-Father is separate from the Divine Light or Light Messengers. Soul, Aatma, Eeshwar, Bramha, Concious Noor or Chandana is lower than the Supreme Lord Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal. Next lower entity is the Self, the Jeeva or the Rooh.</p>\r\n', '19 Jun, 2022'), (6, 'Where does the Soul reside ?', '<p>The Aatma are many and they all travel in between the Selfs and GOD. Souls are not in the body. Those who know nothing about the Self, call the Soul as dwelling inside the body. Actually Soul or Eeshwar or Bramha does not reside in the body. It comes from and goes to GOD, the Supreme Exist. Because Jeeva dwells inside body, the body is called Sajeeva or Jeevit body.</p>\r\n', '19 Jun, 2022'), (7, 'What is GOD then and Who is Khuda-GOD-Bhagwan ?', '<p>Surely GOD is the Supreme. A Supreme Exist is GOD. There is no time when GOD is not there. It is only GOD Who exists all the time without changes. Before the creation was started, It is GOD only who existed. After this creation will be dissolved, It will be GOD only who will exist. Even Souls are submerged finally into GOD, what to say of other things. GOD is the creator, sustainer and submerger of this Creation and is hence beyond the Creation. HE does not live in this Creation. HE lives in HIS SUPREME ABODE which existed before the Creation and will exist after the Creation also.</p>\r\n', '19 Jun, 2022'), (8, 'What is Eeshwar then ?', '<p>Again you are confused. Eeshwar is not synonyms of GOD. Eeshwar is Divine while GOD is Eternal. Eeshwar is a detatching Light from GOD. So, Eeshwar is not GOD. Now we must keep it in a proper sequence. Jeeva, Eeshwar and Parmeshwar-- or -- Jeeva, Aatma and Parmatma --or-- Aham, Bramha and Parambramha --or-- Self, Soul and GOD --or-- Rooh, Noor and Allaahtaala, like that. That which is Aatma is also Eeshwar. That which is Parmatma is also Parmeshwar. That which is Soul is not GOD. That which is Parmatma or Parmeshwar is certainly Khuda-GOD-Bhagwan.</p>\r\n', '19 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `fardtb` -- CREATE TABLE `fardtb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(1000) NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `fardtb` -- INSERT INTO `fardtb` (`id`, `title`, `discription`, `added_on`) VALUES (2, '3. योग-साधना अथवा अध्यात्म (SPIRITUALIZATION)1', '<p>assaas</p>\r\n', '15 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `gallerycategorytb` -- CREATE TABLE `gallerycategorytb` ( `id` int(11) NOT NULL, `gallerycategorytitle` varchar(300) NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `gallerycategorytb` -- INSERT INTO `gallerycategorytb` (`id`, `gallerycategorytitle`, `image_name`, `added_on`) VALUES (2, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982003-about1.jpg', '23 Jun, 2022'), (3, '2017-Magh Mela-Allahabad', '1655985740-aboutpage.jpg', '23 Jun, 2022'), (4, 'Republic Day', '1655986370-Sompriya_Dwivedi.jpg', '23 Jun, 2022'), (5, 'Republic Day12', '1655986380-Manish_Dwivedi.jpg', '23 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `gallerytb` -- CREATE TABLE `gallerytb` ( `id` int(11) NOT NULL, `gallerycategory` varchar(300) NOT NULL, `file_name` varchar(300) NOT NULL, `uploaded_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `gallerytb` -- INSERT INTO `gallerytb` (`id`, `gallerycategory`, `file_name`, `uploaded_on`) VALUES (1, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982080-blog1.jpg', '2022-06-23 16:31:20'), (4, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982293-blog2.jpg', '2022-06-23 16:34:53'), (5, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982293-blog3.jpg', '2022-06-23 16:34:53'), (6, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982326-doctorenquiry.jpg', '2022-06-23 16:35:26'), (7, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982326-hospitalenquiry.jpg', '2022-06-23 16:35:26'), (8, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982326-Manish_Dwivedi.jpg', '2022-06-23 16:35:26'), (9, '2017-Lucknow-Ashram-Moorti-Sthapana', '1655982326-Sompriya_Dwivedi.jpg', '2022-06-23 16:35:26'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `gyanalayapratiyogitatb` -- CREATE TABLE `gyanalayapratiyogitatb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `iframe` text NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `gyanalayapratiyogitatb` -- INSERT INTO `gyanalayapratiyogitatb` (`id`, `title`, `iframe`, `discription`, `added_on`) VALUES (1, 'सत्संग प्रतियोगिता क्रमांक 1', '<iframe width=\"560\" height=\"315\" src=\"https://www.youtube.com/embed/QABBPs-kOVo\" frameborder=\"0\" allow=\"accelerometer; autoplay; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture\" allowfullscreen></iframe>', '<p>1. भगवान कृष्ण ने कौन से चार प्रकार के भक्त या भक्ति का वर्णन किया है?<br />\r\n<br />\r\n2. देवी लक्ष्मी, देवी सरस्वती एवं देवी सती तीनों के सवारी रूपी जीवों का नाम बताएं?<br />\r\n<br />\r\n3. आज के सत्संग में किसे भगवान की पत्नी व किसे भगवान का पुत्र बताया गया है?<br />\r\n<br />\r\n4. यहूदी समुदाय के 3 वर्ग व सनातन समुदाय के तीन वर्गों का नाम बताइए?<br />\r\n<br />\r\n5. इब्राहिम के पुत्र व उनके नाती का नाम बताइए?<br />\r\n<br />\r\n6. यदि ज्ञान एक वृक्ष है तो खाद पानी किसे कहा जाएगा?<br />\r\n<br />\r\n7. भगवान सदानन्द जी ने कौन सी दो भक्ति को निंदनीय बताया है?<br />\r\n<br />\r\n8. श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने देवी-देवताओं से संबंधित भक्ति पूजा के विषय में कौन सी अति महत्वपूर्ण बात कही है?<br />\r\n<br />\r\n9. किन देवी देवताओं के भक्त प्रायः सिद्धि प्राप्त होते ही असुर - राक्षस हो जाते हैं?<br />\r\n<br />\r\n10. आज का सत्संग कहां और किस सन में सुनाया गया था?</p>\r\n', '05 Jul, 2022'), (2, 'सत्संग प्रतियोगिता क्रमांक 2', '<iframe width=\"560\" height=\"315\" src=\"https://www.youtube.com/embed/wh_YOUEF3YI\" frameborder=\"0\" allow=\"accelerometer; autoplay; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture\" allowfullscreen></iframe>', '<p>1. जीवों के पतित होने का कारण भगवान कृष्ण ने क्या बताया है?<br />\r\n<br />\r\n2. तत्त्व का अर्थ क्या है ?<br />\r\n<br />\r\n3. कोई तीन अंशावतार के नाम बताइए?<br />\r\n<br />\r\n4. सच्चा ब्राह्मण किसे कहा गया है?<br />\r\n<br />\r\n5. भूसूर का अर्थ क्या है?<br />\r\n<br />\r\n6. अवतार के विषय में भविष्य वक्ताओं ने किन दो लक्षणों का वर्णन नहीं किया है?<br />\r\n<br />\r\n7. अमेरिका में आक्रमण की भविष्यवाणी किस सन में हुई थी?<br />\r\n<br />\r\n8. सत्संग में कुल कितने प्रकार के जयकारे भगवान के मुखारविंद से लगाए गए?<br />\r\n<br />\r\n9. व्याकरण के अनुसार-किसी वाक्य में प्रधान क्या होता है?</p>\r\n', '05 Jul, 2022'), (3, 'सत्संग प्रतियोगिता क्रमांक 3', '<iframe width=\"560\" height=\"315\" src=\"https://www.youtube.com/embed/2no1VRd728Y\" frameborder=\"0\" allow=\"accelerometer; autoplay; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture\" allowfullscreen></iframe>', '<p>1. प्रत्येक कर्म का एक सुनिश्चित............. होता है |<br />\r\n<br />\r\n2. पंच भौतिक शरीर का चश्मा किसे कहा गया है?<br />\r\n<br />\r\n3. असुरता में ...........वृत्ति एवं देवत्व में ..............वृत्ति होती है |<br />\r\n<br />\r\n4. जैसे ही ज्ञानी कर्म और भोग में प्रवेश करता है माया उसके साथ कैसा व्यवहार करती है?<br />\r\n<br />\r\n5. सृष्टि के दो सिस्टम कौन कौन से हैं ?<br />\r\n<br />\r\n6. कर्म प्रधान विश्व रचि राखा किसके लिए कहा गया है?<br />\r\n<br />\r\n7. कर्म क्या है ?<br />\r\n<br />\r\n8. गृहस्थ को भगवान ने किस अवस्था में कहा है?<br />\r\n<br />\r\n9. चारों आश्रम व चारों वर्णों का नाम बताइए |<br />\r\n<br />\r\n10. आज के व्यवस्था में अधिकारी वर्ग किस क्लास के अंतर्गत विभाजित किए गए हैं?</p>\r\n', '05 Jul, 2022'), (4, 'सत्संग प्रतियोगिता क्रमांक 4', '<iframe width=\"560\" height=\"315\" src=\"https://www.youtube.com/embed/-f3u5cACHo0\" frameborder=\"0\" allow=\"accelerometer; autoplay; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture\" allowfullscreen></iframe>', '<p>1. जात-पात ऊंच-नीच की दीवार कैसे हट सकती है?<br />\r\n<br />\r\n2. चारों आश्रमों का विवरण उम्र के अनुसार बताइए ।<br />\r\n<br />\r\n3. कौनसा पेट्रोलियम उत्पाद उच्च दाहिका शक्ति से युक्त है?<br />\r\n<br />\r\n4. हरिजन की बारात के लिए किस जिले का नाम कहानी में आया है?<br />\r\n<br />\r\n5. आज की कहानी के अंतर्गत किस वर्ग की बारात जा रही थी?<br />\r\n<br />\r\n6. ऊंच -नीच जात -पात का भेदभाव किस स्तर पर होता है?<br />\r\n<br />\r\n7. जात-पात, ऊंच-नीच की दीवार कैसे हट सकती है?<br />\r\n<br />\r\n8. हर शरीर से अलग प्रकार के ........पैदा होते हैं |<br />\r\n<br />\r\n9. किसी शरीर के पेट वाले भाग की तुलना किससे की गई है?<br />\r\n<br />\r\n10. आदि में जाति का निर्धारण .......... व.............के आधार पर किया गया था?</p>\r\n', '05 Jul, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `newstb` -- CREATE TABLE `newstb` ( `id` int(11) NOT NULL, `newstitle` varchar(500) NOT NULL, `long_desc` longtext NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `newstb` -- INSERT INTO `newstb` (`id`, `newstitle`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (1, 'mynews1weew', '<p>qwwwwwwwwwwwwewew</p>\r\n', '1655363851-c1.jpg', '16 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `pagedetailstb` -- CREATE TABLE `pagedetailstb` ( `id` int(11) NOT NULL, `pagename` varchar(300) NOT NULL, `long_desc` longtext NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `pagedetailstb` -- INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (1, 'Objective - मेरा उद्देश्य', '<p><b>मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का उद्देश्य</b></p>\r\n\r\n<p>"मेरा उद्देश्य आप समस्त सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासुजन को दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्तता और अमरता से युक्त सर्वोत्तम जीवन विधान से जोड़ते-गुजारते हुये लोक एवं परलोक दोनो जीवन को भरा-पूरा सन्तोषप्रद खुशहाल बनाना और बनाये रखते हुये ‘धर्म-धर्मात्मा-धरती रक्षार्थ’ जिसके लिये साक्षात् परमप्रभु- परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् अपना परमधाम (बिहिश्त-पैराडाइज) छोड़कर भू-मण्डल पर आते हैं, वर्तमान में भी आये हैं, में लगना-लगाना-लगाये रखना है । माध्यम और पूर्णतया मालिकान ‘तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान’ और खुदा-गॉड-भगवान का ही होगा-रहेगा” | किसी को भी पूरे भू-मण्डल पर ही इस परम पुनीत भगवत् कार्य, जिसका माध्यम और मालिक भी साक्षात् ‘खुदा-गॉड-भगवान्’ ही हों, में जुड़ने -लगने - लगाने-लगाये रखने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिये । खुशहाली और प्रसन्नता के साथ यथाशीघ्र लग-लगाकर ऐसे परमशुभ अवसर का परमलाभ लेने में क्यों न प्रतिस्पर्धात्मक रूप में अग्रसर हुआ जाय ! न कोई जादू, न कोई टोना, न कोई मन्त्र, न कोई तन्त्र । सब कुछ ही भगवत् कृपा रूप ‘तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान’ के माध्यम से । वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता-पुराण-बाइबिल-कुर्आन-गुरुग्रन्थ साहब आदि-आदि सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों द्वारा समर्थित और स्वीकृत विधानों से ही कार्यक्रम चल-चला रहा है और चलता भी रहेगा । मनमाना कुछ भी नहीं । <strong>“लोक लाभ परलोक निबाहू और श्रीराम जी वाला “जौं परलोक इहाँ सुख चहहू । सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू” ॥</strong> को अपने जीवन में व्यवहरित बनाते हुये उसी प्रकार से वर्तमान में भी लाभान्वित होवें । इस परम शुभ अवसर का लाभ प्राप्त कर अपने को धन्य-धन्य बनाएं |</p>\r\n\r\n<p><strong>अंतत: एक बार दोहरा दूँ कि मेरा उद्देश्य ‘दोष रहित सत्य प्रधान मुक्ति-अमरता से युक्त सर्वोत्तम जीवन विधान वाला अमन-चैन वाला समृद्ध-संपन्न धर्म प्रधान समाज स्थापित करना – कराना है |’</strong></p>\r\n\r\n<p style=\"text-align:\">सब भगवत कृपा से ।<br />\r\nतत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n'पुरुषोत्तम धाम आश्रम'<br />\r\nपुरुषोत्तम नगर, सिध्दौर<br />\r\nबाराबंकी-225413<br />\r\nउत्तर प्रदेश, भारत</p>\r\n', '1655545818-inner-banner.jpg', '17 Jun, 2022'), (2, 'Reality - वास्तविकता', '<p class=\"mt-3\" align=\"center\">सर्वप्रथम में 'आत्मतत्त्वम्' था शब्द रूप में एक ।<br />\r\nउसी 'तत्त्व' के कृत संकल्प से सृष्टि भई अनेक ॥<br />\r\n'परमतत्त्वम्' से आत्म निकल फिर लिया चेतन रूप ।<br />\r\nउसी आत्म से सृष्टि भई यह जड़ चेतन भवरूप ॥<br />\r\n'आत्मतत्त्वम्' अद्वैत् रूप था, अद्वैत् का ही खेल यह।<br />\r\nधर्म-कर्म और कर्म-धर्म का विचित्र रचाया मेल वह॥<br />\r\n'तत्त्व' से आत्म, आत्म ही चेतन, चेतन से जड़ रूप।<br />\r\nचेतन-आत्म निकल 'तत्त्व' से लिया प्रचण्ड ज्योतिर्मय रूप ॥<br />\r\nब्रह्म-ज्योति और दिव्य-ज्योति, सब आत्मा का ही रूप ।<br />\r\nज्योति मात्र को 'तत्त्व' न मानो, ज्योति से श्रेष्ठ 'तत्त्व' को जानो।<br />\r\n'तत्त्व' से आत्म, आत्म से हँ इन तीनों को पहचानो ॥<br />\r\n'तत्त्व' एक है ज्योति अनेक, हँ तो भया हर तन का टेक ॥<br />\r\nतन से पृथक् हँ को मानो, हँ से पृथक् स: को जानो ।<br />\r\nहँऽस जीवात्मा से पृथक् उस 'आत्मतत्त्वम्' को पहचानो ॥<br />\r\nतन है देह, जीव है हँ, हँऽस का पतन रूप है सोऽहँ ।<br />\r\nआत्मा का ही गुण दोषमय रूप हुआ है हँ ॥<br />\r\nहँ को कायम रखने हेतु ही आता 'तत्त्व' से स: ।<br />\r\nस: ही हँ पतितमय सोऽहँ, उर्ध्वमुखी क्रिया है हँऽस ॥<br />\r\nसोऽहँ रूप है आत्मा जीवमय, हँऽसो है जीवात्मा ।<br />\r\nसोऽहँ-हँऽस से पृथक् 'तत्त्व' है 'आत्मतत्त्वम्' परमात्मा ॥<br />\r\nआत्म-ज्योति ही तन-प्रवेश कर हो जाता हँ रूप ।<br />\r\nआत्म-ज्योति जैसा ही स: भी होता रहता है हँ रूप ॥<br />\r\nसोऽहँमय सब प्राणी मात्र हैं, हँऽसोमय योगी साधक ।<br />\r\nजो कोई कहता दोनों एक हैं, वह है योग अध्यात्म का बाधक॥<br />\r\nसोऽहँ स: का पतन रूप है, हँऽस है हँ का ही स: रूप ।<br />\r\n'आत्मतत्त्वम्' तो सोऽहँ-हँऽस का उद्गम-विलय रूप-अनूप ॥</p>\r\n\r\n<p class=\"mt-3\">पूरी धरती पर क्या कोई भी ऐसा है जो इस उपर्युक्त ''वास्तविकता'' को सद्ग्रन्थीय और प्रायौगिक आधार पर भी ग़लत प्रमाणित करने की चुनौती दे सके ? जबकि मैं किसी भी गुरु-तथाकथित सद्गुरु-तथाकथित भगवानों आदि धर्मोपदेशकगण, यदि वे तैयार हों अथवा मेरी चुनौती स्वीकार करें तो उनके दीक्षा-उपदेश-सिध्दान्त को सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों और प्रायौगिक आधार पर भी ग.लत अथवा आध-अधूरा प्रमाणित करने को तैयार हूँ । यह मात्र कथन की ही बात नहीं अपितु एक चुनौती भरा सत्य तथ्य है। इसे मेरी महत्तवाकाँक्षा अथवा मेरा अहंकार न समझा जाय बल्कि भगवत् कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के प्रभाव के आधार पर ही समझें। सच्चाई को जानें-देखें- समझें-परखें और सही ही मिले तो अपनाकर लाभान्वित अवश्य ही हों। यह ही जीवन का उद्देश्य है ।</p>\r\n\r\n<p class=\"mt-3\" align=\"right\">सब भगवत कृपा से ।<br />\r\nतत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n<br />\r\n'पुरुषोत्तम धाम आश्रम'<br />\r\nपुरुषोत्तम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0</p>\r\n', '1655545526-inner-banner.jpg', '17 Jun, 2022'), (3, 'Five Entities - पाँच अस्तित्व', '<p><b>THERE ARE FIVE TYPES OF THE 'POSITION OF'</b></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>1. THE UNIVERSE OR BRAMHAND :</strong> The Universe is a combined form of place, circumstances, atmosphere and all the Nature including merits and demerits. This world or this earth is just a fractional part of the Universe.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>2. THE BODY :</strong> Body whom we know as a man or as a woman, is a machine of the 'Self'. Body with all its organs is dead if it is without the Self. Body is alive till it is with the Self. Without the Self, body which is a soily form with many organs, is a dead body. It means that, in fact, a dead body is a real body which is also called Shareer in Sanskrit or Hindi and Jism in Arabi or Urdu.</p>\r\n\r\n<p><strong>3. THE SELF :</strong> Self is a form of his body and action of the Soul. It is between the body and the Soul. Self is sceptal and is unlike the body which is soily. This is also called Jeeva in Sanskrit or Hindi and Rooh in Arabi or Urdu. It is Self who thinks, knows, understands, decides, talks and so on and acts through various organs of the body.</p>\r\n\r\n<p><strong>4. THE SOUL :</strong> Soul is a Light or Divine Light or Noor or Divya Jyoti or Chaandana or Param Prakash or Sahaj Prakash. Soul is also called Aatma, Eeshwar, Barmha or So'Han-Han'So Jyoti in Sanskrit or Hindi and Noor in Arabi or Urdu. Soul is a detaching light from GOD or the SUPREME ALMIGHTY LORD.</p>\r\n\r\n<p><strong>5. THE GOD :</strong> GOD is PARAMTATTVAM-like-AATMATATTVAM or ALM. GOD is all over the SUPREME and is also called Parmatma-Parmeshwar-Parambramha or Khuda-Allahtaala or Bhagwan or Yahoa or Arihant-Bodhisattva or ParamPurush or AkaalPurush or SatPurush.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p style=\"text-align: right;\">सब भगवत कृपा से ।<br />\r\nतत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n<br />\r\n'पुरुषोत्तम धाम आश्रम'<br />\r\nपुरुषोत्तम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n', '1655546195-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (4, 'Four System - चार विधान', '<p><strong>THERE ARE FOUR SYSTEMS UNDER THE 'ABSOLUTE KNOWLEDGE'</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>1. EDUCATION :</strong> Education is that lowest part of 'ABSOLUTE KNOWLEDGE' under which we know, see and gain any thing or position in between the world or the Universe or Bramhand and the body. This is 'by the senses and of the senses' of the body. All such education-based achievements are upto the body only. Education is also called Shiksha in Sanskrit and Hindi.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>2. SELF REALIZATION :</strong> Self Realization is the second system under 'ABSOLUTE KNOWLEDGE' under which we know, see and gain any thing and the position of Self. Self Realization is based on 'by the Self, for the Self and of the Self'. Self Realization is secondly called 'Swaddhyaya' in Sanskrit and Hindi which means 'the study of the Self (swa ka addhyana vidhaan)'.</p>\r\n\r\n<p><strong>3. SPIRITUALIZATION OR YOGA :</strong> The System under which we know, see and gain any thing or position of the Soul is Yoga or Spiritualization. This is based on 'by the Soul, for the Soul and of the Soul. The Soul is not Perfect, hence Liberation and Immortality (Mukti and Amartaa) are not achieved under this system. Spiritualization is also known as 'Addhyatma' which means 'towards Aatma (Aatma ki our)'</p>\r\n\r\n<p><strong>4. THE KNOWLEDGE OF THE SUPREME OR TATTVAGYAN :</strong> The Supreme System under which we meet, know, see, conversate with and gain any thing or the position of 'GOD' is called' the KNOWLEDGE of the SUPREME' or the 'KNOWLEDGE of the GOD or simply Tattvagyan'. This is based on 'by the GOD and for the GOD' only. This is the only System which is 'True, Supreme and Perfect'. Other methods and principles are imperfect. Therefore 'Liberation and Immortality' or Mukti and Amartaa is never gained under any other system else. These are gained in this very Supreme System. 'The KNOWLEDGE of GOD' or 'the Supreme KNOWLEDGE' is also known as 'Tattvagyan' in Sanskrit and Hindi and 'Khudai Elm' in Arbi and Urdu. All the secrets of the whole existences lie in it and is clearly perceivable in one's front in this very System and no where else.</p>\r\n\r\n<hr />\r\n<p>The Method under which we know and see the Self is called 'Self Realization' not 'Spiritualization' or 'KNOWLEDGE or <strong>Tattvagyan</strong>'.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>The Method by which we know and see the Soul is called only 'Yoga or Spiritualization', not Self Realization or 'KNOWLEDGE'. However, Self Realization is already covered by 'Spiritualization or Addhyatmya'.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Similarly. the Supreme System under which we meet with, know, see and conversate with GOD is known as 'KNOWLEDGE or <strong>Tattvagyan</strong>' alone, not 'Self Realization' or 'Spiritualization'. However, Education, Self Realization and Spiritualization, all these three are covered within the 'KNOWLEDGE'. Therefore, 'KNOWLEDGE' alone is PERFECT.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>If you want to know anything fundamentally or to get the 'position of GOD or SUPREME, you must get <strong>'Tattvagyan'</strong> only because nothing is left unknown fundamentally if you get Tattvagyan which is all the Perfect. Then you will find yourself becoming as Perfect as a Supreme Person after getting this Tattvagyan or this KNOWLEDGE.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p style=\"text-align: right;\">सब भगवत कृपा से ।<br />\r\nतत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n<br />\r\n'पुरुषोत्तम धाम आश्रम'<br />\r\nपुरुषोत्तम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0</p>\r\n', '1655548186-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (6, 'Universal Facts', '<h3>UNIVERSAL FACTS</h3>\r\n\r\n<ul>\r\n <li><b>*</b> There are Four Systems under the 'Absolute KNOWLEDGE or the Supreme KNOWLEDGE or TATTVAGYAN' of the Supreme Lord, the Almighty Khuda-GOD-Bhagwan.</li>\r\n <li><b>*</b> GOD dwells not in HIS OWN Creation.</li>\r\n <li><b>*</b> Khuda-GOD-Bhagwan is ONLY 'ONE' and HE does not live in everyone's heart.</li>\r\n <li><b>*</b> GOD is ONLY ONE and HE is also called Parmatma, Parmeshwar, Parambramha, Haqtaala-Allaahtaala, Supreme Almighty Lord, Yahoa, Arihant, Bodhisattva, SatSiriAkaal, Ekonkaar, Parampurush, Satpurush, Ahoormazda etc.</li>\r\n <li><b>*</b> GOD incarnates down onto this earth only once an era. HE is not Oan or So'Han-Han'So-Jyoti or Divine Light. HE is not even Shiv. According to Bible, In the Beginning was the 'WORD', the 'WORD' was with GOD and the 'WORD' was GOD.</li>\r\n <li><b>*</b> The Self is not the Soul and the Soul is not the GOD. These all are distinctly and separately three.</li>\r\n <li><b>*</b> GOD is not omnipresent in the sense that HE is every where. HE is omnipresent by the fact that HE surrounds the creation. HIS Power is everywhere. GOD is the Source of all Powers and Souls. Everything is created from, by and within GOD.</li>\r\n <li><b>*</b> It is GOD only Who knows the real meaning of Dharma or Religion. It is HE only Who can establish Real and True Religion on the earth and none else. When HE come down from HIS ETERNAL ABODE ( also called Paramdham or Bihisht or Paradise ), HE does not go back unless the whole world becomes basically Religious.</li>\r\n <li><b>*</b> GOD cannot be recognized by any means except through HIS OWN SYSTEM called Tattvagyan or the True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE. Tattvagyan is the Identity Card for HIS Identification. When He come down from HIS ETERNAL ABODE, HE Himself makes HIMSELF identified with HIS Tattvagyan to only those who receive HIS Tattvagyan form HIM. Tattvagyan cannot be given by any one else.</li>\r\n <li><b>*</b> Lord Vishnu-Ram-Krishnaji in the previous eras namely Satyayuga, Tretayuga and Dwaparyuga were the Incarnations of Supreme Almighty Khuda-GOD-Bhagwan.</li>\r\n <li><b>*</b> The only ONE BODY which Khuda-GOD-Bhagwan takes up to act through on HIS coming down onto this earth, is called Avatari like Shri Vishnu, Ram and Krishnaji.</li>\r\n</ul>\r\n\r\n<p>सब भगवत कृपा से ।<br />\r\nतत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n<br />\r\n'पुरुषोत्तम धाम आश्रम'<br />\r\nपुरुषोत्तम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 </p>\r\n', '1655551010-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (7, 'Who To Join Sadanand Tattvagyan Parishad?', '<h3>WELCOME DHARMIK RESEARCHERS !</h3>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>'STP' or 'Sadanand Tattvagyan Parishad' which is a Dharmik Association of world-wide GODly Devoted Bhakta-Sevak to change this duniya with Devotion and Seva to Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal for the sake of a stable peace and pleasure with continual rise in life. 'Sadanand Tattvagyan Parishad' declares Param Pujya Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans to be the present Bestower of 'Tattvagyan' as was previously imparted by Lord Vishnuji, Lord Ramji and Lord Krishnaji in forthgoing eras.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong> IF YOU ARE AN ATHEIST :</strong> This is the best place where you will find your doubts cleared with full satisfaction as this Association is based on the Practical Supreme Knowledge of Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal. Therefore, it gives you full analytical freedom for known and unknown facts to be taken up for analysis. The Supreme System on which this Association is based upon, is known as 'Tattvagyan' which you might not have found in the world so far. So you will find new concepts of Self, Soul and GOD. This would be a new dimension of your doubt-clearance.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong> IF YOU ARE A THEIST :</strong> You need the Highest Truth which comprises in Itself all the doctrines and principals of the present and foregoing religious leaders. Partial or fractional knowledge leads one towards confusion on the one hand and towards short-term achievements on the other. This Association assures you to guide for the highest goal of your life with a freedom of preparing a comparative view with other's doctrines. Join us immediately.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong> IF YOU ARE DISCIPLE OF A LIVING GURU :</strong> This is the best Association for you for analyzing every aspect already known or received or not known or not received by you from your Guru. This Association is based on 'Tattvagyan' of Lord Vishnuji, Lord Ramji and Lord Krishnaji and now of Prabhu Sadanandji, therefore, you can certainly achieve the better trend as compared to what you are currently having. The reason for this is that the 'Tattvagyan' is all the True, Supreme and Perfect. This is the newest System in this era of Kaliyuga.<br />\r\n<br />\r\nThe Association, therefore, will help you in:<br />\r\n<br />\r\n1. Enhancing your faith and devotion;<br />\r\n<br />\r\n2. Gaining confirmity in concepts for its truthfulness and<br />\r\n<br />\r\n3. Authentic base of certainity for achieving Immortality under the System of 'Tattvagyan' after casting off your body.<br />\r\n<br />\r\n4. etc. etc. etc.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOUR GURU IS A PERFECT GURU :</strong> Fortunately, if you have attached yourself with a Perfect Guru (Sadguru), you will find this Association most helping in enhancing</p>\r\n\r\n<p><br />\r\n1. Degree of belief by ascertainig true concepts of your Guru;<br />\r\n<br />\r\n2. Degree of surrendership and devotion by assuring highest achievements authentically and<br />\r\n<br />\r\n3. Degree of fearlessness against other's ostentation by exposing real concepts.<br />\r\n<br />\r\n4. etc. etc. etc.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOU HAVE NO GURU OR YOUR GURU'S GONE :</strong> No problem ! You may analyse whether a Guru is necessary for your upliftment towards Immortality or not. Decide yourself freely and frankly. If you like a better Guru in the same line as your previous Guru was, you may find and decide yourself by comprehending the true path. This Association will help you in both the cases you like a Guru or you don't like a Guru.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOU ARE IN SEACH OF A SADGURU :</strong> The Supreme Knowledge of a Sadguru bestows 'Liberation and Immortality' over and above Maya to all GODly Surrendered Devotees. How to recognize a Real Sadguru ? This Association helps a lot in finding a Real Sadguru with a full and illustrative comparision with others. This Association makes you achieve descriptive knowledge so that you may be in a doubtless position to choose the Real Sadguru.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOU ARE A PHILOSOPHER, THINKER OR ANALYSER :</strong> Knowledge is ever beneficial whatsoever it may be of. You are perfectly free for an analytical approach over any concept of this Association. Know ahead of what you already know. Think, analyse and contemplate over all concepts being presented by this Association including those of Self, Soul and GOD. If you find it appealing for righteousness, highlight it to others. Utilize your thinking and analysing efficiency solely and freely in making a distinct comparision in respect of better and higher Truth.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOU ARE A VEDANTI :</strong> Newer inventions are ever respected by the wise. Knowledge never harms. This Association pays much regard to those whose heart is ever open for higher and better Knowledge or Truth.</p>\r\n\r\n<p><br />\r\n<br />\r\nThis is the best Association for Vedantis to know overall concepts of the Universal facts or Bramhandiya Vidhan with newer and refined concepts of various religious terms.</p>\r\n\r\n<p><br />\r\n'Tattvagyan' is the best supporter of Self, Soul and GOD or Rooh, Noor and Allaahtaala or Aham, Bramha and Supreme Bramha etc. with fullest explanations thereat. Simultaneously, 'Tattvagyan' gives perfect description for 'Advaittattvam'.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOU ARE A SAADHAK OR SPIRITUAL PRACTICANT :</strong> This Association knows and let other know the refined and pure practice in the field of 'Spiritualization' or Addhyatma. The Ascending way of Practice is the main attraction this Association pleads for. Know comparative achievements of of various Saadhanas so that you may decide to choose the higher one for yourself. Also know how the the Supreme Goal of Life is achieved. Compare it with others and expose it to the Inquisitives.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>IF YOU ARE OTHER THAN THE ABOVE :</strong> Whosoever you may be or whatsoever target you may have for yourself, you must be requiring the highest achievement through this human life. It is better for all of us to have a preview over the highest goal of our life and its various aspects with its certain applicability in our life. Join this Association for the betterment of your achievement and to make others realize for such betterments.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>JOIN US :</strong> You need not contribute to this Association. If you love Truth and if you hate falsehood, you will find this Association as the best one suitably matching with your liking.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>PLEASE DO NOT OFFER OR DONATE SOMETHING TO ANY MEMBER OF SADANAND TATTVAGYAN PARISHAD ANY WHERE AT ANY TIME. OFFERINGS OR DONATIONS ARE HIGHLY PROHIBITED IN THIS ORGANIZATION AS IT IS A GREAT SIN FOR GODLY SURRENDERED DEVOTEES IF THEY ACCEPT ANY BELONGINGS OF OTHERS AS THEY ARE ALREADY FULFILLED WITH GRACE OF GOD.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>सब भगवत कृपा से ।<br />\r\nतत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n<br />\r\n'पुरुषोत्तम धाम आश्रम'<br />\r\nपुरुषोत्तम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0</p>\r\n', '1655553766-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (8, 'What is Tattvagyan? - तत्त्वज्ञान क्या है?', '<p><strong>1. Supreme in All</strong></p>\r\n\r\n<p>TATTVAGYAN is 'SUPREME' in all the ways. It is a Supreme System and is related with Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal only. Education is a worldly System to let one study about this material world, Self Realization is a Sceptal System to let one know and see the Self and the Sceptal Region of Jeeva and Spiritualization is a Divine System to let one know and associate with the Soul and the Divine Provinces. But TATTVAGYAN is above all these. TATTVAGYAN is a Supreme System to allow one to enter in Eternity of Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal with frontal perception of HIM. TATTVAGYAN is also called Khudai Elm (Huruf-e-Muqqataat HeM as per Qurran) or True, Supreme and Perfect Knowledge (or Supreme Knowledge of the 'WORD' which was in the beginning and which was with the GOD and which was GOD as per John 1/1 of the Bible). TATTVAGYAN has been briefly named as JNAAN in Gita or Ramayan or in Vadas.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>2. Fundamental KNOWLEDGE without remainder</strong></p>\r\n\r\n<p>TATTVAGYAN is all in all, so It depicts everything in toto fundamentally. Nothing remains hidden before TATTVAGYAN. All secrets are disclosed from atom to Almighty by TATTVAGYAN. In other words, we may explain it like stating this that knowing the secrets, seeing the existences and achieving their influences are quite separately and distinctly possible for all the entities like the world, the body, the Self, the Soul and the GOD. This is very surprising to all of us, but this is supremely true in reality.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>3. Showing Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal</strong></p>\r\n\r\n<p>There is no process/system/sadhana or any effort other than TATTVAGYAN which can show Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal in one's front. Inquisitives search GOD in many ways but in vain. There is not even TWO systems of achieving GOD, TATTVAGYAN is the only and lonely System through which Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal is known, seen and talked to in one's front. Lord Vishnuji, Lord Ramji and Lord Krishnaji in previous eras imparted TATTVAGYAN to show GOD to their disciples named Naradji, Garunji, Laxmanji, Hanumanji, Shebriji, Arjunji, Maitreyeji and Udhauji etc. In the present age, R.R. SGS Sadanandji Paramhans is imparting the same TATTVAGYAN to his disciples while surrendering to GOD for body-mind-wealth.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>4. Talking to Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal</strong></p>\r\n\r\n<p>No one can believe that one can become able to know and see Khuda-GOD-Bhagwan in one's front. But the Supreme Influence of TATTVAGYAN is as high as any unbelievable thing becomes easily possible for the inquisitive who surrenders himself/herself to Khuda-GOD-Bhagwan. It is TATTVAGYAN only under which one becomes able to confidently talk to Khuda-GOD-Bhagwan in one's front without doubt. Seeing the Almighty GOD, the WORD WHO were before the beginning of the creation, can now be conversated with now under TATTVAGYAN.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>5. Allowing FOUR kinds of Eyes</strong></p>\r\n\r\n<p>General people know only one kind of eyes which is with the body and is called bodily eye.. Spiritualists know another one type of Eyes which is called Divine eye. In fact there are again two types of Eyes quite separate than the bodily and Divine ones. Even modern Gurus are also not aware of these remaining two types of Eyes. These are known as Sceptal and Supremely Eyes and are numbered at second and fourth category. The eye to see through the material things is said to be the bodily eye or Sthool Drishti and is ranked as the 'first category eyes'. The eye to see through the Jeeva, Rooh or the Self is called Sceptal Eye or Sukshma Drishti which is ranked as the 'second category eye' or the Second Eye. Again, the eye to see through the Soul, Aatma, Eeshwar, Bramha, Noor or Divine Light is known as Divine Eye or Divya Drishti and is ranked as the 'third category eye'. Lastly, the eye to know and to see through all the secrets of all the entities and to know and to see Khuda, GOD, Bhagwan, Parmatma, Parmeshwar, Parambramha, Paramtattvam or the Supreme Exist with conversation with HIM is called ''Supremely Eye or Gyan Drishti or Tattva Drishti'' and is ranked as 'Fourth Category Eye'. It is Sadguru who, by the Supreme influence of TATTVAGYAN, bestows all the FOUR EYES as mentioned above. No Spiritualists can provide all the eyes. That is why they do not know them all even.</p>\r\n', '1655556003-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (9, 'Why Tattvagyan? - तत्त्वज्ञान क्यूँ?', '<p><strong>1. Achieving more than what you have got from several Gurus</strong></p>\r\n\r\n<p>Like other Systems namely Education (Shiksha), Self Realization (Swadhyaya) or Spiritualization (Adhyatma), TATTVAGYAN is not based on one's effort and manliness. It is beyond any sort of Practice or Sadhana but quite receivable through Grace of GODly Incarnation (Sadguru). No need of any Sadhana, just to make the Sadguru pleased with your Devotion and Service.<br />\r\n<br />\r\nWhatever one gets while adhering at continuous Practice or Sadhana or Meditation for so many years, TATTVAGYAN makes one receive more than that within just a few minutes. You can attain much more that what you have so far attained from any Guru or from all Gurus of the world. It is astonishing but supremely True. It is unbelievable but perfectly True.<br />\r\n<br />\r\nIn whatever processes or doctrines one receives or expects to receive, TATTVAGYAN showers more than that and above all, It makes one to see the Supreme Being, the Source of all.<br />\r\n<br />\r\nTATTVAGYAN is all in all, so It depicts everything in toto fundamentally. Nothing remains hidden before TATTVAGYAN. All secrets are disclosed from atom to Almighty by TATTVAGYAN.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>2. Seeing fundamental secrets of the Universe</strong></p>\r\n\r\n<p>Adhyatma is not capable to show its own secret as how it is originated, how it is maintained and how it is controlled. Where Adhyatma comes from and why, is also not known via Adhyatma or from modern Spiritualists. It is only TATTVAGYAN which discloses all secrets of not only Adhyatma but all the existences in the Universe too. Even Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal is also known and seen in toto by TATTVAGYAN. That is why GOD has made TATTVAGYAN reserved for HIM only.<br />\r\n<br />\r\nAll existences from cell to Supreme or from atom to Almighty, have to be fundamentally known and seen in TATTVAGYAN. It is TATTVAGYAN which shows the Self (Jeeva), the Soul (Eeshwar) and the GOD (Parmeshwar) separately and distinctly.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>3. Knowing secrets of birth & death</strong></p>\r\n\r\n<p>Self is the root entity of birth and death. Scientists don't know the secrets of birth and death. They don't know about the Hell and Heaven also. They don't know about Ghosts also. All due to the reason that they have not received TATTVAGYAN from 'Sadguru'.<br />\r\n<br />\r\nMany people say ignorantly that Self is Soul and Soul is GOD because they have not received TATTVAGYAN. Without TATTVAGYAN, no one can know and see the Self (Jeeva) and GOD (Parmatma). Through Adhyatma, one can know and see the Soul only.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>4. Receiving the Four Eyes</strong></p>\r\n\r\n<p>All the Eyes are very essily made available by the bestower of TATTVAGYAN. No effort is required by the receiver as against to cases of hard and long practices. There are FOUR EYES namely bodily eye, sceptal eye, divine eye and Supremely Eye. World and Body for bodily eye, Jeeva or Self or Rooh for Sceptal Eye, Soul or Eeshwar or Aatma or Bramha or Noor or Divine Light for Divine Eye and lastly Eternal Abode or Paramdham or Bihisht or Paradise or Parmatma or Parmeshwar or Parambramha or Allaahtaala or GOD for Supremely Eye. These four Eyes are made available to the Inquisitives within a few minutes or so. No life long efforts required if you may make pleased the bestower of TATTVAGYAN with GODly Devotion and Surrendership.No one can believe that one can become able to know and see Khuda-GOD-Bhagwan in one's front. But the Supreme Influence of TATTVAGYAN is as high as any unbelievable thing becomes easily possible for the inquisitive who surrenders himself/herself to Khuda-GOD-Bhagwan. It is TATTVAGYAN only under which one becomes able to confidently talk to Khuda-GOD-Bhagwan in one's front without doubt. Seeing the Almighty GOD, the WORD WHO were before the beginning of the creation, can now be conversated with now under TATTVAGYAN.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>5. Knowing & Seeing 'I' of all i/c BVM and other deities</strong></p>\r\n\r\n<p>The receiver of TATTVAGYAN becomes able to see the "I" of every one including that of Bramhaji, Vishnuji and Shankarji and all other Deities too. All "Is" of previous Incarnations (Perfect or Fractional -- Purnaavatari or Anshaavatari) are likewise visible distinctly in TATTVAGYAN. One becomes able to know with direct perception about the previous GODly Incarnations.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>6. Knowing any Guru's Level</strong></p>\r\n\r\n<p>The "Is" of all Gurus of modern age or of previous ages are also similarly seen vividly. Thus the receiver becomes able to know the level of all previous or present Gurus/Spiritualists. Keep a simple booklet of any Guru's theory or doctrine before TATTVAGYAN and know the real status of that Guru. Thus you can recognize any one's level of achievements whosoever he or she may be.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>7. Knowing any writing's standard</strong></p>\r\n\r\n<p>What is the standard of any writing in shape of Scripture, Puran, lekh or essay, one becomes able to know its level while keeping it before TATTVAGYAN. Whether it is of worldly level or of Deity level or of Divine level or finally of Eternal level or mixed. The writing can thus be recognized very clearly. Which doha, chaupai, sloka, verse, revelation, aayat, vaani etc. of a Granth or Scripture or Religious Book like Vedas, Upnishads, Ramayan, Gita, Purans, Bible, Qurraan or Guru GranthSaheb etc is related with what entity-- is known very categorically and satisfactorily with TATTVAGYAN.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>8. Knowing 'Oan' and So'Han-Han'So</strong></p>\r\n\r\n<p>Many people understand unkonwingly that OAN is Parmatma or the name of GOD, whereas some other practicants (Sadhak) know that So'Han is the name of GOD or Parmatma or So'Han is GOD or Parmatma. Both sorts of apprehension are totally wrong. TATTVAGYAN depicts the details of them by showing their generation and maintenance from and by Supreme Exixt. The receiver of TATTVAGYAN sees in his/her front the peculiar generation of So'Han from the Supreme Entity and then Oan from So'Han. This is really unbelievable but extremely True.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>9. Achieving Mukti & Amartaa or Salvation</strong></p>\r\n\r\n<p>Salvation is a combined form of Liberation from Maya on the one hand and Oneness with GOD on the other. Salvation is also called Moksha or a combined form of Mukti and Amartaa. Moksha is very necessary for the one who does not want to remain in Mayaic Fatigue and Torture any more. One who understands the cyclic phenomenon of Maya as repeated birth and death and thereby extreme grief and torture to the Jeeva or the Self, takes a step to liberate from Maya and to reach GOD for permanent peace and pleasure. Such permanent peace and pleasure is otherwise called Sachchidanand (or Truth, Peace and Pleasure). This state is gained only when Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal is seen and met with. This is due to Grace of Khuda-GOD-Bhagwan or Sat SiriAkaal. All such Liberation and Immortality is percieved and gained practically by the receiver of TATTVAGYAN, because all the past good and bad Karmas (actions) are burnt into TATTVAGYAN immediately like a straw is burnt into teriible fire. The receiver sees it so himself.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>10. Gaining at Laukik & Par-Laukik both</strong></p>\r\n\r\n<p>Life in between the body and the world is known as Laukik Jeevan and that in between the Self and the GOD is said to be the Par-Laukik Jeevan. These are also called Physical and Para-Physical Life. Laukik and Para-Laukik both endeavours are achieved simultaneously in this very life through TATTVAGYAN. If one remains in full surrendership to Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal, one gets very essily the Laukik and Par-Laukik achievements at the same time while leading this very life in this world. This is all due to the Grace of Benevolent GOD.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>11. Available only ONCE in an Era</strong></p>\r\n\r\n<p>TATTVAGYAN becomes available on this earth only once in an era by the sole Grace of Khuda-GOD-Bhagwan, so It is very very very rare and highly highly highly significant. It was imparted by Lord Vishnuji in Satyayuga to Naradji and Garunji etc, by Lord Ramji in Tretayuga to Laxmanji, Hanumanji, Shebriji etc. and Lord Krishnaji in Dwaparyuga to Arjunji, Maitreyeji, Udhauvji etc. previously. Now this TATTVAGYAN is being imparted by R.R. SGS Sadanandji Paramhans of India to anyone who absolutely surrenders himself/herself to Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal. The bestower of TATTVAGYAN is called 'Sadguru'.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>12. Receivable under Grace of GOD only</strong></p>\r\n\r\n<p>TATTVAGYAN is a Supreme System, hence It is beyond Karma and Kriya. It is exclusively under Kripa (Grace) of GOD. GOD's monopoly rests over It. We have to make HIM pleased for such Kripa with surrendered devotion (bhakti) and service (seva) like Naradji, Garunji, Laxmanji, Hanumanji, Shebri, Arjun, Maitreye, Udhav, Gopies etc. did in previous eras.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>13. How Grace of GOD is received ?</strong></p>\r\n\r\n<p>Protection of 'Dharma-Dharmatma-Dharti' is the total job of Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal. And Protection of 'Dharma-Dharti-Dharmatma' cannot be done with false concepts. It starts with True concepts and unified devotion. The person who acts for 'Dharma-Dharmatma-Dharti' or who utilizes his mind, body and wealth for protection of 'Dharma-Dharmatma-Dharti' with full devotion and surrendership to Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal certainly receives the Grace of the Benevolent GOD. In this respect, 'Sadanand TATTVAGYAN Parishad' is acting for such inspiration and getting prepared for such Grace on the basis of Dedication and Service to Khuda-GOD-Bhagwna for truthfullness and Knowledge. Propagation of Bhakti-Seva under the True Concepts of TATTVAGYAN has also been undertaken by 'Sadanand TATTVAGYAN Parishad' for the welfare of the world. You may also join this for yourself and for your family.</p>\r\n', '1655556607-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (10, 'What is Spiritualization? – योग-साधना अथवा अध्यात्म क्या है?', '<p>सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! अध्यात्म जीव का आत्मा-ईश्वर-शिव से दरश-परश और मेल-मिलाप करते हुए आत्मामय ईश्वरमय-ज्योतिर्मय शिवमय रूप में स्थित-स्थापित करने-कराने का एक क्रियात्मक आध्यात्मिक साधना पध्दति है। जिस प्रकार शिक्षा से संसार और शरीर के मध्य की जानकारी प्राप्त होती है तथा स्वाध्याय शरीर और जीव के बीच की 'स्व' का एक अधययन विधान है, ठीक उसी प्रकार योग-अधयात्म जीव और आत्मा-ईश्वर-शिव के मधय तथा आत्मा से सम्बन्धित क्रियात्मक या साधनात्मक जानकारी और दर्शन उपलब्धि वाला विधान होता है । दूसरे शब्दों में आत्मा-ईश्वर-शिव से सम्बन्धित क्रियात्मक अधययन पध्दति ही योग-अध्यात्म है । अध्यात्म सामान्य मानव से महामानव या महापुरुष या दिव्य पुरुष बनाने वाला एक योग या साधना से सम्बन्धित विस्तृत क्रियात्मक एवं अनुभूतिपरक आधयात्मिक जानकारी है, जिसके अन्तर्गत शरीर में मूलाधार स्थित अहम् नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव का आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति रूप ईश्वरीय सत्ता-शक्ति या ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति या आलिमे नूर या आसमानी रोशनी या नूरे इलाही या DIVINE LIGHT या LIFE LIGHT या जीवन ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश या स्वयं ज्योतिरूप शिव का साक्षात् दर्शन करना एवं हँऽसो जप का निरन्तर अभ्यास पूर्वक आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रम्हमय या शिवमय होने-रहने का एक क्रियात्मक अध्ययन पध्दति या विधान होता है ।<br />\r\n<br />\r\nस्वाध्याय तो मनुष्य को पशुवत् एवं असुरता और शैतानियत के जीवन से ऊपर उठाकर मानवता प्रदान करता-कराता है परन्तु यह आध्यात्मिक क्रियात्मक अध्ययन विधान मनुष्य को सांसारिकता रूप जड़ता से मोड़कर जीव को नीचे गिरने से बचाते हुए ऊपर श्रेष्ठतर आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह- नूर-सोल-स्प््रािरिट दिव्य ज्योति रूप चेतन-शिव से जोड़कर चेतनता रूप दिव्यता (DIVINITY) प्रदान करता-कराता है । पुन: 'शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द' की अनुभूति कराने वाला चेतन विज्ञान ही योग या अध्यात्म है, जिसका एकमात्र लक्ष्य शरीरस्थ जीव को शरीरिकता-पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप जड़ जगत् से लगा-बझा ममता-मोहासक्ति से सम्बन्ध मोड़कर चेतन आत्मा से सम्बन्ध जोड़-जोड़ कर जीवों को आत्मामय या ब्रम्हमय या चिदानन्दमय या दिव्यानन्दमय या चेतनानन्दमय बनाना ही है । मुक्ति-अमरता तो इसमें नहीं मिलता है; मगर शान्ति-आनन्द तो मिलता ही है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>योग या अध्यात्म की महत्ता</strong></p>\r\n\r\n<p>योग या अध्यात्म अपने से निष्कपटता पूर्वक श्रध्दा एवं विश्वास के साथ चिपके हुये, लगे हुये लीन साधक को शक्ति-साधना-सिध्दि प्रदान करता हुआ सिध्द, योगी, ऋषि, महर्षि, ब्रम्हर्षि, तथा अध्यात्मवेत्ता, योगी-महात्मा रूप महापुरुष बना देने या दिव्य पुरुष बना देने वाला एक दिव्य क्रियात्मक विज्ञान है, जो शारीरिकता- पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप माया-मोह ममता-वासना आदि माया जाल से जीव का सम्बन्धा मोड़ता हुआ दिव्य ज्योति से सम्बन्धा जोड़कर दिव्यता प्रदान करते हुये जीवत्त्व भाव को शिवत्त्व या ब्रम्हत्त्व भाव में करता-बनाता हुआ कल्याणकारी यानी कल्याण करने वाला मानव बनाता है, जो समाज कल्याण करे यानी शारीरिकता-पारिवारिकता एवं सांसारिकता में फँसे-जकड़े 'जीव' को छुड़ावे तथा आत्मा या ईश्वर या ब्रम्ह से मिलावे और आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रम्हमय बनावे ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>कर्म एवं स्वाध्याय और योग-अध्यात्म की जानकारी और उपलब्धि की तुलनात्मक स्थिति</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! स्वाध्याय तो कर्म का विरोधी नहीं बल्कि कर्म को गुणों से गुणान्वित कर, अच्छे कर्मों को करने तथा दूषित भाव-विचार व्यवहार-कर्म से दूर रहने को जनाता-सिखाता तथा नैतिकता से युक्त करता हुआ उसे परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप में ग्रहण करने को सिखाता है जबकि अध्यात्म कर्म का घोर विरोधी एवं जबर्दस्त शत्रु होता है। कर्म और योग या अध्यात्म दोनों ही एक दूसरे का विरोधी, शत्रु तथा विपरीत मार्ग गामी होते हैं । कर्म, मन्त्र और प्रार्थना के माध्यम से इन्द्रियों को मजबूत बनाने का प्रयत्न करता है, तो योग-साधना या अध्यात्म नियम-आसन और प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियों को कमजोर बनाने तथा विषय वृत्तिायों से मोड़-खींच कर उनको अपने-अपने गोलकों में बन्द करने-कराने की क्रिया-प्रक्रिया का साधनाभ्यास या योगाभ्यास करने-कराने की विधि बताता एवं कर्म से मोड़ कर योग-साधना में लगाता है ।<br />\r\n<br />\r\nकर्म का लक्ष्य कार्य है जीवमय आत्मा (सोऽहँ) में से जीव का सम्बन्ध काट-कटवा कर चेतन से मोड़ कर शरीर-संसार में माया-मोह, ममता-वासना आदि के माधयम से प्रलोभन देते हुये भ्रमित करते-कराते हुये माया-जाल में फँसाता-जकड़ता व चेतन आत्मा में से बिछुड़ा- भुला-भटका कर शरीरमय बनाता हुआ पारिवारिकता के बन्धान में बाँधाता हुआ, जड़-जगन्मय बना देना ताकि आत्मा और परमात्मा तो आत्मा और परमात्मा है; इसे अपने 'स्व' रूप का भी भान यानी आभाष न रह जाय । यह शरीरमय से भी नीचे उतर कर जड़वत् रूप सम्पत्तिमय या सम्पत्ति प्रधान, जो कि मात्र जड़ ही होता है, बनाने वाला ही कर्म विधान होता है, जिसका ठीक उल्टा अध्यात्म विधान होता है अर्थात् चेतन जीवात्मा( हँऽसो) जड़-जगत् को मात्र अपना साधान मान-जान-समझ कर अपने सहयोगार्थ चालित परिचालित करता या कराता है। कर्म चेतन जीवमय आत्मा(सोऽहँ) को ही जड़वत् बनाकर अपने सेवार्थ या सहयोगार्थ अपने अधाीन करना चाहता है, चेतन मयजीव को सदा ही जड़ में बदलने की कोशिश या प्रयत्न करता रहता है तथा योग-साधना अध्यात्म जड़-जगत् में जकड़े हुये, फँसे हुये अपने अंश रूप जीव को छुड़ा कर, फँसाहट से निकाल कर, चेतन ( हँऽस) बनाता हुआ कि फँसा हुआ था, छुड़ाता है । इसलिये जीव अपने शारीरिक इन्द्रियों को उनके विषयों से मोड़कर, इन्द्रियों को उनके अपने-अपने गोलकों में बन्द करके तब श्वाँस-नि:श्वाँस के क्रिया को करने-पकड़ने हेतु मन को बाँधा कर स्वयं 'अहं' नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव आत्म-ज्योति रूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रम्ह-ज्योति रूप ब्रम्ह या स्वयं ज्योति रूप शिव का साक्षात्कार कर, आत्मामय या ब्रम्हमय बनता या होता हुआ अहँ सूक्ष्म शरीर रूप (जीव) हँऽस रूप शिव-शक्ति बन जाता या हो जाता है । यहाँ पर शिव-शक्ति का अर्थ शंकर-पार्वती से नहीं समझकर, स्वयं ज्योति रूप शिव या आत्म ज्योति आत्मा या ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति से समझना चाहिये।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सृष्टि की उत्पत्ति और लय-विलय-प्रलय</strong></p>\r\n\r\n<p>'शिव' का अर्थ कल्याण होता है । हँऽस रूप ब्रम्ह-शक्ति या शिव-शक्ति की उत्पत्ति 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्' रूप शब्द-ब्रम्ह गॉड या अलम या परम ब्रम्ह से ही होती है तथा सृष्टि के अन्त में सामान्यत: ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान से तथा मध्य में भी भगवदवतार के माध्यम से तत्त्वज्ञान (Supreme KNOWLEDGE) के यथार्थत: विधि-विधान से परमतत्त्वम् से सोऽहँ से की उत्पत्ति की प्रक्रिया या रहस्य जना-बता दिखा सुझा-बुझा कर 'अद्वैत्तत्त्वबोध' कराते हुये जिज्ञासु को खुदा-गॉड-भगवान् से बात-चीत करते-कराते हुए जब अहँ एवं सोऽहँ-हँऽसो के समस्त मैं-मैं, तू-तू को अपने मुख से निकालते हुये, पुन: अपने ही मुख में समस्त मैं-मैं तू-तू को चाहे वह मैं-मैं तू-तू अहँरूप जीव का हो या हँऽस रूप जीवात्मा का या केवल स: या आत्म शब्द आत्मा का ही क्यों न हो, सभी को ही अपने मुख में ही प्रवेश कराते हुये ज्ञान-दृष्टि से या तत्त्व-दृष्टि से दिखाते हुये, बात-चीत करते-कराते हुये जीव (अहं), जीवात्मा (हँऽसो) व आत्मा (स: या आत्म शब्द) और सृष्टि के सम्पूर्ण को ही 'एक' एकमेव एकमात्र 'एक' अपने तत्त्वम् रूप से अनेकानेक सम्पूर्ण सृष्टि में अपने अंश-उपाँश रूप में बिखेर देते हैं । ऐसा ही अपने निष्कपट उत्कट परम श्रध्दालु एवं सर्वतोभावेन समर्पित शरणागत जिज्ञासुओं को अज्ञान रूप माया का पर्दा हटाकर अपना कृपा पात्र बनाकर अपना यथार्थ यानी 'वास्तविक तत्त्व' रूप परमतत्तवं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अद्वैत्तत्त्वम् को दिखला देते हैं तथा अपने अनन्य समर्पित-शरणागत भक्तों-सेवकों को अपने में भक्ति-सेवा प्रदान करते हुये अपना प्रेम-पात्र बना लेते हैं, तब मध्य में भी लक्ष्य रूप रहस्य को समझा-बुझा कर मुक्ति और अमरता का भी साक्षात् बोध कर-करा देते हैं, तो मध्य में भी अन्यथा सामान्य सृष्टि लय विधान से अन्त में अपने में लय-विलय हो जाया करती है । यही सृष्टि उत्पत्ति और लय है । तत्त्वज्ञान के माधयम से विलय तथा महाविनाश के माध्यम से महाप्रलय होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आध्यात्मिक सन्तुलन बिगड़ने से पतन और विनाश भी</strong></p>\r\n\r\n<p>अध्यात्म इतना सिध्दि, शक्ति प्रदान करने वाला विधान होता है; जिससे प्राय: सिध्द-योगी, सिध्द-साधक या आध्यात्मिक सन्त-महात्मा को विस्तृत धान-जन-समूह को अपने अनुयायी रूप में अपने पीछे देखकर एक बलवती अंहकार रूप उल्टी मति-गति हो जाती है; जिससे योग-साधना या आध्यात्मिक क्रिया की उल्टी गति रूप सोऽहँ ही उन्हें सीधी लगने लगती है और उसी उल्टी साधना सोऽहँ में अपने अनुयायिओं को भी जोड़ते जाते हैं, जबकि उन्हें यह आभाष एवं भगवत् प्रेरणा भी मिलती रहती है कि यह उल्टी है। फिर भी वे नहीं समझते। उल्टी सोऽहँ साधाना का ही प्रचार करने-कराने लगते है । अहँ नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव को आत्मा में मिलाने के बजाय स: ज्योति रूप आत्मा को ही लाकर अपने अहँ में जोड़ कर सोऽहँ 'वही मैं हूँ' का भाव भरने लगते हैं जिससे कि उल्टी मति के दुष्प्रभाव से भगवान् और अवतार ही बनने लगते हैं, जो इनका बिल्कुल ही मिथ्या ज्ञानाभिमानवश मिथ्याहंकार ही होता है। ये अज्ञानी तो होते ही हैं मिथ्याहंकारवश जबरदस्त भ्रम एवं भूल के शिकार भी हो जाते हैं । आये थे भगवद् भक्ति करने, खुद ही बन गये भगवान् । यह उनका बनना उन्हें भगवान् से विमुख कर सदा-सर्वदा के लिये पतनोन्मुखी बना देता हैं। विनाश के मुख में पहुँचा देता है। विनाश के मुख में पहुँचा ही देता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आध्यात्मिक धर्मोपदेशकों का मिथ्याज्ञानाभिमान</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! योग-अध्यात्म विधान स्वाध्याय से ऊपर यानी श्रेष्ठतर तथा तत्त्वज्ञान से नीचे होता है, परन्तु आध्यात्मिक सन्त-महात्मा मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा, जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह, जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर; सेल्फ को ही सोल और सोल (DIVINE LIGHT) या (LIFE LIGHT) को ही (GOD) रूह को ही नूर और नूर को ही अल्लाहतआला या खुदा; जीव या रूह या सेल्फ रूप सूक्ष्म शरीर को ही दिव्य ज्योति और आत्म-ज्योति या दिव्य ज्योति या ब्रम्ह ज्योति या नूर या डिवाइन लाइट या डिवाइन लाइट या जीवन ज्योति या स्वयं ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश तथा हँऽसो के उल्टे सोऽहँ के अजपा जप प्रक्रिया को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह' तथा उनका तत्त्वज्ञान पध्दति; आनन्दानुभूति को ही चिदानन्द रूप 'शान्ति और आनन्द' और सूक्ष्म दृष्टि को ही दिव्य दृष्टि और चिदानन्द को ही सच्चिदानन्द, स्वरूपानन्द को ही आत्मानन्द या ब्रम्हानन्द और आत्मानन्द को ही परमानन्द या सदानन्द; चेतन को ही परमतत्तवं; ब्रम्हपद या आत्मपद को ही परमपद या भगवत्पद; शिवलोक या ब्रम्ह लोक को ही अमरलोक या परम आकाश रूप परमधाम; अनुभूति को ही बोध; आध्यात्मिक सन्त-महात्मा या महापुरुष को ही तात्तिवक सत्पुरुष-परमात्मा या परमपुरुष या भगवदवतार रूप परमेश्वर या खुदा-गॉड-भगवान्; दिव्य दृष्टि को ही ज्ञान-दृष्टि; दिव्य चक्षु को ही ज्ञान चक्षु; सेप्टल आई को ही डिवाइन आई और डिवाइन आई को ही गॉडली आई; अपने पिण्ड को ही ब्रम्हाण्ड; अपने शरीरान्तर्गत अहम् जीव को ही हँऽसो जीवात्मा और जीवात्मा हँऽस को ही ब्रम्हाण्डीय परमब्रम्ह और सर्वसत्ता सामर्थ्य रूप 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह'; शान्ति और आनन्द को ही परमशान्ति और परम आनन्द कहते-कहलाते हुये तथा स्वयं गुरु के स्थान पर सद्गुरु बनकर अपने को भगवदवतार घोषित कर-करवा कर अपने साधाना-विधान या आध्यात्मिक क्रिया-विधान से हटकर, पूजा-उपासना विधान आदि से युक्त होकर अपने जबर्दस्त भ्रम एवं भूल का शिकार अपने अनुयायियों को भी बनाते जाते हैं।<br />\r\n<br />\r\nहँऽसो के स्थान पर उल्टी साधाना सोऽहँ करने-कराने में मति-गति ही इन आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं की उल्टी हो गई होती है या हो जाती है और वे इस बात पर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे पाते हैं कि उनका लक्ष्यगामी सिध्दान्त अध्यात्म या योग है जिसकी अन्तिम पहुँच आत्मा तक ही होती है, परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह या खुदा-गॉड-भगवान् तक इनकी पहुँच ही नहीं है । आदि में शंकर, सनकादि, सप्त ऋषि, व्यासादि, मूसा यीशु, मोहम्मद साहब, आद्यशंकराचार्य, महावीर जैन, कबीर, नानक, दरिया, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, योगानन्द, आनन्दमयी, मुक्तानन्द, शिवानन्द आदि-आदि वर्तमान के भी प्राय: सभी तथाकथित अध्यात्मवेत्तागण जीव को आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा या जीव को ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर आदि घोषित करते-कराते रहे हैं जिसमें शंकर, वशिष्ठ, व्यास, मोहम्मद, तुलसी आदि तो अपने से पृथक् परमात्मा या परमेश्वर या अल्लाहतआला के अस्तित्त्व को स्वीकार किये अथवा श्रीराम या श्रीकृष्ण की लीलाओं के बाद समयानुसार सुधर गये। बाल्मीकि भी इसी में हैं तथा जीव-आत्मा से परमात्मा या परमब्रम्ह या परमेश्वर या अल्लाहतआला या खुदा-गॉड-भगवान् का ही, एकमात्र भगवान् का ही, भक्ति प्रचार करने-कराने लगे। प्राय: अधिाकतर आधयात्मिक सन्त-महात्मा प्रॉफेट-पैगम्बर मिथ्याज्ञानाभिमान के भ्रम एवं भूल वश शिकार हो जाया करते हैं जिससे जीव को ही आत्मा-ईश्वर तथा आत्मा-ईश्वर आदि को ही परमात्मा-परमेश्वर आदि कहने-कहलवाने, घोषित करने-कराने लगते हैं ।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! वर्तमान समस्त के योगी, महर्षि, साधक, सिध्द तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्मनों से सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का अनुरोध है कि योग-साधना या अध्यात्म भी कोई विशेष छोटा या महत्त्वहीन विधान या पद नहीं है । इसकी भी अपनी महत्ताा है । इसलिये स्वाध्याय को ही योग-साधना-अध्यात्म और अध्यात्म या योग को ही तत्त्वज्ञान पध्दति या सत्यज्ञान पध्दति घोषित तथा जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा या जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर या जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह तथा सोऽहँ-ह ँ्सो एवं आत्म-ज्योति को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह' घोषित न करें और मिथ्या ज्ञानाभिमानवश अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कथन रूप झूठी बात कह कर अध्यात्म के महत्त्व को न घटायें ।<br />\r\n<br />\r\nस्वाध्याय को ही अध्यात्म और अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान का चोला न पहनावें अन्यथा स्वाध्याय और अध्यात्म दोनों ही पाखण्डी या आडम्बरी शब्दों से युक्त होकर अपमानित हो जायेगा । आत्मा को परमात्मा का या ब्रम्ह को परमब्रम्ह का या ईश्वर को परमेश्वर का चोला न पहनावें क्योंकि इससे आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकता; ईश्वर कभी भी परमेश्वर नहीं बन सकता; ब्रम्ह कभी भी परमब्रम्ह नहीं बन सकता । इसलिये परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह का चोला आत्मा-ईश्वर या ब्रम्ह को पहनाने से पर्दाफास होने पर आप महात्मन् महानुभावों को अपना मुख छिपाने हेतु जगह या स्थान भी नहीं मिलेगा ।<br />\r\n<br />\r\nइसलिये एक बार फिर से ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द अनुरोध कर रहा है कि अपना-अपना नकली चोला उतार कर शीघ्रातिशीघ्र अपने शुध्द अध्यात्मवेत्ता, आत्मा वाला असल चोला धारण कर लीजिये तथा परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह का चोला एकमात्र उन्हीं के लिये छोड़ दें, क्योंकि उस पर एकमात्र उन्हीं का एकाधिाकार रहता है । इसलियें अब तक पहने सो पहने, अब झट-पट अपने अपने नकली रूपों को असली में बदल लीजिये । अन्यथा सभी का पर्दाफास अब होना ही चाहता है ! तब आप सभी लोग बेनकाब हो ही जायेंगे । नतीजा या परिणाम होगा कि कहीं मुँह छिपाने का जगह नहीं मिलेगा । इसलिये समय रहते ही चेत जाइये ! चेत जाइये !!!<br />\r\n<br />\r\nअब परमप्रभु को खुल्लम खुल्ला अपना प्रभाव एवं ऐश्वर्य दिखाने में देर नहीं है। उस समय आप लोग भी कहीं चपेट में नहीं आ जायें । इसलिये बार-बार कहा जा रहा है कि चेत जायें ! चेत जायें !! चेत जायें !!! अब नकल, पाखण्ड, आडम्बर, जोर-जुल्म, असत्य-अधर्म, अन्याय-अनीति बिल्कुल ही समाप्त होने वाला है । अब देर नहीं, समीप ही है ! इसे समाप्त कर भगवान् अब अतिशीघ्र सत्य-धर्म न्याय-नीति का राज्य संस्थापित करेगा, करेगा ही करेगा, देर नहीं है। 'सत्य' को स्वीकारने-अपनाने में भय-संकोच से ऊपर उठकर यथाशीघ्र स्वीकार कर या अपना ही लेना चाहिये । क्योंकि देर करना पछतावा-प्रायश्चित का ही कारण बनेगा । चेतें।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! सृष्टि की रचना या उत्पत्ति दो पदार्थों से हुई है जो जड़ और चेतन नाम से जाने जाते हैं । इस जड़ से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी तो भौतिक शिक्षा के अन्तर्गत आती है और चेतन तथा चेतन से सम्बन्धित या चेतन प्रधाान जीव-आत्मा आदि के सम्बन्ध के बारे में क्रियात्मक जानकारी मात्र ही योग या अध्यात्म है। अध्यात्म , स्वाध्याय और तत्त्वज्ञान के मध्य स्थित जीव का परमात्मा से तथा परमात्मा का जीव से सम्पर्क बनाने में आत्मा ही दोनों के मध्य के सम्बन्धांो को श्वाँस-नि:श्वाँस के एक छोर (बाहरी) पर परमात्मा तथा दूसरे छोर (भीतरी) पर जीव का वास होता है । आत्मा नित्य प्रति हर क्षण ही निर्मल एवं स्वच्छ शक्ति-सामर्थ्य (ज्योतिर्मय स:) रूप में शरीर में प्रवेश कर जीव को उस शक्ति-सामर्थ्य को प्रदान करती-रहती है और शरीरान्तर्गत गुण-दोष से युक्त सांस्कारिक होकर जीव रूप से बाहर हो जाया करती है ।<br />\r\n<br />\r\nजब अहँ रूप जीव भगवत् कृपा से स: रूप आत्म-शक्ति का साक्षात्कार करता है तथा स: से युक्त हो शान्ति और आनन्द की अनुभूति पाता है, तब यह जीव आत्मविभोर हो उठता है । इस जीव को आत्मामय या ब्रम्हमय या चिदानन्दमय ही, पूर्व की अनुभूति, जिससे कि यह जीव आत्मा से बिछुड़ा-भटका कर तथा सांसारिकता में फँसा दिया गया था, अपना पूर्व का सम्बन्ध याद हो जाता है कि शारीरिक -पारिवारिक-सांसारिक होने के पूर्व 'मैं' जीव इसी आत्मा या ब्रम्ह के साथ संलग्न था; जिससे सांसारिक-पारिवारिक लोगों ने नार-पुरइन या ब्रम्ह-नाल काट-कटवा कर मुझे इस आत्मा या ब्रम्ह से बिछुड़ा दिया था, जिससे 'मैं' जीव शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द के खोज में इधर-उधर चारों तरफ भटकता और फँसता तथा जकड़ता चला गया था । यह तो परमप्रभु की कृपा विशेष से मनुष्य शरीर पाया। तत्पश्चात् परमप्रभु की मुझ पर दूसरी कृपा विशेष हुई कि मुझे सद्गुरु जी का सान्निधय प्राप्त हुआ तथा परमप्रभु की यह तीसरी कृपा हुई कि मेरे अन्दर ऐसी प्रेरणा जागी, जिससे सद्गुरुजी की आवश्यकता महसूस हुई और गुरु जी के सम्पर्क में आया। तत्पश्चात् परमप्रभु जी के ही कृपा विशेष, जो सद्गुरु कृपा के रूप में हमें 'आत्म' रूप स: से पुन: साक्षात्कार तथा मेल-मिलाप कराकर पुन: मुझ शरीर एवं संसारमय जीव को संसार एवं शरीर से उठाकर आत्मामय जीव(हँऽस) रूप में स्थापित कर-करा दिया। सद्गुरु कृपा से अब पुन: हँऽस हो गया। ध्यान दें कि हँऽस ही जीवात्मा है, जो अध्यात्म की अन्तिम उपलब्धि है। अध्यात्म हँऽस ही बना सकता है, तत्त्वज्ञानी नहीं ! तत्त्वज्ञान आत्मा के वश की बात नहीं होता और अध्यात्म की अन्तिम बात आत्मा तक ही होती है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आत्मा मात्र ही योग या अध्यात्म की अन्तिम मजिल‌ होता है, परमात्मा नहीं ।</strong></p>\r\n\r\n<p>आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धुओं को मिथ्या ज्ञानाभिमान रूप भ्रम एवं भूल से अपने को बचाये रहते हुये सदा सावधान रहना-रखना चाहिये ताकि जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा, जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर, जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह आदि तथा आध्यात्मिक सोऽहँ- हँऽसो-ज्योति को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् और योग-साधाना या अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कह-कहवा कर अध्यात्म के महत्त्व को मिथ्यात्त्व से जोड़कर घटाना या गिराना नहीं चाहिये । सन्त महात्मा ही झूठ या असत्य कहें या बोलना शुरू करें तो बहुत शर्म की बात है और तब 'और' समाज की गति क्या होगी? अत: हर किसी को ही झूठ या असत्य से हर हालत में ही बचना चाहिए । सन्त-महात्मन बन्धुओं को तो बचना ही बचना चाहिए । क्योंकि धर्म का आधार और मजिल दोनों ही 'सत्य ही तो है । सत्य नहीं तो धर्म नहीं ।</p>\r\n', '1655559741-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (11, 'What is Self-Realization? – स्वाध्याय क्या है?', '<p>सत्यान्वेषी बन्धुओं ! संसार में आनन्दमय मानव जीवन जीने के लिये स्वाध्याय एक अनिवार्य विधान है जो मानव के अन्त:करण में मानवता का भाव एवं मानवीय गुणों को विकसित करता हुआ, शैतानियत-असुरता एवं पशुवत् जीवन से ऊपर उठाते हुए, मानवीय जीवन जीने की राह दिखाता है । सही मानव बनाता है। स्वाध्याय विधान से रहित मानव, मानव कहलाने के योग्य नहीं होता। वह या तो बालक या तो पशु या असुर या तो पागल कहलाने योग्य होता है । स्वाध्याय का विधान आध्यात्मिक महापुरुषों एवं तात्तिवक सत्पुरुष के लिये अनिवार्य नहीं होता परन्तु आध्यात्मिक महापुरुषों को भी चाहिये कि स्वाध्याय के उन विधानों को अपने जीवन में अवश्य अपनावें जो आध्यात्मिक विधान में बाधक न हो। स्वाध्याय मानव जीवन को मानवता से युक्त बनाने हेतु एक अनिवार्य विधान है, जिसके पालन में यदि थोड़ी-बहुत कठिनाई एवं परेशानी भी हो, तो भी अनिवार्यत: इसे प्राय: सभी मानव को ही अपनाना चाहिये क्योंकि जो थोड़ी-बहुत कठिनाई एवं परेशानी भी हो, तो घवड़ाना नहीं चाहिए क्योंकि वह कठिनाई एवं परेशानी मात्र कुछ दिनों तक ही रहेगी, क्योंकि यह सामान्यत: देखा जाता है कि कोई कार्य चाहे वह कितना ही अच्छा से अच्छा क्यों न हो, प्रारम्भ में थोड़ी-बहुत कठिनाई एवं परेशानी तो होती ही है । जब उसे अपने जीवन में अथवा अपने जीवन को उस के अनुसार ले चला जाता है ।<br />\r\n<br />\r\nवास्तव में सही मानव कहलाने के योग्य वही मानव होता भी है जो कठिनाइयों एवं परेशानियों के बावजूद भी अपने मानवीय अच्छे गुणों से विचलित नहीं होता बल्कि अपने में और ही दृढ़ता लाता है । मानवीय जीवन का सही मूल्याँकन कठिनाइयों एवं परेशानियों के अन्तर्गत ही होता है, ठीक-ठाक स्थिति-परिस्थिति में नहीं । ठीक-ठाक परिस्थिति में तो अधिकतर सभी मनुष्य चल ही लेंगे तो फिर मानवता कि महत्ता कैसे जानी-समझी जा सकती है ? अर्थात् नहीं समझी जा सकती है ! कदापि नहीं जानी जा सकती है ! कठिनाइयों एवं परेशानियों को सही मानव कभी भी जीवन को आगे बढ़ाने में बाधक नहीं मानता बल्कि यह मानव के मानवता को विकसित एवं प्रदर्शित करने-कराने तथा सही मानव के लिये समाज में अनिवार्यत: उत्थान कारक ही होता है ।<br />\r\n<br />\r\nअच्छे कार्यों के करने में जिस किसी भी मनुष्य पर कठिनाइयाँ एवं परेशानियाँ आवें तो यह अवश्य ही जान व मान लेना चाहिये कि यह उसके मानवता की परीक्षा यानी मानवता का परिक्षण हो रहा है। यदि वह साहस पूर्वक सहिष्णुता के विधान से दृढ़ता पूर्वक अपने अच्छे पथ या विधान पर स्थिर रहता है तो निश्चित् ही उस परीक्षण में पास होता हुआ वह मानवता के अगली श्रेष्ठतर श्रेणी की तरफ नि:संदेह उठ रहा है । इसमें सन्देह तो कदापि न करें ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>स्वाध्याय एक अद्भुत कारखाना</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! वास्तव में स्वाध्याय वह कारखना है जिसमें अगणित दूषित विचार-भाव-व्यवहार-कर्म वाला मनुष्य आये दिन निर्मल एवं स्वच्छ भाव-व्यवहार-विचार कर्म वाला सही मानव बनता और निकलता रहता है । परन्तु अफसोस ! अफसोस पर अफसोस ! कि मनुष्य मानवता स्थापित करने वाले इस स्वाध्याय रूप अद्भुत् कारखाने को भी बन्द कर करवा दिये हैं तथा यह निकम्मी एवं भ्रष्ट सरकारें भी (विश्व की ही) इस स्वाध्याय रूप अद्भुत् कारखाने को प्राय: हर पाठशाला एवं विद्यालयों तक में भी खोल-खुलवा कर सबके लिये अनिवार्य नहीं कर करवा रही हैं। क्या ही अफसोस की बात है कि देश व दुनियां वाले दूषित मनुष्य से निर्मल एवं स्वच्छ तथा परिष्कृत मानव बनाने व निकालने वाली मानवता के इस अद्भुत एवं इतने बड़े उपयोगी स्वाध्याय वाले कारखाने को खोलने-खोलवाने तथा चलने-चलाने की आवश्यकता ही महशूस नहीं करते; और दूषित भाव-विचार- व्यवहार-कर्म वाले मनुष्य से युक्त दूषित मानव समाज बन-बन कर दम घूँट-घूँट कर किसी-किसी तरह एक-एक दिन व्यतीत कर रहे है और मनुष्य समाज को अराजक बना-बनाकर चारों तरफ अत्याचार-भ्रष्टाचार एवं आतंक का राज स्थापित किये-कराये हुये हैं ।<br />\r\n<br />\r\nसमय रहते देश-दुनियां की सरकारों द्वारा यदि इस स्वाध्याय रूप मानवता के अद्भुत् कारखाने को छोटे से छोटे और बड़े से बडे पाठशालाओं और विश्व विद्यालयों तक में सभी शिक्षार्थियों के लिये अनिवार्य: विषय के रूप में नहीं खोला गया तथा प्रभावी रूप से इस स्वाध्याय रूपी मानवता के कारखाने से प्राय: सभी को गुजरने हेतु प्रभावी विधान बनाकर प्रभावी तरीके से लागू किया-कराया नहीं गया, तो इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् स्वयं विश्व विनाशक प्रलयंकारी रूप प्रकट कर कुछ स्वाध्यायी एवं आध्यात्मिक औरं तात्तिवक क्रमश: पुरुषों, महापुरुषों एवं सत्पुरुषों तथा ऐसे ही बालिकाओं, स्त्रियों आदि का रख-रखाव करते-करवाते हुये विश्व का विनाश ही न कर-करवा दे !<br />\r\n<br />\r\nयह भी एक आश्चर्यमय ही नहीं, अपितु महानतम् आश्चर्य की बात है कि पौराणिक गाथाओं तथा वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता-पुराण- बाइबिल-कुर्आन आदि सद्ग्रन्थों में ऐसे हजारों हजार सत्य प्रमाणित बातों के बावजूद भी धान-जन-पद के अभिमान में चूर, दुष्ट-असुर एवं भ्रष्ट राजनेता गण, जब तक मधाुकैटभ- हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप-रावण-कंस-कौरव-फरिऔन व कुरैश आदि की ही तरह मटियामेट या विनाश के मुख में नहीं जाते; तब तक उन्हें अकाटय सत्य एवं प्रमाणित बातों पर विश्वास ही नहीं हो पाता है। यदि विश्वास एवं भरोसा हो जाता और ये बातें मान लेते तो प्रह्लाद, ध्रुव, सुग्रीव, विभीषण, उग्रसेन, पाण्डव, इजरायली (मूसा के अनुयायी) या यहूदी तथा मुसलमानों की तरह शान्ति एवं आनन्द से अमन-चैन से अवश्य ही हो-रह जाते ।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! खान-पान के पौष्टिक आहर जिस प्रकार से शारीरिक अभाव की पूर्ति एवं पुष्टि करते बनाते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाधयाय जीव के अभाव की पूर्ति एवं तुष्टि प्रदान करता है, जिससे जीव सदा ही अपने स्वरूप को सूक्ष्म दृष्टि से निदिध्यासन में साक्षात् देखता हुआ समाज में निर्मल एवं स्वच्छ मानव के रूप में अमन-चैन के साथ आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है। परन्तु बार-बार यह कहना पड़ता है कि अफसोस, महानतम् अफसोस की बात है कि मनुष्यों को सच्चे मानवता से युक्त करने तथा सर्वत्र आनन्दमय रखने वाला स्वाधयाय विधान की ही आवश्यकता मनुष्य नहीं महशूस कर रहा है तथा अभाव एवं अव्यवस्था से बेचैन एवं आनन्द शून्य हुआ, तड़फड़ा-तड़फड़ा कर चैन एवं आनन्द हेतु नाना प्रकार के दूषित विचार एवं कर्मों को अपना-अपना कर नित्य प्रति ही बेचैनी एवं अभाव के घेरे में पड़-पड़ कर तड़फता हुआ, दम घूँट-घूँट कर मानव समाज में नाना प्रकार के दूषित एवं विषाक्त वातावरण्ा स्थापित करता-कराता जा रहा है । थोड़ा सा भी अपने दुर्भावों, दुर्विचारों, दरुव्यवहारों एवं दुष्कर्मो की तरफ गौर नहीं कर पाता है कि वह इस दूषित भाव-विचार-व्यवहार-कर्म से नित्य प्रति ही और ही दूषित होता हुआ पतनोन्मुख होता हुआ अधोपतन की तरफ बडे ही तेजी के साथ गिर रहा है, जो कुछ ही दिन-माह-बरष में विनाश के मुख तक में अपने को पहुँचाये वगैर नहीं रूक पाता-गिरता ही चला जाता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>विनाश से बचने का उपाय</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! आज की सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था इतनी दूषित हो चुकी है कि परम प्रभु रूप परमब्रम्ह या परमेश्वर या परमात्मा या खुदा-गॉड-भगवान् को स्वाध्यायी मानव, आध्यात्मिक देव-मानव या महामानव तथा तात्तिवक सत्पुरुषों के रक्षार्थ एवं दुष्ट-दुर्जनता के विनाशार्थ प्रलंयकारी या कियामती या डिस्ट्रायर वाले रूप को प्राकटय करना मात्र ही अवशेष भी रह गया है, अन्यथा आज का अभावग्रस्त, अव्यवस्था एवं अत्याचारिक व अन्यायी आतंक से युक्त सामाजिक एवं राजनैतिक कुव्यवस्था का सुधार अब असम्भव सा हो गया है। अब संहार एवं विनाश के माध्यम से ही विश्व का मानव समाज 'ठीक' होगा।<br />\r\n<br />\r\nफिर भी परमपुरुष रूप परमात्मा अभी भी सुधार करने में लगा हुआ है । स्वाध्यायी मानवों, आध्यात्मिक महामानवों तथा तात्तिवक परम वाले मानवों से मुझ 'सदानन्द' (सन्त ज्ञानेश्वर) का साग्रह अनुरोध है कि आप मानवों, महामानवों एवं परम वाले मानवों, अपने-अपने स्वाध्याय-आध्यात्मिक क्रियाओं एवं तात्तिवक विधानों को अपना एक मात्र सहारा बनाओ क्योंकि अब विनाश या प्रलय का समय अति समीप अतिवेग से आ रहा है । ''आप अपने-अपने विधानों से ही बच पाओगे, अन्यथा अब बचाव का कोई उपाय नहीं है ।''<br />\r\n<br />\r\nक्या ही अच्छा होता कि सभी के सभी ही दोष-रहित सत्य प्रधान मुक्ति और अमरता से युक्त सर्वोत्ताम जीवन विधाान वाले तत्तवज्ञान विधान को ईमान से स्वीकार कर लेते--जीवन ही सफल- सार्थक हो जाया करता ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>स्वाध्याय की महत्ता</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! स्वाध्याय की आवश्यकता एवं महत्ता को देखते हुए ही योग या अध्यात्म के आठ प्रमुख अंगों में से दूसरे अंग रूप नियम में चौथे उपाँग के रूप में या स्थान पर इस मानवता को स्थापित करने-कराने वाले विधाान रूप स्वाध्याय को पद स्थापित किया गया है, जिसके पश्चात् ही पाँचवें उपाँग के रूप में या पद पर 'ईश्वर-प्रणिधान' नामक पद को स्थापित किया गया है जो अभी-अभी अगले अधयात्म वाले शीर्षक में देखा जायेगा। इस विधान यानी स्वाधयाय-विधान से सांसारिक मानव को अपने 'स्व' की जानकारी तथा उसके मनन-चिन्तन व निदिध्यासन के माधयम से सूक्ष्म-दृष्टि से सूक्ष्म शरीर रूप जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहम् स्पष्ट दिखलायी देते या मिलते ही 'स्व' की जानकारी एवं स्पष्टत: साक्षात् दर्शन ही मानव का शारीरिक एवं सांसारिक जड़ता एवं मूढ़ता रूप शरीरमय भाव से बचाये रखता है। जिसका परिणाम है कि जीव या 'स्व' से प्राप्त होने वाले आनन्द से आनन्दित रहता हुआ शरीर को अपने लक्ष्य-कार्य सम्पादन हेतु सर्व साधान-साधानाओं एवं विधानों से युक्त एक 'सहायक साधन' के रूप में जानता एवं मानता हुआ व्यवहरित होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आध्यात्मिक सन्तुलन बिगड़ने से पतन और विनाश भी</strong></p>\r\n\r\n<p>अध्यात्म इतना सिध्दि, शक्ति प्रदान करने वाला विधान होता है; जिससे प्राय: सिध्द-योगी, सिध्द-साधक या आध्यात्मिक सन्त-महात्मा को विस्तृत धान-जन-समूह को अपने अनुयायी रूप में अपने पीछे देखकर एक बलवती अंहकार रूप उल्टी मति-गति हो जाती है; जिससे योग-साधना या आध्यात्मिक क्रिया की उल्टी गति रूप सोऽहँ ही उन्हें सीधी लगने लगती है और उसी उल्टी साधना सोऽहँ में अपने अनुयायिओं को भी जोड़ते जाते हैं, जबकि उन्हें यह आभाष एवं भगवत् प्रेरणा भी मिलती रहती है कि यह उल्टी है। फिर भी वे नहीं समझते। उल्टी सोऽहँ साधाना का ही प्रचार करने-कराने लगते है । अहँ नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव को आत्मा में मिलाने के बजाय स: ज्योति रूप आत्मा को ही लाकर अपने अहँ में जोड़ कर सोऽहँ 'वही मैं हूँ' का भाव भरने लगते हैं जिससे कि उल्टी मति के दुष्प्रभाव से भगवान् और अवतार ही बनने लगते हैं, जो इनका बिल्कुल ही मिथ्या ज्ञानाभिमानवश मिथ्याहंकार ही होता है। ये अज्ञानी तो होते ही हैं मिथ्याहंकारवश जबरदस्त भ्रम एवं भूल के शिकार भी हो जाते हैं । आये थे भगवद् भक्ति करने, खुद ही बन गये भगवान् । यह उनका बनना उन्हें भगवान् से विमुख कर सदा-सर्वदा के लिये पतनोन्मुखी बना देता हैं। विनाश के मुख में पहुँचा देता है। विनाश के मुख में पहुँचा ही देता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>मायामुक्त-आनन्दयुक्त कल्याणपरक जीवन का प्रारम्भ यही से</strong></p>\r\n\r\n<p>स्वाध्याय अपने में लीन स्वाध्यायी को शारीरिक, पारिवारिक एवं सांसारिक शरीर-सम्पत्ति या व्यक्ति-वस्तु या कामिनी-कांचन में भटकने-फँसने-जकड़ने से बचाता हुआ माया-मोह ममता-वासना आदि रूप माया जाल से अपने 'स्व' रूप जीव को सदा सावधान रखता व सचेत करता हुआ, शरीरमय व सम्पत्तिामय बनने से अपने 'स्व' रूप जीव की हमेशा रक्षा करता-रहता है तथा साथ ही साथ इतना आनन्द प्रदान करता रहता है कि अपने में लीन स्वाध्यायी को आनन्द का थोड़ा भी अभाव होने ही नहीं पाता कि इधर-उधर भटके या दूषित भाव-विचार व्यवहार-कर्म में फँसे । आनन्दानुभूति के कारण ही स्वाधयायी को न तो कभी आनन्द का अभाव महशूस या आभाष होता है और न उसे बेचैनी होती है यानी स्वाध्यायी चैन का जीवन आनन्दमय रहता हुआ व्यतीत करता है।<br />\r\n<br />\r\nआप पाठक और श्रोता बन्धुओं से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का साग्रह अनुरोध है कि आप यदि सर्र्वप्रथम सर्वोत्ताम उपलब्धिात-मुक्ति-अमरता वाला तात्तिवक न बन सकें और मध्यम कोटि शान्ति-आनन्द वाला ह्सो ज्योति वाला आधयात्मिक भी यदि बन सकने की स्थिति में नहीं हैं, तो कम से कम स्वाधयायी तो अनिवार्यत: हो ही जाइये। हालाँकि अपने आत्मिक उत्थान हेतु आधयात्मिक तथा मुक्ति और अमरता हेतु तात्तिवक बनने या होने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए; करना ही चाहिये क्योंकि यही जीवन का मूल उद्देश्य है । मोक्ष नहीं मिला तो सारा जीवन व्यर्थ ही समझना चाहिये । क्यों कि जीवन मंजिल-उद्देश्य-अन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' ही तो है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>योग-अध्यात्म व शान्ति-आनन्द मात्र भी नहीं ।</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! शिक्षा जिस प्रकार शरीर एवं संसार के मध्य का एक अध्ययन प्रणाली है, ठीक उसी प्रकार स्वाध्याय 'स्व' रूप जीव(रूह-सेल्फ) एवं शरीर(जिस्म-बॉडी) के मध्य का श्रवण एवं मनन-चिन्तन औरं निदिधयासन रूप अधययन विधान है। शरीर एवं संसार के मध्य अध्ययन एवं लक्ष्य कार्य सम्पादन हेतु इन्द्रियाँ होती हैं, ठीक उसी प्रकार शरीर और 'स्व' रूप जीव के मधय अध्ययन एवं लक्ष्य कार्य सम्पादन हेतु श्रवण एक मनन-चिन्तन औरं निदिधयासन होता है। पुन: शरीर के पुष्टि हेतु पौष्टिक आहार के लिए शरीर संसार में अनेकानेक कठिनाइयों एवं परेशानियों को झेलता हुआ अथक परिश्रम करता हुआ, सुख-साधन हेतु शिक्षा ग्रहण करता है, ठीक उसी प्रकार 'स्व' रूप जीव शरीर के अन्दर अपने 'स्वत्तव' को स्थित एवं तुष्टि हेतु अनेकानेक आन्तरिक एवं बाह्य, मानसिक एवं शारीरिक कठिनाइयों एवं परेशानियांे को झेलता हुआ, अनवरत आनन्दित रहता हुआ नियमित रूप से आनन्दानुभूति हेतु स्वाध्याय का विधान नित्यश: करता रहता है। स्वाध्याय विधान शिक्षा से उच्च और श्रेष्ठतर विधिा-विधाान है क्योंकि शिक्षा मायावी सुख-साधन का हेतु होता है तो स्वाध्याय मायारहित आनन्दमय जीवन का हेतु होता है ।<br />\r\n<br />\r\nशिक्षा से स्वाध्याय की क्षमता-शक्ति हजारोंगुणा अधिक होती है। शिक्षा शरीर का शरीर के सुख-साधन हेतु एक जानकारी है जो शरीरों को उच्च पदों पर पदासीन करती-कराती है, उसी प्रकार स्वाध्याय जीव का, जीव के आनन्द अनुभूति हेतु एक आनुभूतिक जानकारी और उपलब्धि है, जो जीव को स्वाध्यायी एवं दार्शनिक जैसे मानव समाज में अत्युच्च मर्यादा एवं प्रतिष्ठा देता-दिलाता है तथा शिक्षा के माध्यम से पहुंचे हुए उच्च पदासीन पदाधिाकारी लोगों को स्वाध्यायी के चरणों पर गिरवाता तथा निर्देशन या मार्ग दर्शन हेतु स्वाध्यायी के अधाीन करता-करवाता है। इससे यह स्पष््रटत: समाज में भी दिखायी दे रहा है कि उच्च से उच्च पदों पर पदासीन पदाधिाकारीगण आये दिन ही स्वाध्यायियों एवं दार्शनिकों के यहाँ नतमस्तक होकर मार्ग दर्शन एवं निर्देशन हेतु उपस्थित होते रहते हैं । इतना ही नहीं, शारीरिक विकास चाहे जितना भी हो जाय एवं शैक्षणिक विकास जितना भी हो जाय फिर भी उससे स्वाध्याय और नैतिकता वाली उपलब्धि नहीं हो सकती है । विचार एवं नैतिकता की उपलब्धि जब भी होगी, स्वाध्याय से ही हो सकती है और विचार एवं नैतिकता के वगैर कोई मनुष्य मानवीय सुखों की प्राप्ति तथा मानवीय गुणों का विकास कभी भी कर ही नहीं सकता है । शिक्षा चाहे जितनी भी क्यों न हासिल या प्राप्त कर लिया जाय। शिक्षा शिक्षित बना सकती है परन्तु मानव के आन्तरिक अभाव एवं बेचैनी को दूर नहीं कर सकती है जबकि स्वाध्याय सहजतापूर्वक स्वाभाविक रूप से आन्तरिक अभाव को समाप्त कर आनन्दमय बनाता है, जिससे मनुष्य को आनन्दानुभूति मिलती है और मनुष्य में नैतिकता भरना तथा पशुवत् एवं असुरता जैसे दुर्जनता को भी समाप्त करता हुआ आनन्दित करता-कराता हुआ, विनम्रता प्रदान करता हुआ मानव को मानवता तक पहुँचाने वाला यदि कोई प्रणाली या विधान है तो वह 'स्वाध्याय' ही है तथा 'स्व' को मायावी शरीरमय बन्धन-फांस में होने रहने से बचाये रखकर 'स्व' रूप मय तथा आनन्दमय बनाए रखता है । जिसमें अन्तत: शरीर छूटने पर देव लोक या स्वर्ग में स्वाधायी को मर्यादित एवं प्रतिष्ठित पद एवं मर्यादा मिलती है।<br />\r\n<br />\r\nइसलिये सदानन्द तो आप से बार-बार यही कहेगा कि किसी अयोग्यता या अक्षमता के कारण यदि आप तात्तिवक परम मानव या सत्पुरुष तथा आध्यात्मिक महामानव या महापुरुष नहीं बन सके, या ऐसा सुअवसर आपको नही मिल सका, तो कम से कम स्वाध्यायी होते हुये मानवीय उपलब्धि को तो अवश्य ही प्राप्त कर लीजिये अन्यथा सारा जीवन ही व्यर्थ हो जायेगा । इस बात का आपके मानने-नहीं मानने का दुष्प्रभाव प्राकृतिक विधानों पर कुछ भी पड़ने वाला नहीं है । सृष्टि का यह विधान था, है और सृष्टि रहने तक रहेगा भी । हाँ, दुष्प्रभाव आप पर अवश्य ही पड़ेगा, चेते-सम्भलें, नहीं तो दुष्प्रभाव से बच नहीं पायेंगे । पुन: कह रहा हूँ कि समय रहते ही चेतें-सम्भलें।</p>\r\n', '1655560599-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (12, 'What is Education? – शिक्षा पद्दति क्या है?', '<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! शिक्षा प्रणाली आज की इतनी गिरी हुई एवं ऊल-जलूल है कि आज शिक्षा क्या दी जानी चाहिए ? और शिक्षा क्या दी जा रही है यह तो ऐसा लग रहा है कि शिक्षार्थी तो शिक्षार्थी ही है, यदि शिक्षक महानुभावों से भी पूछा जाय, तो वे महानुभाव भी पूरब के वजाय पश्चिम और उत्तर के वजाय दक्षिण की बात बताने-जनाने लगेंगे। इसमें उनका भी दोष कैसे दिया जाय, क्योंकि जो जैसे पढ़ेगे-जानेंगे, वे वैसे ही तो पढ़ायेंगे-जनायेंगे भी । इसमें उनका दोष देना भी व्यर्थ की बात दिखलाई देती है । दोष तो इस शिक्षा पध्दति के लागू करने-कराने वाली व्यवस्था रूप सरकार को ही देना चाहिए । परन्तु वह भी तो इसी शिक्षा से गुजरे हुये व यही शिक्षा पाये हुये लोगों से बनी एक व्यवस्था है । यह बात भी सही ही है कि शिक्षा प्रणाली ही दोषपूर्ण है । यह आभाष तो प्राय: सभी को ही हो रहा है । प्राय: सभी अपने-अपने क्षमता भर आवाज भी उठा रहे है। सभी यह कहते हुये सुनाई दे रहे हैं कि शिक्षा का आमूल परिवर्तन होना चाहिए परन्तु वर्तमान शिक्षा को समाप्त कर दिया जाय क्योंकि वर्तमान शिक्षा पध्दति वही (आसुरी) कामिनी-कांचन प्रधान है जिसे हिरण्य कश्यप (पिता) के सभी प्रयासों के बावजूद भी प्रहलाद ने नहीं पढ़ा था तो उसके स्थान पर नई कौन सी अथवा कैसी शिक्षा पध्दति हो या होना चाहिए, यह बात या सिध्दान्त या फार्मूला कोई नहीं दे रहा है कि शिक्षा में यह बात या यह विधि-विधान या ऐसी प्रणाली लागू किया जाय । इसी समस्या के समाधान में निम्नलिखित 'शिक्षा पध्दति' प्रस्तुत किया जा रहा है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>'शिक्षा' पूर्णत: ब्रम्हाण्डीय<br />\r\nविधि-विधान पर ही आधारित हो<br />\r\n<br />\r\nभगवत् कृपा विशेष से प्राप्त सदानन्द का 'मत' तो यह है कि--<br />\r\n"शिक्षा पिण्ड और ब्रम्हाण्ड में आपसी ताल-मेल बनाये रखने वाली होनी चाहिए !"</strong><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>वास्तव में जब तक पिण्ड और ब्रम्हाण्ड के तुलनात्मक अध्ययन के साथ उसमें आपस में तालमेल बनाये रखने हेतु पृथक्-पृथक् पिण्ड और ब्रम्हाण्ड की यथार्थत: प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी तथा ब्रम्हाण्डीय विधान मात्र ही पिण्ड का भी विधि-विधान यानी स्थायी एवं निश्चयात्मक विधि-विधान ही नहीं होगा तथा एक मात्र ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान को अध्ययन पध्दति या शिक्षा प्रणाली के रूप में लागू नहीं किया जायेगा, तब तक अभाव एवं अव्यवस्था दूर नहीं किया जा सकता है, कदापि दूर हो ही नहीं सकता ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>'यह भगवद् वाणी ही है !'</strong></p>\r\n\r\n<p>सियार की तरह से हुऑं-हुऑं-हुऑं तथा कुत्तों की तरह से भौं-भौं-भौं से काम धाम नहीं चलने को है। अभाव एवं अव्यवस्था तब तक दूर नहीं हो सकती । जब तक कि ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान को ही पिण्डीय विधि-विधान रूप में शिक्षा विधान को स्वीकार नहीं कर लिया जायेगा । 'शिक्षा को ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान अपनाना ही होगा, चाहे जैसे भी हो।' सब भगवत् कृपा पर आधारित ।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! यहाँ पर चारों क्षेत्रों में अपने-अपने क्षेत्र में सफल जीवन हेतु अपनी-अपनी जानकारी से सम्बन्धित तय या निश्चित किये हुये विधान के अनुसार ही रहना-चलना चाहिए । शारीरिक और सांसारिक विषय-वस्तुओं को सही-सही समझने हेतु सही जानकारी आवश्यक होता है और सही जानकारी के लिए, सांसारिक जानकारी व पहचान के लिए, शिक्षित होना पड़ेगा। यहाँ 'शिक्षित' शब्द से मतलब है शैक्षिक दृष्टि से युक्त होना । अपनी स्थूल दृष्टि के बावजूद भी शिक्षा भी एक दृष्टि ही होती है, जो एक प्रकार से शारीरिक ऑंख के साथ ही साथ शिक्षा दृष्टि भी कायम हो जाती है, जिससे पत्र-पत्रिकाओं, ग्रन्थ-सद्ग्रन्थ आदि के माध्यम से एक जानकारी मिलती है, जो भविष्य-जीवन हेतु उत्प्रेरण एवं पथ प्रदर्शन का कार्य करती है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>नाम और रूप</strong></p>\r\n\r\n<p>अब यहाँ पर यह जाना-देखा जायेगा कि हर क्षेत्र में ही लक्ष्य कार्य हेतु जानकारी मुख्यत: दो माध्यमों से होता है । वे हैं-- 'नाम' और 'रूप'। नाम को शब्द के माधयम से कह-सुनकर तथा रूप को देखकर ही जान-पहचान की प्रक्रिया पूरी होती है । संसार में चाहे जितने भी विषय-वस्तु है, सभी 'नाम-रूप' दोनों से ही अवश्य ही युक्त होते हैं । हालांकि स्पर्श, स्वाद और गन्ध भी जानने-पहचानने में सहयोगी होता हैं, परन्तु मुख्यत: 'नाम-रूप' ही होता है । मगर एक बात याद रहे कि कोई भी भौतिक विधान खुदा-गॉड-भगवान् और भगवद् विधान पर लागू नहीं हो सकता ।<br />\r\n<br />\r\nसांसारिकता के समान ही शारीरिक जानकारी व परिचय-पहचान भी 'नाम-रूप' से ही होता है । कोई ऐसा सांसारिक प्राणी नहीं होगा, जो 'नाम-रूप' से रहित हो। यही कारण है कि जान-पहचान 'नाम-रूप' मुख्यत: दो के माध्यम से ही होता है । जिस प्रकार शरीर का 'नाम-रूप' होता है । वास्तव में उसी प्रकार जीव का भी इससे पृथक् अपना 'नाम-रूप' होता है । नाम से जानकारी मिलता है तथा रूप से पहचान प्राप्त होता है। जीव को जानने और पहचानने, दोनों से ही युक्त जो विधि-विधान है, वही 'स्वाध्याय' (Self-Realization) है । 'स्वाध्याय' से तात्पर्य 'स्व' के अधययन यानी जानकारी व पहचान से है। इसमें श्रवण, मनन-चिन्तन और निदिध्यासन की क्रिया प्रमुखतया आती या होती है । निदिध्यासन के अन्तर्गत जीव शरीर से बाहर निकल कर क्रियाशील रूप में स्पष्टत: दिखलाई देता है। निदिध्यासन के वगैर अन्य किसी भी पध्दति से जीव का स्पष्टत: दर्शन सम्भव नहीं है । हालाँकि सूक्ष्म दृष्टि के माध्यम से स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर रूप जीव दोनों को अर्थात् दोनों की जानकारी को पकड़ा जाता है। जब भी हमको शरीर से पृथक् सूक्ष्म शरीर रूप जीव का दर्शन होगा, तो अपने को दिखलाई देगा कि हम निदिध्यासन के अन्तर्गत ही हैं और स्वाधयाय से ही हम जीव भाव या 'स्व' रूपमय स्थित भी रह सकते हैं । इसमें इन्द्रियॉ सहायक नहीं होती हैं। इन्द्रियाँ तो पाँच ज्ञान यानी जानकारी करने-कराने वाली तथा पाँच कर्म यानी जानकारी के अनुसार कार्य करने वाली प्राय: प्रत्येक मानव को ही प्राप्त होती हैं ।<br />\r\n<br />\r\nसारी सृष्टि ही पाँच पदार्थ-तत्वों से बनी है जो क्रमश: आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल नाम से जानी जाती हैं । चूँकि सृष्टि की प्राय: सभी जड़वत् वस्तुएँ इन्हीं पाँच पदार्थ तत्वों से बनी हुई हैं तो जिसमें जिस पदार्थ तत्व की प्रधानता होती है, उसे उसी विभाग के माध्यम से अच्छी जानकारी और पहचान मिलती है । किसी दूसरे पदार्थ तत्त्व प्रधान को दुसरे विभाग से अच्छी या ठोस व सही-सही जानकारी व पहचान नहीं मिल सकती है । वे पाँच विभाग पाँचों पदार्थ तत्वों के आधार पर ही बने हैं, जो अपने विधान के अनुसार समान रूप से आदि सृष्टि से ही गतिशील होते आ रहे हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>1-आकाश तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE SKY)</strong></p>\r\n\r\n<p>यह आकाशतत्व स्थूल सृष्टि रचनाक्रम में पहले स्थान पर आता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अन्य पदार्थों की तरह सामान्यत: यह उत्पन्न और नष्ट नहीं होता-रहता है, बल्कि जैसे इसका 'महत्तत्व' शक्ति से उत्पत्ति होता है वैसे महाप्रलय के समय ही 'महत्तात्व' शक्ति में ही विलीन भी हो जाया करता है। आकाश तत्व विभाग के अन्तर्गत आकाश तथा आकाश से सम्बन्धित वे सारी वस्तुएँ, उनकी जानकारी व पहचान तथा उनके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी बातें होती-रहती हैं । आकाश का सूक्ष्म विषय 'शब्द' है, यानी 'शब्द' के माध्यम से ही आकाश तथा आकाश तत्व प्रधान वस्तुओं की जानकारी प्राप्त होती है। आकाश पदार्थ तत्व प्रथम व एक इकाई वाला होने के कारण, वह अन्य किसी भी विभाग से जाना-समझा-पहचाना नहीं जा सकता है । इसकी सही-सही जानकारी एक मात्र 'शब्द' से ही हो सकती है, अन्यथा नहीं । इसमें स्पर्श, रूप, रस या स्वाद तथा गन्ध नाम की कोई बात नहीं होती या रहती है । इसलिए कि उनकी इसमें पहुँच नहीं है । यह उन सभी से अति सूक्ष्म होता है । कान और वाणी ही आकाश तत्व की क्रमश: ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेंन्द्रिय हैं । इसकी सारी जानकारियाँ और क्रियाकलाप आदि सब कुछ ही 'शब्द' एकमात्र 'शब्द' के द्वारा ही होता हैं क्योंकि आकाश तत्त्व की तनमात्रा शब्द ही है । कान जानकारियों को ग्रहण (प्राप्त) करता-रहता है और वाणी जानकारियाँ प्रकट और प्रेषित करती रहती है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>2-वायु तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE AIR)</strong></p>\r\n\r\n<p>यह स्थूल सृष्टि रचनाक्रम में दूसरे स्थान पर आता है । अर्थात् सृष्टि रचनाक्रम में पहला आकाश तत्पश्चात् आकाश के अन्तर्गत ही वायु तत्व की रचना या उत्पत्ति की गयी या हुई । वायु तत्व विभाग आकाश तत्व विभाग के अन्तर्गत व अधीन ही रहता हुआ अपने सूक्ष्म विषय 'स्पर्श' के माध्यम से ही वायु प्रधान विषय-वस्तुओं की जानकारी व पहचान तथा उसके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी बातें होती-रहती हैं । वायु तत्व दो इकाइयों से बना होता है, जिसमें एक इकाई आकाश भी उसमें समाहित रहता है । इसलिए वायु तत्व तथा वायु प्रधान विषय वस्तुओं पर गौण रूप से आकाश तत्व विभाग की दृष्टि भी रहती है । यहाँ गौण कहने से तात्पर्य यह है कि वायु तत्व विभाग का अपने लक्ष्य कार्य सम्पादन में यह विरोध व बाधा न उत्पन्न करके बल्कि उसे बढ़ोत्तारी और सहयोग करने हेतु ही होता है । वायु तत्व विभाग से सम्बन्धित विषय-वस्तुओं की जानकारी के लिए शरीर में त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय तथा हस्त (हाथ) नामक कर्मेन्द्रिय की रचना या उत्पत्तिा हुई । यानी वायु तत्व प्रधान जानकारी 'स्पर्श' के माध्यम से 'त्वचा' करेगी तथा उसके पश्चात् आवश्यकतानुसार उसके सहयोगी रूप कर्मेन्द्रिय उसका कार्य करेगी । ज्ञानेन्द्रिय प्रधाान और कर्मेन्द्रिय सहायक के रूप में पद स्थापित होते हैं जिसके अनुसार अपना लक्ष्य कार्य सम्पादन करते हैं। वायु तथा वायु तत्व विभाग के विषय-वस्तु को जानने-समझने में शब्द भी सहयोग कर सकता है परन्तु स्पष्टत: पहचान इसका स्पर्श से ही होता है क्योंकि वायुतत्त्व की तनमात्रा स्पर्श ही होता है। रूप, रस या स्वाद एवं गन्ध की पहुँच स्पर्श में नहीं होती है क्योंकि स्पर्श इन तीनों से ही अति सूक्ष्म होता है यानी सूक्ष्मताक्रम में 'स्पर्श' के पहले 'शब्द' ही आता है । रूप-रस-गन्ध तो पश्चात् के पदार्थ तत्वों में होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>3-अग्नि तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE FIRE)</strong></p>\r\n\r\n<p>अग्नि तत्त्व विभाग के अन्तर्गत अग्नि तथा अग्नि से सम्बन्धित वे सारी विषय-वस्तुयें, उनकी जानकारी व पहचान तथा उसके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी समस्त बातें ही होती-रहती हैं । अग्नि तत्व का सूक्ष्म विषय 'रूप' है, यानी रूप के माध्यम से ही अग्नि तत्व तथा उससे सम्बन्धित विषय-वस्तुओं की जानकारी व पहचान होता है । हालाँकि अग्नि तत्व तीन इकाइयों से बना होता है- शक्ति, आकाश और वायु ही तीन मिलकर अग्नि तत्व की रचना या उत्पत्तिा करते या होते हैं-- जैसे कि वायु दो इकाइयों 'शक्ति-आकाश' तथा आकाश केवल एक इकाई 'शक्ति' द्वारा ही रचित या उत्पन्न हुआ, जबकि अग्नि में 'शक्ति-आकाश-वायु' तीनों ही समाहित होते हैं । इसलिए इन तीनों की अधीनता क्रमश: शक्ति के अधाीन आकाश तत्व विभाग, शक्ति और आकाश तत्व विभाग के अधीन वायु तत्व विभाग तथा शक्ति-आकाश व वायु तत्व विभाग के अधीन अग्नि तत्व विभाग गतिशील होता-रहता है । इसका तात्पर्य यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वे सब शक्ति-आकाश-वायु अग्नि तत्व विभाग के लक्ष्य कार्य सम्पादन में बाधा डालेंगे । बाधाा नहीं अपितु सहयोग ही करते रहते हैं । अग्नि तत्व विभाग अपना लक्ष्य कार्य-सम्पादन 'रूप' के माध्यम से ही करता है । परमेश्वर-प्रकृति की व्यवस्था में विरोध-संघर्ष का नहीं अपितु सहयोग का महत्त्व होता है ।<br />\r\n<br />\r\nशक्ति जब स्वच्छन्द थी, तो उसका प्रभाव गोपनीय था परन्तु क्रमश: रूप बदलते क्रम में प्रभाव का आभाष आसान होता गया, जो शब्द के माधयम से उत्प्रेरण, स्पर्श के माध्यम से बल तथा रूप के माधयम से अग्नि का प्रभाव भी दिखाई देने के रूप में होने लगा यानी यह हुआ प्रभाव जो क्रमश: होता है । अग्नि तत्व विभाग रूप और तेज के माघ्यम से ही अपने कार्य का सम्पादन करता है, हालाँकि इसका प्रधान कार्य तो 'रूप' ही के माध्यम से होता है । परन्तु जहाँ यह होता है, क्षमतानुसार उसका प्रभाव तेज रहता ही है क्योंकि तेज के वगैर रूप हो ही नहीं सकता ।<br />\r\n<br />\r\nआजकल के जढ़ी, मूढ़ एंव अज्ञान रूपी पर्दा से ज्ञान नेत्र बन्द होने के कारण अन्धे वैज्ञानिक जन यह घोषित कर करा रहे हैं कि शक्ति-विद्युत या उर्जा को देखा ही नहीं जा सकता । तो इन जढ़ी-मूढ़ों तथा अन्धों को कौन समझाये कि एकमात्र शक्ति-विद्युत-ऊर्जा ही तो देखा जाता है। अग्नि का रूप प्रकाश या ज्योति ही है । अग्नि 'रूप' में आते-आते वह शक्ति मानव के सीधे जानकारी रूप (प्रकाश रूप) दिखायी देने रूप में प्रकाशित या प्रकट हो जाया करती है ।<br />\r\n<br />\r\nअग्नि तथा अग्नि तत्व से सम्बन्धित जानकारी में रस एवं गन्ध का प्रवेश नहीं हो पाता क्योंकि रस एवं गन्ध से 'रूप' सूक्ष्म होता है । हाँ, शब्द और स्पर्श अवश्य उसमें समाहित है। ये सहयोगी हैं अग्नि तत्व विभाग के, जिसके लक्ष्य कार्य-सम्पादन हेतु शरीर में ज्ञानेन्द्रिय रूप में चक्षु-ऑंख और सहायक रूप में पैर नाम-रूप वाला कर्मेन्द्रिय मिला है, जो अपने आवश्यकतानुसार गतिशील होता रहता है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>4 . जल तत्त्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE WATER)</strong></p>\r\n\r\n<p>जल तत्व विभाग के अन्तर्गत वे सारी विषय-वस्तुयें, उसकी जानकारी व पहचान तथा उसके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी समस्त बातें ही आती हैं जो जल तथा जल से सम्बन्धित होता रहता हैं । जल तत्व का सूक्ष्म विषय 'रस' है यानी रस के माध्यम से ही जल तथा जल तत्व प्रधाान विषय-वस्तुओं की जानकारी व पहचान होती है । हालाँकि जल तत्व की रचना या उत्पत्ति चार इकाइयों शक्ति-आकाश-वायु-अग्नि द्वारा होती है । इसीलिए चारों का भी प्रभाव-शब्द-स्पर्श-रूप आदि अपने मूल सूक्ष्म विषय के माध्यम से 'रस' यानी जल तत्व में समाहित होते हैं अर्थात् शक्ति के अधीन आकाश, शक्ति और आकाश के अधीन वायु, शक्ति-आकाश और वायु के अधीन अग्नि, शक्ति-आकाश-वायु और अग्नि के अधीन व अन्तर्गत जल तत्व विभाग गतिशील होता है । इसीलिए जल में क्रमश: प्रभाव-शब्द-स्पर्श-रूप भी समाहित रहता है यानी जल के पहचान में क्रमश: ये चारों ही 'रस' का सहयोग करते हैं । जल तत्व 'रस' के माध्यम से ही अपना लक्ष्य कार्य का सम्पादन करता है ।<br />\r\n<br />\r\nजल तत्व का प्रभाव होता है द्रव, मुलायम या विनम्रता और इसके उत्पत्ति का कारण है-- सृष्टि के आदि में परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप परमसत्ताा-शक्ति था। वह परमसत्ता रूप परमात्मा अपने प्रभाव को अपने अन्तर्गत ही समाहित करके परम आकाश रूप परमधाम रूप अमरलोक में मुक्त और अमर रूप में सर्वशक्ति-सत्ताा सामर्थ्य युक्त सच्चिदानन्द (सत्-चित्-आनन्द) रूप शाश्वत् शान्ति और शाश्वत् आनन्द रूप 'सदानन्दमय' रूप में था, है और रहने वाला भी है। जब सृष्टि रचना की बात उनके अन्दर उठी तब वे ही अपने संकल्प से आदि-शक्ति रूपा अपने 'प्रभा' को प्रकट किया तथा वे इस आदिशक्ति को ऐश्वर्र्य के रूप में चेतन-जड़ दो रूपों तथा गुण-दोष दो प्रवृत्तिायों से युक्त करते हुए सृष्टि रचना का आदेश दिया । तब उस आदि-शक्ति ने सृष्टि रचना रूप अपने लक्ष्य कार्य के सम्पादन हेतु उत्पत्ति या रचना आरम्भ की, जिसे क्रमश: आप देखते आ रहे हैं-- शक्ति-आकाश-वायु-अग्नि-जल तत्व रूप में ।<br />\r\n<br />\r\nआदि में जब मात्र परमसत्ता-शक्ति (परमात्मा) ही थे, तब तो प्रभाव ही प्रभाव था । तत्पश्चात् परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप शब्द-ब्रम्ह रूप परमब्रम्ह परमेश्वर या परमात्मा ने अपने में से ही 'आत्म' शब्द को ज्योति रूपा शक्ति तथा उसको 'प्रभा' से युक्त करते हुए प्रकट करते हुए पृथक् कर दिये, जिससे ज्योतिरूपा शक्ति भी पृथक् हो अपने सूक्ष्म विषय 'प्रभा' के माध्यम से आकाश की उत्पत्तिा की। परमप्रभु से प्रकट 'आत्म' शब्द का ही अंश रूप 'हँ' प्रकट हुआ, जिससे 'ह्-' हुआ। आदि-शक्ति 'प्रभा' परमप्रभु से उत्पन्न तथा उन्हीं से प्रभावित रही। इस आदि-शक्ति 'प्रभा' से अपने सहज 'भाव' से 'हूँ' कार उत्पन्न होने से नाम प्रभाव पड़ा। यह इतना ज्यादा या अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न हुआ कि उसे आसानी से काबू यानी वश में नहीं किया जा सकता था। तब तुरन्त आदि-शक्ति 'प्रभा' ने 'हूँ' को विभाजित करके दो भाग कर दिया जिससे 'ह्-' दो रूपों में पृथक्-पृथक् हो गये । 'ह्' प्रभा से तेज प्राप्त करते ही और के अलग होते हुये 'ह्' सूक्ष्म रूप से स्थूल रूप में आकाश का रूप लिया। जिसमें 'ह्' प्र्रेरित होकर व्यापक रूप आकाशवत् हो गया और उससे शक्ति के प्रभाव से सृष्टि उत्पन्न हुई तथा प्रेरित होकर देवत्व को उत्पन्न किया और शक्ति की प्रेरणा व सहयोग से ही सृष्टि रचना क्रम से वायु-अग्नि-जल रूपों को अपने अधीन उत्पन्न करता-होता हुआ आगे बढ़ता रहा।<br />\r\n<br />\r\nशब्द सूक्ष्म विषय रूप आकाश में तो अभी शक्ति का 'प्रभाव' प्रकट हुआ, परन्तु वह 'बल' रूप में महसूस हुआ था-- प्रभाव का खुल्लम खुल्ला प्राकटय नहीं हुआ था। अग्नि तत्व के माध्यम से उसका रूप भी भौतिक रूप में प्रकट हो गया जिसमें इतना अधिक तेज था कि उस तेज को प्रयोग-उपयोग में लाने के लिये जल तत्व की उत्पत्तिा की गई या हुई ताकि तेज को ठण्डा, मुलायम या द्रवित करता हुआ आवश्यकतानुसार उपयोगी बनाया जा सके। जल के वगैर उसका तेज कम हो ही नहीं रहा था। सर्वथा ही ऊपर बढ़ते ही रहने की प्रवृति या गतिविधि रहती, तो सर्वथा नीचे की ओर चलने वाले जल ने अग्नि के प्रभाव को कुछ सीमित किया अर्थात् रूप से व्यापक और बड़ा 'अंहकार' तब उसके अधीन बल और बल के अधीन तेज तथा तेज के अधीन जल हुआ, जो अपने द्रवित गुण रस से प्रभावित कर उपयोग के योग्य बनाया । इस कारण जल तत्व की उत्पत्तिा इस प्रकार हुई । जल तथा जल से सम्बन्धित विषयों की जानकारी हेतु 'रस' के लिये ज्ञानेन्द्रिय रूप में जिह्ना नाम से शरीर में स्थान पाई तथा इसके सहयोग में सहायक का कार्य करती-रहती है उपस्थेन्द्रिय पेशाबद्वार ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>5. थल तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE EARTH)</strong></p>\r\n\r\n<p>थल तत्व विभाग के अन्तर्गत वे सारी वस्तुयें आती हैं तथा उनसे सम्बन्धित सारे विषय उसकी जानकारी एवं पहचान तथा उसके प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी सारी बातें आती है, जो थल तथा थल से सम्बन्धित होती रहती हैं । थल तत्व का सूक्ष्म विषय गन्धा है यानी थल तथा थल तत्व प्रधान विषय वस्तुओं की मुख्यत: जानकारी व पहचान गन्ध के माधयम से ही होता है, हालाँकि शक्ति-आकाश-वायु-अग्नि-जल आदि पाँचों इकाइयाँ मिलकर ही आपसी मेल मिलाप से थल तत्व की रचना या उत्तपत्ति करती हैं या होती हैं, जिससे कि इन पाँचों के अपने सूक्ष्म विषय रूप प्रभाव-शब्द-स्पर्श-रूप-रस भी इस थल तत्व तथा इसके सूक्ष्म विषय रूप गन्ध में समाहित रहते हैं । इसलिये थल तथा थल तत्व सम्बन्धी विषय-वस्तुओं की सही जानकारी एवं पहचान तथा प्रयोग-उपयोग में काफी सहायक होते हैं परन्तु प्रधाानतया कार्य जान-पहचान का यह 'गन्धा' ही करता-कराता या गन्ध ही के माध्यम से होता है । थल तत्व विभाग गन्ध के माधयम से ही अपना लक्ष्य कार्य सम्पादन करता-कराता है तथा शेष अन्य प्रभाव शब्द-स्पर्श-रूप-रस आदि भी अपने-अपने अंश तक इसका सहयोग करते हैं ।<br />\r\n<br />\r\nशरीर के अन्तर्गत थल-तत्व सम्बन्धी विषय-वस्तुओं की यथार्थत: जानकारी व पहचान तथा प्रयोग एवं उपयोग हेतु और थल तत्व विभाग से सम्पर्क बनाये रखने हेतु 'नाक' (घ्राणेन्द्रिय) या नासिका नाम ज्ञानेन्द्रिय तथा इसके सहयोग या सहायक रूप में 'गुदा' (मल द्वार) नाम कर्मेन्द्रिय अपना स्थान स्थापित किये । अत: नासिका गन्धा लेने तथा गुदा दुर्गन्ध विशेष या दुर्गन्ध (मल) त्याग का कार्य करता रहता है ।<br />\r\n<br />\r\nजल तत्व के द्रवीभूत गुण के कारण कि बिना किसी कड़ाई के या ठोस पदार्थ के जल कहीं ठहर ही नहीं सकता, सदा नीचे की ओर बहता चला जा रहा है । इसलिए शक्ति ने आकाश-वायु- अग्नि-जल चारों से ही मेल-मिलाप कर-कराकर अपने प्रभाव से ही, इस पाँचवें पदार्थ तत्व रूप थल को उत्पन्न किया । ब्रम्हाण्ड में जितनी ठोस वस्तुयें दिखाई दे रही हैं, सभी की सभी ही इस थल तत्व विभाग के अन्तर्गत ही आती हैं ।<br />\r\n<br />\r\nक्या ही विचित्र रचना या विधि-विधान है परम प्रभु का कि जल के चारों तरफ थल और थल के चारों तरफ जल दिखाई दे रहा है, जिससे यह कहना भी एक कठिन बात ही है कि जल से थल घिरा है या थल से जल घिरा है । यह तो स्पष्टत: दिखाई दे रहा है । देखें-जानें कि प्राय: जहाँ पर जल दिखाई दे रहा है, उसके नीचे थल तथा जहाँ पर थल दिखाई दे रहा है, उसके नीचे जल स्थित किये हुये है ।<br />\r\n<br />\r\nधन्य है, परमप्रभु तेरी महिमा को धन्य ! तेरी विधि व विधान तथा धारती व आसमान धन्य हैं और तुझे तो चाहे जितना भी धन्यवाद दिया जाये, तेरे लिये कम है क्योंकि धन्यवाद भी तो तुम्हीं से आकर, इसको निमित्ता मात्र बनाता हुआ तेरे पास ही चला जा रहा है। धन्य है तेरी महिमा प्रभो! कि सृष्टिकाल में तेरे से ही क्रमश: आत्म-शक्ति-आकाश- वायु-अग्नि-जल-थल तथा इससे उत्पन्न विषय वस्तुयें अन्त में तेरे में ही क्र्रमश: उल्टी गति से तत्त्वज्ञान महाप्रलय काल में लय कर जाती हैं ।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! यहाँ जिस क्रमश: पाँच पदार्थ तत्वों की चर्चा की गई है, अति संक्षिप्तत: चर्चा, सारांश रूप में ही की गई है । चूंकि सम्पूर्ण सृष्टि की रचना या उत्पत्तिा परम प्रभु के निर्देशन में आत्म-शक्ति रूप 'प्रभा' ने अपने 'हूँ' कार से 'हूँ' से 'ह्-' के साथ आपस में मेल-मिलाप करते हुये जड़ जगत् तथा से देव तथा देव लोक की रचना या उत्पत्ति की या हुई । आत्म-शक्ति अथवा ब्रम्ह-ज्योति 'प्रभा' शक्ति के आपसी मेल-मिलाप से ही 'ह्' अक्षर, शब्दादि सूक्ष्म विषय तथा आकाश आदि पदार्थ तत्व भी क्रमश: उत्पन्न हुये तथा उन्हीं आत्म-ज्योति से ही उत्पन्न , देव तथा देव लोकों की रचना में माध्यम बना । पूरी सृष्टि इन्हीं पाँच पदार्थ तत्वों से ही युक्त होने के कारण और सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रम्हाण्ड का ही समग्र रूपों के अंशत: मेल-मिलाप रूप यह पिण्ड (शरीर) ब्रम्हाण्ड का ही एक इकाई है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>पिण्ड और ब्रम्हाण्ड का तुलनात्मक रूप</strong></p>\r\n\r\n<p>जो कुछ भी ब्रम्हाण्ड में है, उसका अंशवत् रूप कुछ न कुछ इस पिण्ड (मानव शरीर) में निश्चित ही है । यही कारण है कि इस शरीर में पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियों के सहायक रूप में पाँच ही कर्मेन्द्रियाँ भी हैं। पाँच तत्तवों से सम्बन्धित अपने-अपने सम्बन्ध स्थापित रखने तथा सृष्टि और शरीर अथवा ब्रम्हाण्ड और पिण्ड में आपसी ताल-मेल बनाये रखने हेतु ही रचित एवं निर्धारित‌ की गई या हुई। ब्रम्हाण्ड में जो 'गुण प्रधान दैव वर्ग' है, उसका प्रतिनिधिात्व पिण्ड में 'बुध्दि' करती है तथा ब्रम्हाण्ड में जो दोष प्रधान शैतान (असुर) वर्ग है, उसका प्रतिनिधित्व 'मन' करता है। अहंकार जो है वह--जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में सर्वेसर्वा 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप शब्द ब्रम्ह या परमब्रम्ह या परमेश्वर रूप 'परम' ही अधिकार चलाता है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में यह 'अहं' शब्द रूप 'अहंकार' अधिाकार चलाता है। पुन: जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड पर परमप्रभु का स्वत्तवाधिकार स्थापित रहता है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड पर 'अहं' शब्द सहित सूक्ष्मरूप जीव का स्वत्तवाधिकार रहता है । जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में देव या सुर और दनुज-दानव या असुर अथवा सज्जन और दुर्जन होते-रहते हैं, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में बुध्दि और मन होता-रहता है। जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में सूर्य-चन्द्रमा हैं और वे ब्रम्हाण्ड के ऊपरी हिस्से में आकाश में दिखाई देते है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में भी सूर्य-चन्द्रमा रूप दो ऑंख पिण्डीय सिर में ऊपरी सामने हिस्से में स्पष्टतया दिखाई देते हैं। जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में रात्रि के अन्धेरे में अगणित तारे दिखाई देते है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में भी धयान के समय अन्धकार के बेला में अगणित तारे दिखाई देते हैं । इसे योगी-साधाक एवं आध्यात्मिक जन ही क्रियात्मक साधना से देखते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी पर नदियाँ हैं, उसी प्रकार पिण्ड में नाड़ियाँ हैं । जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड ब्रम्ह-शक्ति का एक क्रीड़ा स्थल है, उसी प्रकार पिण्ड भी सोऽहँ-आत्मा से जीव से शरीरमय का क्रीड़ा स्थल है ।<br />\r\n<br />\r\nब्रम्हाण्ड परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह की शरीर है तो पिण्ड सोऽहँ- हँऽसो की शरीर है। अत: दोनों समान होने पर भी ब्रम्हाण्ड अंशी और पिण्ड उसका अंश मात्र है। परमतत्त्वम् खुदा या गॉड या लार्ड या यहोवा या भगवान् ही ब्रम्हाण्ड तथा पिण्ड दोनों का प्रधान संचालक हैं, जो परमधाम या बिहिश्त या पैराडाइज में 'सदानन्द' रूप सच्चिदानन्द (ETERNAL BLISS) मय रहता हुआ सभी का संचालन करता-कराता रहता है । वही परमप्रभु युग-युग में पृथ्वी की संचालन व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने पर, परमधाम से इस भू-मण्डल पर अवतरित होकर, कोई शरीर धारण कर उसी के माध्यम से चाहे जिस तरह भी विधिा-व्यवस्था सत्य-धार्म-न्याय-नीति प्रधान हो, संस्थापित कर, शासन कर दिखाकर, पुन: वापस चला जाता है। वही परम प्रभु ब्रम्हाण्ड और पिण्ड दोनों का ही अंशी है तथा दोनों का ही लय-प्रलय रूप भी है।<br />\r\n<br />\r\nवही परमब्रम्ह परमेश्वर वर्तमान में भी भू-मण्डल पर अवतरित होकर अपना सत्य-धर्म संस्थापन कार्य प्रारम्भ कर चुका है - कर रहा है। आवश्यकता है उन्हें खोज-जान-देख-परख पहचान कर उनके प्रति समर्पित-शरणागत हो कर धर्म-धर्मात्मा-धारती रक्षार्थ उनके परम पुनीत कार्य में सेवा-सहयोग रूप में जुड़ कर अपने जीवन को सफल-सार्थक बनाते हुए मोक्ष रूप मि×जल को प्राप्त करने की।</p>\r\n', '1655560806-inner-banner.jpg', '18 Jun, 2022'), (13, 'How to Identify Real Sadguru?', '<h3><strong>ATTRIBUTES OF SADGURU FOR IDENTIFICATION</strong></h3>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>(IF YOU HAVE NOT SO FAR GAINED THESE FROM YOUR GURU, ASK HIM NOW. IF HE POSTPONES, HE IS SURELY NOT A SADGURU!!!) </strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>* </strong>Sadguru does not make His disciples to chant any Mantra like Lord Vishnu-Ram-Krishnaji did in previous eras. Sadguru makes one to become a unified devotee of GOD.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>*</strong> Sadguru does not impart disciples a Fractional Knowledge in His Deeksha or in His Practical Session. He imparts "True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE" at one time.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>*</strong> Sadguru does not keep the disciples away from any achievement or put any achievement aside for later days. He provides all the Perfect Achievements at the same time by imparting "ABSOLUTE KNOWLEDGE" including Direct Perception of "Liberation & Immortality" in this very life.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>*</strong> Sadguru does not make one to chant a Mantra or to meditate upon Light. He imparts 'KNOWLEDGE (Gyan)' to make His disciples perfectly doubtless.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>*</strong> Sadguru cannot make His disciples to involve in Maya. He bestows the Gyan Drishti (Eye of Knowledge) to see this world's existence as false (Mitthya) and unreal like a cinemographic play.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>*</strong> Sadguru does not keep the disciples away from knowing the technique of being outside of the body to see one's Self and to roam here and there. He bestows the Sceptal Eye so that the disciple can use his/her body like a shirt (a cloth wear).</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>* </strong>Sadguru provides the disciples the Divine Eye to see the Soul in form of the Divine Light as and when he/she likes in his/her life long.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>* </strong>Sadguru bestows Gyan Drishti (Supremely Eye) to His disciples so that he/she can see the Virat Form or the Universal Form of Khuda-GOD-Bhagwan and so that he/she can talk to Khuda-GOD-Bhagwan immediately in front.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>* </strong>Sadguru makes the disciples a Perfect Gyani to face any question of doubt from the public to respond authentically. Sadguru makes His disciples a unified devotee of GOD only.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>All the above achievements are given by Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans at His Practical Sessions for surrendered devotion and service of Khuda-GOD-Bhagwan. Nothing is kept for later days.</p>\r\n\r\n<p>Worship, prayer,devotion and service-- why for incapable, inefficient and imperfect ? Why not exclusively for the Supremely Capable, True and Perfect Virat Bhagwan, the Universal GOD ?</p>\r\n', '1655622939-inner-banner.jpg', '19 Jun, 2022'), (14, 'The Four TattvagyanData', '<h3><strong>CHATURYUGEEN TATTVAGYAN DATA</strong></h3>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>'Sadanand Tattvagyan Parishad' declares Sant Gyaneshwar Swami Sadanand Ji Paramhans to be the present Bestower of TATTVAGYAN as was imparted by Lord Vishnuji, Lord Ramji and Lord Krishnaji in previous eras. </strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n', '1655623252-inner-banner.jpg', '19 Jun, 2022'), (15, 'Self-Soul-God', '<p>Self-Soul-God</p>\r\n', '1656326620-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (16, 'What should I say if it is true?', '<p>My dear Truth Seekers! I am grieved and glad as well for your dual positions. First, you stay in the position of ignorance, so when the Supreme LORD comes down as an incarnation from His PARADISE, even though you start blaming Him with so many false allegations. This is why my position of grief is. Otherwise I am glad if you want to meet, know, see and converse with the GOD or Supreme LORD. I may tell frankly and truthfully that for this you may meet Him now a-days. This is a very fortunate period for you all, because the GOD or Supreme LORD has been living among us with His Goddesses and Prophets these days on the earth. If you really want to identify HIM, first of all, you will have to gain 'the True, Supreme & Perfect KNOWLEDGE' or 'TATTVAGYAN'. If you find HIM full of Grace and Truth, you may examine HIM through the same TATTVAGYAN. (It is exclusive Mercy of the same GOD that this True KNOWLEDGE or TATTVAGYAN is, at present, being imparted by Sant Gyaneshwar Swami Sadanand ji Paramhans only.)</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>In fact you are passing a very very fortunate period because you can meet HIM in your city or town now. You will have to give only surrendering devotion to the Supreme Lord in return. So you must take this KNOWLEDGE compulsorily. This is the position of my gladness if you try for this. Just think a little as to what should I say if it is true !</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>After missing such time, you start repenting and grieving --- you begin to expiate-- you start accusing yourself of various kinds of things (as you are unfortunate, actionless, sinful etc..) whereas you are continuously told to get rid of these griefs with your surrendering devotion to the Supreme Lord. If you don't care, then why do you repent, flutter and grieve yourselves.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>My all human beings ! Just think. How can you become a Super Being? Again I repeat it to you why not you think for yourself and for your goal of your life as to who you are ? Are you a body ? No, you are not a body. Then think again. Are you a Self ? No, you are not a Self also. Then you must think of it once again that I am not a body, nor am I a Self, then what I am ? Am I a Soul ? This is really a very difficult question.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>First, you must know as to what the body is, what the Self is, what the Soul is and what the GOD is. After such confirmation only, you may take decision as to who you are and what the GOD is and what the medium between your Self and GOD is ? As soon as you get the said Supreme & Perfect KNOWLEDGE, you will find that the body, the Self, the Soul and the GOD are four types of the Existential Form separately. But here the question is as to how you can know all these above. The solution to this question is behind the four systems of Knowledge viz. the education, the Self Realization, the Spiritualization and lastly the True, Supreme & Perfect KNOWLEDGE or TATTVAGYAN respectively. If you want to know any one of these Existential Forms (i. e. body, Self, Soul & GOD), you cannot know them without these four systems of Knowledge. That is,</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<ul>\r\n <li>By Education - between the world and the body.</li>\r\n <li>By Self Realization - between the body and the Self including the Self;</li>\r\n <li>By Spiritualization - between the Self and the Soul including the Soul and</li>\r\n <li>By the True, Supreme & Perfect KNOWLEDGE or TATTVAGYAN - between the Soul and the GOD including all or including the entire Universe upto the Supreme Lord.</li>\r\n</ul>\r\n\r\n<p><strong>SEE THE ONENESS POSITION OF THE GOD</strong> </p>\r\n\r\n<p>Many many difficulties with this True, Supreme & Perfect KNOWLEDGE are there ! The first one of them is that only a single person alone can give this KNOWLEDGE at one time on the whole earth. This is a steady and triangular rule of the Supreme Lord. There are no any changes or no editing in this rule because the GOD is not a body only. HE is but a Supreme EXISTENCE. The GOD is only 'ONE' without second. How can the GOD's identity be in plural numbers when HE is only ONE. So this is not only wonderful but marvellous too. The GOD is in form and formless position both or in shape and shapeless position both.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>The most marvellous position is this that the name, the form and the place (triple in one, being the Absolute Address but without second) lie in HIM as Oneness. Then how can this KNOWLEDGE become in numerous systems. The real meaning of the KNOWLEDGE is the identification and wisdom of GOD and therefore, the position of the KNOWLEDGE, hence the system, is only one. Now how may the givers of such system be many ? Or, is it possible that identification of the one be shown by the other else ? No, it is never possible and the giver of this KNOWLEDGE of GOD is some else than GOD HIMSELF. HE shall be the single authority on the earth at one time.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>HOW TO BECOME A SUPER BEING</strong></p>\r\n\r\n<p>To all my sisters and brothers of the whole world ! I, Sant Gyaneshwar Swami Sadanand Ji Paramhans, repeatedly and earnestly request you again and again that first of all you must try to know as to who you are. Are you a body or a Self ? Why not you take a decision for yourself as to who you are ? Why are you taking this matter as a simple one ? Please don't take it in a simple way. Take this seriously. This is the subject of your goal of life. This is the way of Super Life and the goal of your life too. Once again I have to request you all that you must try to know--- what is your life and what is the goal of your life ? Who are you and who is the controller of you all ? Who is GOD and who is the intermediator between your Self and GOD ? Here, please don't worry but try to feel my sentiments. I just want you to have been living in GOD for ever so that you may become a Super Being. Certainly after that, you will find that your life is passing in the form of a Super Being by the Guidance and Grace of GOD.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>When you try again and again to know and see as to who you are-- who HE (the intermediator between GOD and your Self) is and who GOD is. First of all, you will find the world, secondly the body, thirdly the Self, fourthly the Soul and finally the GOD or the Supreme LORD. These all five entities are separate and different with one another. Without a complete Knowledge of all the above, you will never become a Super Being.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>My dear Truth Seekers ! don't get puzzled with my repetitions because I want you to have exercise for your forgetfulness of the systems related with your personal life and goal. Suppose that the GOD, by HIS own, wants to help you, how you will get it ? It is true that you don't know as to who you are. But it does not mean that you should stop your trial (effort) for knowing your Self, the Soul and the GOD separately.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>There are four types of Existential Forms in this Universe including and upto GOD as under:-</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<ol>\r\n <li>The first one is material form (the world upto the body)-- the system of this kind of knowledge is know as 'education' and the name of eye with which we see these material forms is known as 'eye' alone. You may call it as a soily eye also.<br />\r\n </li>\r\n <li>The second one is sceptal form (above the body and upto the Self)-- the system of this kind of knowledge is called 'Self Realization' and the name of eye with which we can see the Self and all the positions of the Self and Selfly worlds (viz. the hell and heaven) is 'Sceptal Eye' at the position of Nididhyasan.<br />\r\n </li>\r\n <li>The third one is the Souly Form or the formless Soul (above the Self and upto the Soul)--- the system of this kind of Knowledge is called 'Spiritualization' and the eye with which we see the Soul and all the positions of the Soul is known as 'Divine Eye' at the position of Soul.<br />\r\n </li>\r\n <li>This is the fourth and the last chapter of this subject (the KNOWLEDGE or the Universal position) to know and to see between the Soul and the GOD upto the GOD with conversations is called 'Supreme or Perfect KNOWLEDGE'. Not only between the Soul and GOD but the absolute systems of Knowledges of the whole Universe are also included in the very system.</li>\r\n</ol>\r\n\r\n<p>The name of Eye in this last and ultimate system is an 'Eye of Knowledge' or an 'Eye of the Supreme' or 'Gyandrishti' or 'Tattvadrishti'. Please don't get confused here while hearing so many eyes. This is a Certain and Supreme Truth that there are four levels of the Existential Positions in the Universe upto GOD including their such four systems to know them separately with their four types of eyes to see them categorically. In fact, you cannot know and see them categorically without these four kinds of systems of Knowledges and without these four kinds of eyes which are the real positions from atom to Almighty or say--from the Universe and upto the GOD.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>The certain Truth is that you cannot gain Salvation & Immortality, Eternal Peace & Pleasure and Supreme Goal as well, without the system at the fourth number above which is also called TATTVAGYAN. The capacity of Salvation and Immortality is only in this very system and not in any other else.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>The capacity of 'Self Realization' is only to give a realization as 'Aham Bramhasmi ( I am the Soul) which is an egoism and not otherwise. Secondly the capacity of 'Spiritualization' is only to give an experience of 'Peace and Pleasure' (Divine Bliss) and the Soul only. Such is the the position of Han'So, the Souly Self. Please note that there are heavy differences between the Selfly Soul (So'Han) and Souly Self (Han'So). Similarly here we must also note that 'education' is not the 'Self Realization'; the 'Self Realization' is not the 'Spiritualization' and the 'Spiritualization' is not 'KNOWLEDGE or TATTVAGYAN'. Likewise, the 'Soily eye' is not the 'Sceptal Eye'; the 'Sceptal Eye' is not the 'Divine Eye' and the 'Divine Eye' is not the 'Eye of KNOWLEDGE or TATTVADRISHTI' because the body is not the Self; the Self is not the Soul and the Soul is not the GOD. These are all separate ones and are categorically FOUR.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>This is a very difficult question as to what I should say if it is true. If I tell you that the Supreme KNOWLEDGE is the only ONE like the only ONE GOD on the earth at one time and I am the only person who has this KNOWLEDGE on the whole earth at present, then you may think that this Sant Gyaneshwar Swami Sadanand Ji Paramhans is a very egoist person. So please think again and again as to what I should say if it is really true.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Repeatedly I tell you want this KNOWLEDGE of GOD or of the Supreme Lord is a real identification of the GOD. How can the identification of the GOD be given by many at one time when the GOD is only ONE in number.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>If any Saint, Prophet, Maharishi or else wants to give this KNOWLEDGE of the Lord, he cannot give because he is incompetent. Only GOD alone is competent to give this KNOWLEDGE. Jesus Christ is a Prophet and the lovely son of GOD. If it is true, the line from the Bible---" there is no difference between I and my GOD-Father. If you see me, you see the GOD-Father"---is not true, because Jesus is the Life Light whereas GOD-Father is Generator, Operator and Destroyer of the Universe and of Divine Light or of Life Light too and HE is hence known as Supreme Lord or Real GOD-Father. There are most heavier differences between the Life Light and the GOD Father. Think again, the GOD-Father is a Source and Controller of all Universes and of Divine Lights as well.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>If you want to know and see, I promise to you to show all these Existential Positions and their respective systems quoted at these web pages with the terms and conditions mentioned herein. Surely no one can gain this KNOWLEDGE or TATTVAGYAN without absolute surrendership and devotion. This is because this is a certain and rigid rule of this KNOWLEDGE from the very beginning of this Creation.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>I don't like to flatter you. I am glad for myself because I don't deceive you. I will be very glad with you if you will think and try to gain this Supreme Truth & Perfect KNOWLEDGE because the life as well as the goal of life both rest steadily in this very KNOWLEDGE.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>I know that you are many in number related with many more preceptors or Gurus and you have gained some Spiritual Processes or Processes of Self Realization. Here I want to say to you whatever processes you have received from your preceptors are incomplete or imperfect. Don't bother for this statement of mine because I don't have any bad feeling for you or for your preceptor and because I am very honest, sincere and truthful with faithful heart for yourself. So here I say to you that you should give me a chance for I want to give this TATTVAGYAN, so that you can take a comparative decision from the processes you have already gained from your Gurus. After all, you will surely and certainly find that your processes are wrong or doubtful or incomplete and hence incompetent for you and your goal.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Again I tell you very sincerely that you must not worry for my statements as above. There is no one of preceptors else who gives or has given anyone the following four systems-</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>1. EDUCATION - THE SYSTEM BETWEEN THE WORLD AND THE BODY, INCLUDING SOILY EYE AND UPTO BODY;</p>\r\n\r\n<p>2. SELF REALIZATION - THE SYSTEM BETWEEN THE BODY AND THE SELF INCLUDING 'SCEPTAL EYE' UPTO THE SELF;</p>\r\n\r\n<p>3. SPIRITUALIZATION - THE SYSTEM BETWEEN THE SELF AND SOUL INCLUDING 'DIVINE EYE' UPTO THE SOUL, AND</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>4. Real KNOWLEDGE -</p>\r\n\r\n<p>The system between the Soul and the GOD upto the GOD including the 'Eye of the Supreme' (Tattvadrishti). Here the world 'between' is not suitable because the system of all (the systems of world, body, Self, Soul and GOD, again of Education, Self Realization, Spiritualization and Real KNOWLEDGE are included in this very Real KNOWLEDGE which is currently given by none except me (Sant Gyaneshwar Swami Sadanand Ji Paramhans). This is not an egoism and not any hyperbole but a highest truth.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>TO THE PRECEPTORS Or GURUS</strong></p>\r\n\r\n<p>Every Preceptor must be sincere and truthful. But it is not so at present. It is a matter of very very very regretfulness, because the glory of Religion and GOD have become like an imagination and like fake forms in the society. Certainly, the Preceptors are responsible before the GOD for this regret position. We cannot save ourselves from the punishment of GOD for this degradation.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>HAVE YOU NOT HEARD ?<br />\r\nFALSE PRECEPTORS BECOME SNAKE,<br />\r\nFALL DOWN IN LIFE-CIRCLE<br />\r\nPASSING IN HELL AND HEAVEN.<br />\r\nDISCIPLES CANNOT GAIN THEIR LIFE-MAKE,<br />\r\nSO THEY BECOME ANT LITTLE<br />\r\nTO NOTCH AND EAT THEM IN REVENGE.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Why are you not afraid of GOD for your false and fake precepts? How wonderful is this that even being a religious leader, you are not leading sincerely and truthfully. Then how can you create a religious environment in the society ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>The demand of the Religious principles and environment is that first of all you become sincere and truthful and then you should precept. Rather you should be most careful not to entangle again in the same deluding situations (worldly means and materials) from which you have come to this religious environment. Why not are you afraid of falling down again ? See yourselves sincerely.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>By the Supreme KNOWLEDGE, I set you again and again that you should save your life and goal and must be careful for worldly means and materials which are a deluding net. It is possible only when you save yourselves from the false and fraudulent precepts. Think ! Think!! Think again and again !!! How wonderful is that even being a religious leader, you are not afraid of punishment of GOD ! Why not you think of it ? Why not you accept it ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Is it our purpose to collect disciples and worldly means and materials ? No no no ! This is not our purpose at all. We are missing our purpose or goal. Suppose, we have collected millions of disciples and billions of worldly means and materials. Why not you think that this is not your purpose and goal of your life. Why not you are afraid of falling down ? You are keeping yourself in a very very very big deceit. You are not caring that you are felling down yourselves. Once on the bases of your nescience and ego in such a way that your goal of life may get reveresed towards delusion of worldly means and materials. On my such statement you should not feel that I am felling you down. I am very sincere and truthful towards all my statements as above. I am never against you. Really I am very faithful for you. All these statements as above are not by me but by the Supreme KNOWLEDGE. Again, by the Supreme KNOWLEDGE who is the same as GOD, I repeated it to you as above that I am very sincere, truthful and faithful for you. This is my actual duty. What I have said to you all the above is by this Supreme KNOWLEDGE as GOD. This is not my ego or an intention to depress you.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>Is IT NOT CONFUSIVE AND WRONG ?</strong></p>\r\n\r\n<p>1. So many fake saints or so-called Mahatmas have dressed themselves just to avoid labour and just for fooding, lodging and moving heither and theither to so and so religious places. They want only fooding, lodging and moving and to be called as Mahatma. They do not want Religion or GOD. Religion or GOD is only a fake and show piece for them.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>2. A few remaining other ascetics are engaged in penance but they have stuck with ego of saintliness and austerity so badly as they cannot come out of it. So they consider themselves 'all in all' whereas austerity and penance is just a first step in Reigion not all in all.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>AN EGOIST OF SELFLY SOUL</strong></p>\r\n\r\n<p>By Ethics : A few so-called Mahatmas are only readers and speakers of ethics. But they are speaking and precepting just like a Knower and Seer of GOD. How wonderful is this that they consider themselves as a Knower and Seer of GOD and preach likewise in the ignorant world society thought they are fully egoist and know nothing practically ! Such type of preceptors should not fell ill over my statement as above because I put them very sincerely, truthfully and faithfully by the Supreme KNOWLEDGE or TATTVAGYAN and not with a prejudiced heart. I am at all not prejudiced of anyone of you but here I tell you every thing only by the Mercy of GOD and by the Supreme KNOWLEDGE.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>By Realization : Few other so-called Mahatmas are thinker or realizer only, so they are thinking and realizing always though they get nothing. Inspite of this, they have considered themselves --' I am all in all. I am Self. I am Soul and I am GOD too.' They do not know as what the definition of Self, Soul and GOD are. Certainly they do not know the definition and position of the Self, Soul and GOD separately. How wonder ! They do not know anything about GOD and Soul also. Not only this, but they do not know anything about Self even. They have become victims of egoism so much as they cannot come out from their thinking or realizing habits. Certainly I do speak to them that they do not know anything about Nididhyasan without which anyone cannot know the self even what to say of others. The SPIRITUALIZATION (the process of the Soul ) and the Supreme & Prefect KNOWLEDGE (the only system of GOD) are really beyond their capture. They ( The SPIRITUALIZATION and the KNOWLEDGE) do not even come in their thought.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Moses, David, Jesus David and Mohammad Sahebs are Prophets of the GOD---no doubt in it at all. Their precepts were only the messages of GOD. Unknown persons did not accept their prophecy because they were victims of egoism and their fooding, lodging and actions were totally like those of demons (satanaic). How could they accept those messages of GOD being spread by Prophets. We do not have any doubt in their by prophecy because it was a reality.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Jesus is not a Selfy body only but he is a 'LIFE LIGHT' also. It is a reality that Jesus is a son of GOD. It does not mean that Jesus is a body and GOD also is a body. But here it does mean that Jesus is really a 'LIFE LIGHT' or ' DIVINE LIGHT' and his GOD Father is a Source of LIFE LIGHT or DIVINE LIGHT. The Source of Light is Supreme EXISTENCE or Supreme AlMIGHTY LORD.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Disciples are victims of missings and confusions because they consider their own GURUS ( preceptors) as Soul, as GOD, as Supreme LORD, as Supreme Almighty and so on so forth but not body whereas they do consider other gurus as a body only even if the Supreme LORD or the Supreme EXISTENCE, by HIS own, incarnates down amidst them. It is not justified because their system of evidence is basically wrong.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>AN EGOIST OF SELFLY SOUL</strong></p>\r\n\r\n<p>What is the real identification of preceptors or Gurus ? The real system of evidence for examination of any preceptor or Guru is that we should, first of all, omit the body of any preceptor or Guru and then from the remainder we should examine and take decision thereafter. This is the real system of examination of any preceptor. Really the real reality of the preceptors or Gurus opens out with this very system (of omitting the body and taking remainder as a principle). The real identification of preceptors opens out or comes out with this very system and the category and capacity of all preceptors is disclosed before all by this very system since the category and capacity of any preceptor cannot be decided on the basis of his body, number of his disciples and amount of wealth acquired by him only.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Now it is easy to take correct decision against identification of any Guru. How can one take decision without 'omitting the body and taking the remainder as a principle'?. Try to think yourself that without omitting the body, no one can take a real decision for any Guru. I tell you again and again--- repeatedly again and again that without omission of body you cannot take any real decision for real identification of any Guru. Please think of it. Is it not correct ? Certainly you will really find that this is very very very correct.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>WONDERFUL VERSIONS</strong></p>\r\n\r\n<p>Some versions of the Bible (New Testament) are not acceptable because the differences between Life Light Jesus and his GOD-Father are ignored away. For example, one of them is -<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><em>"THE FATHER & I ARE ONE.--- JOHN 10\\30</em><br />\r\n<br />\r\n<em>I AM NOT ALONE; THE FATHER WHO SENT ME IS WITH ME." --- JOHN 8\\16</em><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Here the first version is not genuine and right but the second one is really genuine and right. Such a decision comes out of the contradiction lying between the two versions of the Bible.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>SELFLY SOUL or So'Han</strong></p>\r\n\r\n<p><strong>Definition:</strong> So'Han is not a creative action of ascending way of Self to Soul but this is a position of falling down of the Soul to Self in a descending way.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Descending of life as a Selfly Soul is presumed ascending way of life as a Souly Self. This presumption is not genuine and right.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>The real position of Selfly Soul is So'Han which is a descending way of life. This is a very very very difficult situation to understand for a person who is attached with a Spiritual Preacher because even the ancient Spiritual Preachers were also missing here to understand the differences between the Selfly Soul (So'Han) and Souly Self (Han'So). The ancient and modern Spiritual Preachers also do not understand the exact and secret differences between So'Han and Han'So because they do not know the mystery of Spiritualization. Kabir, Nanak, Tulsi and even Jesus come in the same category. Let us see form the Bible-</p>\r\n\r\n<p><em>"I am he. I who am talking with you."---John 4\\26 </em></p>\r\n\r\n<p>The real principle is that the LIFE LIGHT or DIVINE LIGHT as SOUL has been coming down from the Almighty GOD since the very beginning. Soul is changed into a Sceptal body as a Self by Mahamaya, the Goddess of the Universe. This way of Soul (that it comes down from the GOD and goes into the Self) is called Selfy Soul--So'Han or a descending way of Soul. The position of this way (the descending way of life) is but natural under the system of 'Being' not 'doing'. Then how can we say that the position of So'Han is a creative action under SPIRITUALIZATION or under Yoga-Saadhana ? This is not a creative action or Saadhana of Soul. This is a system of 'Being' not creating. This is the position of descending way of Soul, not ascending way of Self.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>All disciples of any Spiritual Preacher are falling down with a misunderstanding over the above concepts of Selfly Soul or So'Han. All of them presume that So'Han is an ascending way of the Self. This is not right, otherwise they would have gained their goal of life. But it is not so because this assumption is not a creative and ascending system. This is only the position of 'Being' and the way of descending. This consideration of all Spiritual Preachers and their disciples is really confusive and false. They cannot know what the real reality of descending and ascending ways of Soul is.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Please think. Think again and again. Here I am not egoist at all. I am not deceiving any Spiritual Preacher or any one of their disciples but I do want to give them the real reality of descending and ascending ways of Soul. If you think that I am prejudiced of you or of your Gurus and just want to deceive you or your Gurus, certainly I' ll tell you that I am not prejudiced with any one at all. Only I want to give you the real reality of SPIRITUALIZATION here. I cannot say that I am better or superior than Budha, Jain Mahavir, Jesus, Zerusthra, Mohammad, Nanak, Kabir Tulsi etc. etc. but I'll certainly tell you that the real Reality of descending as well as ascending ways of the Soul as a Selfy Soul (So'Han) and Souly Self (Han'So) under the KNOWLEDGE of Supreme (TATTVAGYAN). You must not be grieved. Think ! Think again and again ! What should I say if it is true ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>SOULY SELF or Han'SoHan'So is a creative action or ascending way of Self to Soul. This is an anti and creative position of the Soul to Self (Selfly Soul) or So'Han. This is a real creative position of ascending way of Self to Soul, because inspiration and expiration are a general and simple action of nature like a system of 'Being' but the system of expiration and inspiration is a process of Spiritualization or a creative process between Self to Soul. Han'So is a living secret and Divine Position having been between expiration and inspiration.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>The form of body is totally soily and the form of Self is sceptal, but the real form of Soul is neither souly nor sceptal but it is a third and separate form known as LIFE LIGHT or DIVINE with pure consciousness. Body is only the body being without consciousness and Self is with impure consciousness because the Self is involved with demerits and merits by the Goddess of the Universe (Mahamaya or Nature). Soul is a pure conscious because there is no any effect of demerits or merits of Maya on Soul. There is impurity where there are demerits and merits and there is purity where their is no any effect of nature.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>This is very very very marvellous and wonderful that Soul is a Divine Power between the GOD and the Self and between the Self and the GOD. But inspite of being DIVINE, He is not competent for Himself to hold His real position separately if It (the Soul) is not having Himself under the criterion of GOD. No doubr, He is full of Divine Power but when He enters the criterion of Goddess of the Universe (i.e. the criterion of Mahamaya or Nature), this Maya covers Him with Her merits and demerits and changes Him into a sceptal body called Self. So, the Divine Power of the Soul reverses back to GOD. So He (the soul) looses His divinity. Now if the Soul really wants to save His Divinity with Him, He will have to remain always in the direction of GOD.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Please think and try to realise this. Is the creative process of Self to Soul not ascending ? Certainly you will really find that it is really a position of ascending way to Self to Soul.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>So'Han fellows must think and know the 'Being' Position of Soul to Self. Is it not falling position of Soul or is it not descending position of Soul ? Really you will find that 'Being Position of Soul to Self is not any process of Spiritualization or Addhyatma. You must think of this carefully. Is it right or wrong ? If it is right, you must accept it happily for your good welfare.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Again and again I tell you the 'Being Position of So'han under inspiration and expiration is not a creative process, then how can you accept it as a process of Spiritualization ? If you want to go into the process of Spiritualization, you must certainly accept the creative process of ascending way of Self to Soul (Han'So) not descending way of Soul to Self (So'Han).<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>If you want to know, see the real creative process of Spiritualization and gain the achievement of Divine Power like the Soul has, you may meet me and know in details with all the secrets practically.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>However, all the matters mentioned herein this web site are not really complete KNOWLEDGE or Perfect KNOWLEDGE but are just fractions of REAL KNOWLEDGE. The Real KNOWLEDGE is quite different and seperate. Even Education, Self Realization and Spiritualization as well are just fractions of Real KNOWLEDGE. If you want to know what the Real KNOWLEDGE is, you may see and know the following:-</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>KNOWLEDGE & SECRETS OF SUPREME EXISTENTIAL FORM LIKE AATMATATTVAM OR GOD</strong></p>\r\n\r\n<p><strong>Definition : </strong><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>1. The source and controller of the Universe including Soul also is Supreme Existential Form or Supreme Almighty Lord or KHUDA-GOD- BHAGAWAN.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>2. The Source of Soul, Power and Universe is the Supreme Sovereign or GOD or Supreme Lord, The Generator, the operator and the Destroyer of the whole Universes including Powers and Souls is called KHUDA-GOD-BHAGWAN.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>There are three classes in the human society. The first one belongs to those who consider that GOD is nothing except hypothesis (as athiests think). But this consideration is not correct, not real and not true too.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Secondly many more persons in the religious society belong to the category of such recognition who accept the existence of GOD but they don't accept the incarnation of GOD. (such as Aryasamaji, Christian and Muslims etc. do.)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Thirdly, disciples who have involved/attached with any Spiritual Preacher, consider that their GURU is an incarnation of GOD. These fellows very gladly take that:-<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>GURU IS THE LORD OF CREATION,<br />\r\nGURU IS THE LORD OF OPERATION,<br />\r\nGURU IS THE LORD OF TERMINATION,<br />\r\nAND GURU IS THE LORD OF DESTINATION,<br />\r\nWE OFFER HIM SALUTATIONS.<br />\r\nUNBREAKABLE AND GLOBAL SHAPE,<br />\r\nOMNI-PRESENT IN INANIMATE AND MATE,<br />\r\nSEEN ALL IN HIS LOTUS--FEET,<br />\r\nWE SALUTE IN GURU'S FEET.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>All the three as cited above are the categories of human societies but we find extra one society coming on this earth from time to time who belong to extra and beyond-ordinary-works and who are called ''Incarnation of GOD'' and HIS devotees, that is, Giver of the Supreme KNOWLEDGE & Knower and Seer of GOD. After all, this society belongs in oneness because the Knower and Seer of GOD find themselve merged into the 'Giver of KNOWLEDGE or into the Incarnation of GOD'. So here we find them as oneness and this is, in fact, the goal of all living beings, especially of human beings. Here we find that we have become free from all bounds, free from all sins, free from any bodily relation including worldly attraction and affection. Liberated all along.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>The 'Incarnation of GOD' has come down for fulfillment of vacancies of all on the earth such as re-establishment of Religion, reformation of the society and destruction of evil doers, all kinds of global pollutions and devils. You may see these verses in support of it:-<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>WHENEVER RELIGION BECOMES LAST,<br />\r\nAND ANTI-RELIGION IS GROWING FAST,<br />\r\nTHEN I'M BORN BEYOND ANY CASTE<br />\r\nFOR PROTECTION OF GENTLES<br />\r\nAND FOR DESTRUCTION OF DEVILS,<br />\r\nFOR FOUNDATION OF RELIGION,<br />\r\nI MANIFEST OCCASION TO OCCASION.<br />\r\n(SUPPOSITION OF RAMAYANA, GEETA AND SHRIMADBHAGWAT PURAN)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>When the Religion, Gentles, global environment and Saints are loosing just last on the earth, then becomes 'Incarnation of GOD' for the protection of such things and destruction of all pollutions and devils prevailing on the earth. Here the meaning of pollution is not only for the natural global things but pollutions in thinking, in precepting and in devoting. Please understand these real position of pollution and save yourselves of these pollutions because the pollution of human beings is more serious than that of nature. Undoubtedly pollution ( in thinking, precepting and devoting and in the system of behaving) the pollution of natural global environment certainly become free, then human being become pure cultured in wealth, health and comprehension.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>I will say in brief about the cause of Incarnation of GOD if I am asked to do so. The Incarnation of GOD is for the protection of the Religion, the Religious and the Earth only.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>In fact, the word KNOWLEDGE means not Education only, not only Self Realization and not only SPIRITUALIZATION too. It is but absolute KNOWLEDGE which means absolute knowingness of Education, Self Realization, Spiritualization and particular Knowledge are just parts of KNOWLEDGE or Absolute KNOWLEDGE. If you want to know the reality of these parts, you may see here. Further, Education is a knowingness between the body and the Self (sceptal body) and upto the Self. Again, Spiritualization is a knowingness between the Self and the Soul and upto the Soul, the Divine Light. Likewise, particular Knowledge is a knowinegness between the Soul and the GOD, the Supreme Almighty, but finally you'll find that knowingness of all is included in ''Absolute KNOWLEDGE'' (also called simply ''KNOWLEDGE''). This is the ''KNOWLEDGE'' without remainder. The receiver of this ''KNOWLEDGE without remainder'' is called 'Knower and Seer of GOD'' or simply 'knower of GOD or Gyani'<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>This is a strange mockery prevailing in the world society now-a-days that some educated persons declare themselves to be the 'Knower' some other Self Realizer also declare themselves that they are 'knower', but the reality is this that no one of the above is a 'Knower' because KNOWLEDGE' is not Education only, not Self Realization too. KNOWLEDGE is a separate system of all the above. You may see the definitions of these words as given above. Only the 'Knower and Seer of GOD' know all these systems separately and no one else.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>Now, if you really want to know all over the systems as mentioned above separately and the world, the body, the Self (sceptal body), the Soul (Divine Light) and the Supreme Almighty GOD or the Supreme Existence separately, further if you want to meet, see and gain practically and experimentally all the above achievements with conversations, you may meet me (Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans) to get them under the system of 'True, Supreme & Perfect KNOWLEDGE or Absolute KNOWLEDGE or TATTVAGYAN.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>I hope that you will take it very seriously because Truth is always acceptable for all of us. If you really want to become a Super Being, you must certainly take this 'Supreme & Perfect KNOWLEDGE' without hesitation whence you get every achievements of GOD-Father for your Super Life ---- Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans (See head quarter guide map)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><em>ENGLISH RENDERING BY --MAHATMA JAGDISHWARANANDJI AND MAHATMA SEVANANDJI</em></p>\r\n', '1656327603-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (17, 'A Truthful Message to The World', '<p>Truth seeking Inquisitives ! Here is one suggestion to all of you that I have one Supreme System of 'ABSOLUTE KNOWLEDGE' called 'Tattvagyan' under which complete fundamental knowledge of all the existences from atom to the Almighty or from cell to the Supreme with all their secrets is included and covered, that is, with that Tattvagyan one may achieve the as-it-is knowledge and practically and separately perceive.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>1. Body alongwith physical world;<br />\r\n2. Self (or Jeeva or Rooh)<br />\r\n3. Soul-Aatma- Eeshwar-Bramha- Noor-Divine Light (Descending So'Han, Ascending Han'So but factually Sah) and 4. GOD or Parmatma- Parmeshwar- Parambramha- Khuda-GOD-Bhagwan or Adwaittattavam-like-Aatmatattvam</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>All these four entities with</p>\r\n\r\n<p>1. Education;<br />\r\n2. Self Realization;<br />\r\n3. Spiritualization and<br />\r\n4. True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE ( or Tattvagyan), the four Systems.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>One may also conversate with GOD with respect to HIS Identification and also examine with Vedas, Upnishads, Ramayana, ShrimadBhagwad Geeta, Qurraan, Bible or GuruGrangh Saheb etc. like Narad-Garun, Laxman-Hanuman and Arjun-Gopies did. One may also achieve the direct Perception of 'liberation & Immortality' or Salvation. All these are based on acute curiousity, forced faithing and absolute surrendership & refuge. Thousands of Inquisitives from all sects of the society have already received this Tattvagyan. Giving all the expenses, I, with all of my society members shall surrender to the fellow who will proove it false. But if is comes to be theoretically and practically True in all respects, the fellow who accepts this challenge must absolutely surrender himself/herself to and in refuge of GOD for the protection of 'Dharma-Dharmatma-Dharti' (or for the protection of True Religion, the Religious and the Earth) either singly or with family.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Here I want to surely narrate that this Tattvagyan ( the True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) with which one receives 'All the Perfect' perfectly, is not at all available with anyone else on the whole earth. If any one declares that he or she has It with him or her, I must, for the Supreme Welfare of the masses, announce that he or she is solely telling a lie. Such a false declarer deceives the society. Certainly there must be a very high ambition of such a declarer behind it. Now if any one consider me as a calumniator, a complaint maker, an exposer of other's inferiority or as an egoist, then for the Welfare of the masses I shall have to ask you as to what should I say if Truth is like this. Should I continue the society to remain deceived ? Should I not let the society know the facts ?</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Once again I am telling you that this 'Tattvagyan (the True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE)' is not with any one else. If any one says that it is he or she who has, then I am rather ready to proove his or her declaration false theoretically and practically as well and I promise too that I shall fulfill the condition of surrendership to the fellow who prooves my aforesaid statement false.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Lastly, I must say that I am not a criticizer, nor am I a censor or opposer of any, but a helper and a support of all. You may examine with authencity of scriptures in a peaceful manner. But please note that speaking truth is my nature and duty which I shall be performing for ever, may it be ill or nice to any. So, for the protection of 'Dharma-Dharmatma- Dharti' (or for the protection of True Religion, the Religious and the Earth) and for abolishing untruth, irreligion, injust and misconduct and subsequently for establishing truth, religion, just and virtures on the whole earth, I shall always be speaking truth.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>Make your life a success and worthful. Adopt GODly Grace-like-Supremely KNOWLEDGE (Tattvagyan). Not to false and highly ambitious Gurus, be surrendered and remain in shelter of Supreme Almighty GOD. This is your successful and worthful life, otherwise not. Be aware and try to understand before time is over. See the fundamental secrets of all. Help the Self or the Jeeva achieve Salvation. Make your life pious. This is the aim of your life. I say to know the truth. Recognize GOD Who bestows Liberation and Immortality. Rigidness does not provide Salvation, Salvation is always with KNOWLEDGE. Give up false Gurus, be related with GOD only. All's Mercy of GOD.</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><em>Sant Gyaneshwar Swami Sadanandji Paramhans</em></p>\r\n', '1656328123-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (18, 'Directives To The World', '<p><strong>परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-अल्लाहतआला-लॉर्ड या अकालपुरूष-सत्पुरुष-परमपुरुष-यहोवा-अरिहंत-बोध्सित्त्व-अहूरमजदा-कुलमालिक या </strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<h2>खुदा-गॉड-भगवान का चुनौती भरा सत् सन्देश</h2>\r\n\r\n<h2> </h2>\r\n\r\n<p><strong>(विश्व बन्धुत्त्व एवं सद्भावी एकता आन्दोलन अन्तर्गत सत्य-धर्म संस्थापनार्थ और 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ विश्वदिग्विजय हेतु पच्चीस वर्ष से घूम रहा है तत्त्वज्ञान का यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रूप 'चुनौती' ! है कोई इसे पकड़ने, स्वीकार करने या रोकने वाला ) </strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस </strong><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>ऐ मेरे बन्दे !</strong> ''मैं'' शरीर-जिस्म-बॉडी नहीं हूँ; ''मैं'' आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट भी नहीं हूँ-- ''मैं'' समस्त संसार सहित शरीर-जिस्म-बॉडी एवं जीव-रूह-सेल्फ और आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट का परमपिता परमेश्वर-खुदा-गॉड- भगवान् या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता हूँ ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>ऐ मेरे जिज्ञासुओं !</strong> ''मैं'' ॐ (Oan) नहीं हूँ; ''मैं '' सोऽहँ तो बिल्कुल ही नहीं हूँ; हँऽसो भी नहीं हूँ-- ''मैं'' तो परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप 'अल्लिफ-लाम्-मीम' (अलम्) रूप 'शब्द-वर्ड' (गॉड) परमेश्वर हूँ। सर्वतत्त्व का एकीरूप परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप 'शब्द-वर्ड-गॉड' (बचन) रूप हूँ ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>ऐ मेरे जिज्ञासुओं !</strong> ''मैं'' कभी भी शरीर-जिस्म-बॉडी नहीं बना हूँ; और आज भी ''मैं'' शरीर-जिस्म-बॉडी नहीं बना हूँ । ''मैं'' तो सदा-सर्वदा अपने परम आकाश रूप परमधाम-पैराडाइज-बिहिश्त में रहता हूँ। समय - समय पर ''मैं'' सृष्टि के महानिरीक्षक नारद-जिब्रील अमीन, विधायक रूप उत्पत्ति कर्ता ब्रम्हा एवं न्यायाधीश रूप संहार कर्ता शंकर के करुण पुकार पर ही अपने निवास रूप परम आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल (इस धरती रूप धराधाम) पर अवतरित होता हूँ और बिना किसी को जनाये-बताये गुप्तरूप से किसी शरीर को अधिग्रहीत (धारण) कर उस शरीर के जीव-रूह-सेल्फ और आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट को अपने परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् में विलय कर लेता हूँ तथा उस शरीर विशेष के माध्यम से ' तत्त्वज्ञान (खुदाई इल्म-हुरूफमुकत्तआत) ' रूप नॉलेज (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) रूप सत्य सनातन धर्म की स्थापना करने हेतु अपने शरणागत परम जिज्ञासुओं को ' तत्त्वज्ञान ' रूप सत्यज्ञान के द्वारा अपनी यथार्थत: जानकारी-दर्शन तथा बात-चीत करते-कराते हुए अपना पूर्ण परिचय-पहचान देता हूँ । यही मेरा पूर्ण परिचय प्राप्ति-पहचान ही यथार्थत: ' सत्य सनातन धर्म ' है । मेरे इस परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् की जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुए पहचान रूप पूर्ण परिचय, सत्ययुग में श्रीविष्णुजी वाली शरीर से, त्रेतायुग में श्रीरामजी वाली शरीर से तथा द्वापर में श्रीकृष्णजी वाली शरीर द्वारा ''मैं'' ने ही दिया था और आज भी पुन: उसी प्रकार से ही ' सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् ' वाले सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस वाली शरीर द्वारा उसी परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च-सर्वोत्कृष्ठ परमशक्ति-सत्ता रूप अपने <strong>"तत्त्वम् रूप 'शब्द' (बचन)"</strong> की जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान रूप अपना पूर्ण परिचय देता या कराता हूं। यह मेरी बात परम आश्चर्यमय होते हुये भी परमसत्य है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>( 'आदि में 'शब्द' था । 'शब्द' परमेश्वर के साथ था । 'शब्द' ही परमेश्वर था । 'शब्द' देहधारी होकर हम लोगों के बीच डेरा किया --बाइबल से । )<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐ मेरे बन्दों ! परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप ''मै'' सत्ययुग वाले श्रीविष्णु नहीं हूँ बल्कि श्रीविष्णु वाले परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् हूँ; ''मैं'' त्रेतायुग वाला श्रीराम नहीं हूँ बल्कि श्रीराम वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् हूँ; ''मैं'' द्वापरयुग वाला श्रीकृष्ण नहीं हूँ बल्कि श्रीकृष्ण वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् हूँ । पुन: वर्तमान में ''मैं'' 'सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्' वाला सदानन्द शरीर मात्र नहीं हूँ बल्कि 'सदानन्द' वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् हूँ ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐ मेरे बन्दों ! ''मैं'' लाईफ लाइट-जीवन ज्योति रूप यीशु (Jesus Christ) नहीं हूँ बल्कि यीशु (जीवन ज्योति) का परमपिता रूप (GOD-Father) 'शब्द' रूप परमेश्वर हूँ; ''मैं'' मोहम्मद व मोहम्मद वाला 'नूर' नहीं हूँ बल्कि मोहम्मद का परवरदिगार और 'नूर' का पितारूप अलम्-कादिरे मोतलक अल्लाहतआला हूँ; ''मैं'' सिध्दार्थ गौतम व उनका इनलाइटेनमेण्ट नहीं हूँ बल्कि इनलाइटेनमेण्ट का पितारूप सम्यक् ज्ञान रूप बोधिसत्त्व (सत्यबोध) हूँ ; ''मैं'' महावीर (जैन) व उनका चेतन ज्योति भी नहीं हूं बल्कि महावीर का ईष्ट और उनके चेतन ज्योति का पितारूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता रूप सत्य-तत्त्व 'अरिहंत' हूँ । वर्तमान में भी ''मैं'' 'सदानन्द तत्त्चज्ञान परिषद्' वाला सदानन्द शरीर मात्र नहीं बल्कि 'सदानन्द' वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड- भगवान्-यहोवा-बोधिसत्त्व-अरिहंत-सत्पुरुष-परमपुरुष हूँ ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐ मेरे बन्दों ! '' मैं'' यमराज, वरुण, अग्नि व इन्द्र ब्रम्हा आदि वाला ॐ (Oan) नहीं हूँ और सप्तर्षियों, नारद, शंकर आदि वाला हँऽसो व ज्योति रूप आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह भी नहीं हूं बल्कि ''मैं'' तो एकमात्र श्रीविष्णु जी वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् हूं । सोऽहँ-हँऽसो का पिता हूँ ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐ मेरे जिज्ञासुओं ! ''मैं'' शंकर, नारद, वशिष्ठ, अंगीरस, अथर्वा, श्वेताश्वतर, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, ऋभु, भारद्वाज, लोमश, अष्टावक्र, आदि त्रेतायुगीन किसी भी ऋषि-महर्षि वाला सोऽहँ-हँऽसो व स: ज्योति तथा रावण आदि विद्वान कर्म काण्डियों-पण्डितों का ॐ (Oan) नहीं हूँ, बल्कि तथा सोऽहँ-हँऽसो व स: ज्योति रूप जीवात्मा व आत्मा का उत्पत्तिकर्ता तथा उन्हें अपने ''तत्त्वम्'' में विलय कर लेने वाला श्रीरामचन्द्र जी वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप मायापति भगवान हूँ ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>''मैं'' यूहन्ना वाला Self (स्व) तथा यीशु वाला Life light ( जीवन-ज्योति) भी नहीं हूं बल्कि Self (स्व) तथा Life light ( जीवन-ज्योति) का भी उत्पत्ति व विलय कर्ता रूप लाईफ-लाइट या जीवन-ज्योति यीशु का परमपिता (GOD-Father) रूप 'शब्द (बचन)' रूप परमेश्वर हूँ !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐ मेरे भक्त प्रेमी-जिज्ञासुओं ! ''मैं'' वर्तमान में श्री करपात्री, शंकराचार्यगण, महामण्डलेश्वरगण, देवद्रोही श्रीराम शर्मा (तथाकथित गायत्री वाले), श्री मुरारी बापू, श्री नारदानन्द, श्री सन् म्योंगमून ( दक्षिण कोरिया वाले), श्री महेश योगी, श्री आशाराम बापू, श्री साई नाथ, श्री पाण्डुरंग शास्त्री (स्वाध्यायी), आचार्य चतुर्भुज सहाय, श्री चिन्मयानन्द (वैचारिक मात्र) आदि विद्वान कर्मकाण्डियों वाला एवं 'अहं ब्रम्हास्मि' नहीं हूं तथा श्री बालयोगेश्वरजी, योगभ्रष्ट सतपाल, श्री आनन्दमूर्ति जी, निरंकारी (भ्रमकारी) बाबा श्री गुरुबचन सिंह, मां आनन्दमयी, खण्डन प्रधान धर्म का कलंक रजनीश, श्री मेंही, बड़बोल जय गुरुदेव, घोर आडम्बरी एवं मिथ्याज्ञानी प्रजापिता ब्रम्ह कुमार-कुमारियों, राधा स्वामी, श्री मुक्तानन्द, तन्त्र वाले अवधूत राम- भूतनाथ आदि वर्तमान वाले समस्त तन्त्र-मन्त्र एवं आध्यात्मिक महात्माओं वाला सोऽहँ-ज्योति रूप जीवात्मा व आत्मा भी नहीं हूं, बल्कि 'सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्' वाले 'सदानन्द' शरीर वाला परमतत्त्वम् रूप ''आत्मतत्त्वम्'' शब्दरूप भगत्तत्त्वम् रूप 'शब्द' गॉड-अलम्-परमात्मा-परमेश्वर -पुरुषोत्तम - सनातन पुरुष हूँ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>मुझ परमतत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् को, जब-जब अपने परम आकाश रूप परमधाम-पैराडाइज-बिहिश्त से भू-मण्डल पर अवतरित होना होता है, तब-तब ''मैं'' कुछ व्यक्तियों के अन्तर्गत विशेष भौतिक ज्ञान पहले ही प्रेषित कर देता हूं, जिसके द्वारा सांसारिक विकास व भौतिक रूप से सुख-सुविधाओं से युक्त होकर मानव सुख-शान्ति से रहे । परन्तु जब वे विशिष्ट ज्ञान (भौतिक) वाले निर्माणक आविष्कारों के साथ-साथ संहारक आयुधों का निर्माण करते हुए विनाशक रूप ले लेते हैं, तब ''मैं'' खुदा-गॉड-भगवान् ही अपने कुछ विशेष शक्तियों से युक्त विशिष्ट ज्ञान (आध्यात्मिक) को प्रेषित करता हूं जिससे युक्त चमत्कारी, तान्त्रिक व साधक, ध्यानी-योगी, ऋषि-महर्षि व सन्त-महात्मा आदि हैं । ये लोग चमत्कार व आध्यात्मिक शक्ति व योग-साधना के सदुपयोग रूप शान्ति व्यवस्था करने के बजाय उसका दुरुपयोग करते हुए अहंकारी व मिथ्या ज्ञानाभिमानी बन-बनाकर, जब मनमानी करने लगते हैं --इतना ही नहीं, 'मुझ परमात्मा' की जानकारी-परिचय-पहचान रूप 'तत्त्वज्ञान' का नाम ले-लेकर अपने को 'भगवान् व अवतारी' भी कहने लगते हैं, तब ''मैं'' स्वयं भू-मण्डल पर आता हूं और किसी शरीर विशेष को अधिग्रहीत कर सत्यज्ञान रूप यथार्थत-'तत्त्वज्ञान' रूप हुरूफमुकत्तआत (खुदाई इल्म) रूप नॉलेज (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) रूप सत्य धर्र्म की स्थापना करता हूं । वर्तमान में भी इसीलिए पुन: भू-मण्डल पर अवतरित होकर 'सदानन्द' वाली शरीर से कार्य कर रहा हूं । किन्तु<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>अवजानन्ति मां मूढा: मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'ऐसा होने पर सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मुझ परमेश्वर के परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा-परमेश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी महामाया से संसार के उध्दार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमात्मा-परमेश्वर को साधारण मनुष्य समझते हैं ।'<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>---(श्रीमद्भगवद् गीता 9/11)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>अत: यदि मेरी जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान रूप पूर्ण परिचय प्राप्त करना हो, तो 'सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्' वाली शरीर, जो सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस नाम से जानी जाती है, से शान्तिमय ढंग से विनम्र भगवद्-शरणागत भाव से 'तत्त्वज्ञान' व 'ज्ञान-दृष्टि' से प्राप्त किया जा सकता है। गीता अध्याय 13वें का 11, 12 एवं 13वें श्लोक वाला ही विराट दर्शन व मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध भी मिलता है । साथ ही साथ श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी का वास्तविक (तात्त्विक) साक्षात् दर्शन भी । गरुण-हनूमान-सेवरी-अर्जुन वाला ही और वैसा ही । इन लोगों के बारेमें जो सबकुछ पूरा करके आना था।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>-सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्दजी परमहंस वाली शरीर से<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>विश्व बन्धुत्त्व एवं सद्भावी एकता आन्दोलन अन्तर्गत 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>पूरे धरती पर है कोई ऐसा ध्यानी-ज्ञानी जो इस ध्यान-ज्ञान रूप यज्ञ के 'चुनौती' रूप घोडे क़ो रोक-पकड़ (चुनौती स्वीकार) कर 'सत्यता' के निर्णय हेतु वार्ता कर सके ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>उपर्युक्त चुनौती की एक-एक प्रति प्रत्येक पूर्वोक्त तथाकथित भगवानों एवं महात्मन् बन्धुओं को भेजी गयी । साथ ही उन लोगों के अनुयायिओं को भी दी जाती रही है जिससे कि अब भी लोग तैयार हो या उन लोगों के अनुयायीगण उन लोगों को तैयार करायें या नहीं तो हमारे 'तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान' को स्वीकार करें । यह कोई सामान्य बात नहीं; इसे ही 'ज्ञान क्रान्ति' कहते है । धर्मगुरुओं के लिए प्रस्तुत चुनौती उसी रूप में है जिस तरह प्राचीनकाल में चक्रवर्ती सम्राट द्वारा अवश्मेध यज्ञ के घोड़े का छोड़ा जाना होता था । राजाओं के बीच चक्रवर्ती सम्राट को जब कोई समकक्ष नहीं दिखाई देता था, तब वे अश्वमेध यज्ञ करते थे जिसमें एक घोड़ा छोड़ा जाता था । उस घोडे क़े ललाट पर यह लिखकर कि - 'सभी लोग मेरी अधीनता स्वीकार करें, जिन्हें स्वीकार न हो, युध्दके लिए तैयार हों'--वह घोड़ा छोड़ा जाता था । उसे सभी राजा लोग स्वीकार करते थे। जिसे अस्वीकार होता था, वह घोड़े को रोककर युध्द करता था और परास्त होने के बाद स्वीकार कर लेता था । ठीक उसी प्रकार यह चुनौती समस्त तथाकथित भगवानों एवं महात्माओं के पास वैसे ही छपवाकर भेजी जा रही है कि इस 'तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान' को सभी तथाकथित भगवान एवं सद्गुरु-महात्मा जी लोग स्वीकार करें अन्यथा जिनको इसे असत्य ठहराना हो, वे शान्तिमय एवं निष्कपट भाव से साक्षात्कार एवं परीक्षा लेने अथवा देने के लिए तैयार हो जायें । यदि इस बार कोई तैयार नहीं होगा, तो मान लिया जायेगा कि सभी ने इस 'तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान' को स्वीकार कर लिया है तथा सभी लोग 'सत्यमेव विजयते' रूपी 'सत्यज्ञान परिषद्' (वर्तमान नाम-'सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्') के इस सत्य ज्ञान-क्रान्ति रूपी झण्डे को भी स्वीकार कर लिये हैं । यह अहंकार नहीं है अपितु भगवत् कृपा और तत्त्वज्ञान का प्रभाव है । आप अहंकार मानें या जो भी माने, यह आप की बात है, मगर है यह भगवत् कृपा और तत्त्वज्ञान का प्रभाव ही । आप वार्ता करके जाँच करके अहंकार कह दें, तब समझा जाय ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364<br />\r\n </p>\r\n', '1656328277-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (19, 'To Nirankar Aur Nirankari', '<p><img alt=\"\" src=\"assest/images/Nirankari.jpg\" /></p>\r\n\r\n<p><strong>बाबा हरदेव सिंह</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>1. निरंकार और निरंकारी</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>निरंकारियों के निरंकार को ही लीजिये कि निरंकार माने क्या ? थोड़ा सा भी गौर किया जाय तो अवश्य ही समझ में आ जायेगा कि निरंकार माने एक प्रकार की नास्तिकता, क्योंकि बीच में खुला स्थान रखते हुए एक हथेली नीचे और दूसरी हथेली उपर करके दिखलाना कि लो देखो तो दोनों हथेली के बीच में क्या है ? खाली है- आकाश है- बस और क्या ? यही तो निराकार है । बस यही निरंकार भगवान है- यह न जल सकता है , न मर सकता है, न कट सकता है आदि आदि । दोनों हथेलियों के बीच में है तो यही जीव-जीवात्मा-आत्मा है और जब उन्मुक्त खुला आसमान है तो वही सर्वव्यापी निरंकार भगवान है । थोड़ा सा गौर तो करें कि वास्तव में क्या यह नास्तिकता ही नहीं है ? अब प्रेम से रहो, हिलमिल कर रहो, आपस में संगठित होकर एक-दूसरे के सेवा सहयोग से, शिष्टाचार से रहते हुए खूब प्रचार-प्रसार करो । बस यही धर्म है। अन्तत: क्या मिला निरंकारियों को ? कुछ नहीं !</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>मगर एक बात है कि इन्हें झूठ बोलने को भरपूर मिला है । वह क्या कि ये मान बैठे हैं कि हमें सब कुछ मिल गया है । भगवान् का दर्शन हो गया है, वह निरंकार ही तो है । जबकि मिलता कुछ नहीं भी नहीं । सच्चाई यह है कि ये सभी भगवान् के नाम पर घोर नास्तिक है, झूठे हैं और समाज में पारिवारिक मायाजाल में जकड़े रहने पर भी सभी ही अपने को निरंकार कहते हैं जो झूठ ही तो है ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>धर्म के अन्तर्गत अथवा खुदा-गॉड भगवान् के स्थान पर ऐसी उल-जलूल मिथ्या संस्थायें भी स्थित-स्थापित होकर अति तीव्रतर गति से नास्तिकता का प्रचार-प्रसार करते हुए जनमानस को खुदा-गॉड-भगवान् के नाम पर नास्तिकता में भरमा-भटकाकर नास्तिकता में ढकेलते हुए धर्म पिपासुओं--भगवद् जिज्ञासुओं--सत्यान्वेषियों को निराकर-निरंकार रूप नास्तिकता में भरमा-भटका कर भटका-लटका दिया जा रहा है ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>आश्चर्य ! ऐसे नास्तिकता प्रधान आडम्बरी-ढोंगी- पाखण्डी तथाकथित सद्गुरुजन पर तो है ही कि आखिर ये तथाकथित धर्मोपदेशक लोग इस प्रकार के मिथ्या प्रलाप से क्या हासिल करना चाहते हैं? इनकी मान्यता में खुदा-गॉड-भगवान निरंकार-निराकार यानी कुछ है ही नहीं तो इस निरंकार-निराकार- की मान्यता से वे क्या प्राप्त करना चाहते हैं ? अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु ये तथाकथित धर्मोपदेशक लोग धर्म प्रेमी-भगवद् जिज्ञासु-सत्यान्वेषी सज्जनों के धन और धरम दोनों के दोहन-शोषण के सिवाय और कुछ कर ही-दे क्या सकते हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं । नि:सन्देह ऐसे धर्मोंपदेशकों से किसी को भी क्या प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ! फिर ऐसों में चिपकना नादानी नहीं तो सत्यज्ञानी होना होगा क्या ?</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>आश्चर्य ! इन उपर्युक्त तथाकथित धर्मोपदेशकों पर तो है ही, इससे भी बड़ा और भारी आश्चर्य तो इनके शिष्य-अनुयायियों पर है कि इन लोगों को उनसे ( तथाकथित धर्मोपदेशकों से) कुछ भी न मिलने के बावजूद भी भरम-भटक फंस-चिपक-लटक कर उन्हीं की झूठी-झूठी महिमा गुणगान करने में मशगूल हैं--लगे बझे हैं । थोड़ा भी नहीं सोचते-समझते कि आखिर ऐसे झूठे नास्तिकता प्रधान ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी तथाकथित सद्गुरु- धर्मोंपदेशकों का विरोध बहिष्कार करने के बजाय झूठे गुणगान से इनसे क्या मिलने वाला है अर्थात् कुछ भी नहीं। नि:सन्देह कुछ भी नहीं । फिर ऐसा झूठा गुणगान क्यों करें ?</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>क्या अजीब आश्चर्य है कि जिसको खुदा-गॉड-भगवान तो खुदा-गॉड-भगवान् है, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर- सोल-स्पिरिट-ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि की तो कोई जानकारी है ही नहीं, जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं की भी लेशमात्र भी जानकारी नहीं है कि वास्तव में ये सब क्या हैं ? कैसे हैं ? कहां रहते हैं ? जानने-देखने को मिलते हैं कि नहीं और मिलता है तो कैसे-- आदि के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी न रहने के बावजूद भी ये निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी सद्गुरु बनने-कहलाने लगा है । अपने को धर्मोपदेशक कहने-कहलवाने में लगा है ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>अब आप ही जानें-समझें कि ऐसे नाजानकार नास्तिक जन भी धर्मोपदेशक बनकर धर्मोपदेश करने लेगेंगे तो धर्म की जनमानस में क्या स्थिति होगी । ये भी अपने प्रवचनों और किताबों में बोलने-लिखने लगे हैं कि यह ( हरदेव ) सत्य को जनाता-दिखाता है-- सत्य ज्ञान देता है-- अपने शिष्य-अनुयायियों को सत्य--भगवान को जनाता-दिखाता है । इतना ही नहीं अब ये अपने को अवतार बनने-कहलवाने में लगा है । ऐसे झूठे नास्तिक-मिथ्या महत्वाकांक्षी जन भी जब सद्गुरु अथवा धर्मेंपदेशक बन-बनाकर समाज में बढ़ने-फैलने लगेगें तो उस समाज ;शिष्य-अनुयायियोंध्द का ह्रास-पतन और विनाश नहीं होगा तो और क्या होगा ? बिल्कुल ही पतन और विनाश इन सभी का होना ही है। यदि यें लोग इनसे अपने को बचाते हुए वास्तव में सच्चे तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान को पाते हुए सच्चे भगवदवतार को अपने को नहीं जुड़ जाते ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>नि:सन्देह ये उपर्युक्त कथन किसी निन्दा आलोचना के अन्तर्गत नहीं, अपितु मात्र सत्य ही नहीं बल्कि परमसत्य विधान पर आधारित और सद्ग्रन्थीय तथा प्रायौगिकता के प्रमाण से प्रमाणित है । यह हम महसूस कर रहे हैं कि गुरुत्त्व में आस्था-निष्ठा की मान्यता के चलते उनके शिष्यों-अनुयायियों को इसे पढ़कर थोड़ा झुझलाहट-दु:ख-तकलीफ अवश्य होगा मगर ईमान-सच्चाई से मुझसे मिलकर सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से जांच-परख करेंगे तो नि:सन्देह उपर्युक्त कथनों को अक्षरश: सत्य ही पायेंगे। बिलकुल ही सत्य ही पायेंगे। निरंकार और हरदेव के विषय में वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के पहले इनका निराकार-निरंकार 'तत्त्वज्ञान' के किस श्रेणी में आता है, यह जान लेना यहां पर आवश्यक लग रहा है ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>वास्तव में 'तत्त्वज्ञान' के विषय में जानकारियाँ आप सभी को मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस से प्राप्त होती रही है और विभिन्न अध्यायों के माध्यम से हो भी रही हैं। जैसा कि आप सभी को बताया गया है कि 'तत्त्वज्ञान' में चार श्रेणियां होती हैं । नीचे से ऊपर को क्रमश:</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>1. शिक्षा (Education)<br />\r\n2. स्वाध्याय (Self Realization)<br />\r\n3. योग-साधना अथवा अध्यात्म (Yoga or Spiritualization ) और<br />\r\n4. तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE)</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>क्रमश: नीचे से ऊपर को इन चार श्रेणियों में दूसरे श्रेणी वाला जो स्वाध्याय है, इसमें तीन अंग हैं-- (क) श्रवण (ख) विचार या मनन-चिन्तन और (ग) निदिध्यासन ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>तत्त्वज्ञान के उपर्युक्त चार श्रेणियों में से पहली श्रेणी जो शिक्षा है, यह पूर्णतया भौतिक या लौकिक है जिसके विषय में कमोवेश सारा समाज ही, खासकर सुशिक्षित समाज अच्छे प्रकार से परिचित है और तीसरा जो योग-साधना अथवा अध्यात्म है, को समाज का योगी-साधक अथवा आध्यात्मिक क्रिया वाले जानते हैं अथवा इससे परिचित हैं, मगर पहले और तीसरे के बीच वाला दूसरा जो स्वाध्याय है, की भी वास्तविक जानकारी चौथे तत्त्वज्ञान वाले तत्तवज्ञानदाता को ही स्पष्टत: होती है, पूरे ब्रम्हाण्ड में अन्यथा किसी को भी नहीं । इसीलिये दूसरा जो स्वाध्याय है, इसके तीन अंगों (श्रेणियों) में प्रथम स्थान 'श्रवण' को मिला । यानी स्वाध्याय की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिये तत्त्वज्ञानदाता तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से सर्वप्रथम स्वाध्याय अथवा जीव-रूह-सेल्फ से सम्बन्धित अध्ययन विधान को अच्छी प्रकार से सुनना (श्रवण करना) और उसे दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार या मनन-चिन्तन' के माध्यम से भलीभांति समझना पड़ता है कि जीव-रूह-सेल्फ की जानकारी से सम्बन्धित जो कुछ भी हम सुन रहे हैं, वह सही ही है कि नहीं । तीसरा अंग (श्रेणी) जो 'निदिध्यासन' है, यह जीव-रूह-सेल्फ के स्पष्टत: दर्शन से सम्बन्धित स्थिति है जो प्रायौगिक (Practical) पध्दति के अन्तर्गत प्राप्त होता है । यह प्राप्ति भी एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से ही सम्भव है। भू-मण्डल पर क्या, पूरे ब्रम्हाण्ड में ही किसी अन्य से सम्भव नहीं ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>यह उपर्युक्त तीन अंगों (श्रेणियों) वाले 'स्वाध्याय' में पहला जो 'श्रवण' है यह सबसे महत्वपूर्ण अंग (श्रेणी) है। मगर भूत के स्वाध्यायियों को और वर्तमान वाले स्वाध्यायियों को भी देखने-जानने-समझने से ऐसा जानने-देखने-समझने में मिलता है कि पहले वाले 'श्रवण' के स्थान पर मनमाना शास्त्रों-ग्रन्थों के पठन-पाठन को रखकर दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार अथवा मनन-चिन्तन' को अपना सर्वेसर्वा (आधार-माध्यम और उद्देश्य) मान बैठते हैं और ऐसे ही अपने व्यवहार में भी स्वीकार करके रहने-चलने लगते हैं । ऐसा रहना-करना इनकी मजबूरी भी है क्योंकि भू-मण्डल पर पूर्णावतार के वगैर 'तत्त्वज्ञानदाता' तत्त्वदर्शी सत्पुरुष तो इनको मिलेगा नहीं तो फिर ये लोग स्वाध्याय के प्रथम अंग (श्रेणी) वाले जीव-रूह-सेल्फ की यथार्थत: जानकारी वाला सुनकर प्राप्त होने वाली समस्त जानकारियाँ यानी 'श्रवण' मिलेगा ही किससे और कैसे ? अर्थात् मिल ही नहीं सकता ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>इसलिये स्वाध्याय की श्रेणी में रहने-चलने के लक्षण वाले इधर 'श्रवण' से तो बंचित रह ही गये, उधर 'निदिध्यासन' भी इन्हें नहीं मिल सका क्योंकि निदिध्यासन भी एकमात्र पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता सत्पुरुष ही कर-करा सकता है । दुनिया के किसी भी ग्रन्थ में ही नहीं मिलेगा कि निदिध्यासन क्या है ? इसकी वास्तविक स्थिति और जानकारी क्या है ? केवल एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु ही इसके वास्तविक स्थिति को जानता-जनाता है, अन्यथा कोई भी नहीं! कोई भी नहीं !!</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>अत: 'श्रवण' और 'निदिध्यासन' अर्थात् जीव-रूह- सेल्फ-स्व-अहं की यथार्थत: जानकारी वाले 'श्रवण' और दर्शन प्राप्त कराने वाले विधान रूप 'निदिध्यासन' दोनों से तो यह स्वाध्यायी समाज बिल्कुल बंचित ही रह गया । यानी स्वाध्यायी समाज जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं के स्पष्टत: साक्षात् दर्शन से तो बंचित रह ही गया, यथार्थत: जानकारी से भी बंचित हो-रह गया। अब इन लोगों के पास रह क्या गया, मात्र 'विचार या मनन-चिन्तन'। इन सभी लोगों की सारी जानकारी और सारी पहुंच इसी मात्र 'विचार या मनन-चिन्तन' तक सिमटकर रह गयी । प्रायौगिकता (Practical) नाम की कोई चीज इन लोगों के पास होती ही नहीं । विचार या कल्पना के अन्तर्गत चाहे जितनी ये दौड़ लगा लें, चाहे जितनी उंची उड़ान भर लें, मगर सच्चाई (सत्य) से तो ये वास्तव में बहुत बहुत बहुत ही दूर-पीछे छूटे रहते हैं । फिर भी ये अपने को किसी ब्रम्हज्ञानी और तत्त्वज्ञानी से कम नहीं समझते क्योंकि मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्या अहंकार इनका सहज स्वभाव ही हो जाया करता है । यही इनकी सहज स्वाभाविक स्थिति होती है । इसी वर्ग में महाराष्ट्र के स्वाध्यायी आन्दोलन वाले पाण्डुरंग शास्त्री, गुजरात वाले आशाराम, मुरारी बापू, रामकिंकर उपाध्याय, रजनीश, समस्त महामण्डेश्वरगण, तथाकथित भागवत कथा-गीताकथा को ज्ञानयज्ञ कहकर प्रचार करने वाले कथावाचकगण, चिन्मय मिशन के चिन्मयानन्द (मृत)-- वर्तमान तेजोमयानन्द, पाण्डीचेरी वाले अरविन्द (मृत)-- वर्तमान में अरविन्द सोसाइटी, प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी वाले आदि-आदि सहित प्रस्तुत शीर्षक वाला निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी इसी वर्ग (श्रेणी) में आते हैं । इससे अलग अतिरिक्त कुछ भी नहीं ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>अजीब आश्चर्य की बात है ऐसे गुरुजनों के शिष्यों-अनुयायियों के प्रति कि इन शिष्य-अनुयायी गणों को मिलता तो कुछ नहीं, मगर अपने भाववश विचार- प्रवाह में बहकर विचार के अन्तर्गत जो कुछ भी बात-विचार तथाकथित गुरुजनों द्वारा इनके समक्ष रखा जाता है उसी को ये लोग जीव भी, ईश्वर भी, परमेश्वर भी, सत्य भी, सुनना भी, देखना भी, प्रैक्टिकल भी आदि-आदि सब कुछ मान बैठते हैं जबकि वास्तव में मिला होता कुछ भी नहीं और इसी मान्यता के आधार पर अपने तथाकथित गुरुजनों को भी अवतार मानने-घोषित करने-कराने और वैसा ही व्यवहार देने लगते हैं। बिलकुल अवतार का ही व्यवहार देने लगते हैं । क्या इससे भी बड़ा कोई और झूठ और आश्चर्य हो सकता है कि देखना तो देखना है, जानने को भी इन लोगों को जीव भी नहीं मिलता है, ईश्वर और परमेश्वर तो दूर रहा, फिर भी ये सब अपने को कुछ भी नहीं मिलने की स्थिति में होते-रहते हुये भी विचार-भाव में बहकर अपने को सब मिला हुआ मान बैठे रहते हैं । यह कितनी बड़ी बिडम्बना और कितना बड़ा आत्मघाती झूठ है । फिर भी वे सब इसको सत्य मानकर इसमें भरमें-भटके-चिपके-लटके हैं। यह इनकी अपने आप जीव के लिये कितनी बड़ी आत्मघाती स्थिति है, कहा नहीं जा सकता !</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>ये शिष्य-अनुयायीगण थोड़ा भी सोचने-जानने- समझने की कोशिश नहीं करते कि पूरे सत्ययुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर एक समय में एक ही पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता श्रीविष्णुजी महाराज थे । ऐसे ही पूरे त्रेतायुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर ही एक समय में पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता एकमेव एकमात्र श्रीराम जी थे । ठीक ऐसे ही पूरे द्वापरयुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर ही एक समय में पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता एकमेव एकमात्र केवल श्रीकृष्ण जी महाराज ही थे । मगर आजकल वर्तमान में मात्र निराकार-निरंकार समाज में ही अवतार सिंह ;मृतध्द भी अवतार, गुरुबचन सिंह (मृत) भी अवतार और वर्तमान में हरदेव सिंह भी अवतार और क्रमश: इनकी गद्दी पर जो जो बैठने वाले हैं, क्रमश: वे सभी अवतार हैं। यह अवतार की परिभाषा-जानकारी कहां से आ गयी ?</p>\r\n\r\n<p>किस ग्रन्थ में ऐसी मान्यता है ? इन शिष्य अनुयायियों को क्या इतना भी नहीं सोचना चाहिए ?</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस</p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364<br />\r\n </p>\r\n', '1656328986-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (20, 'To Arya Samaj', '<p><strong>ॐ - वेद-आर्य और आर्य समाज</strong></p>\r\n\r\n<p>आर्यसमाजियों को ही देखिए कि वेद को स्वीकार करते हैं-- ॐ को स्वीकार करते हैं-- यज्ञ-हवन नित्य करते हैं मगर एक दयानन्द को छोड़ कर सबकी निन्दा करना, सबका खण्डन करना इनका स्वभाव बन गया है। मण्डन का तो इनके यहाँ कोई महत्त्व महत्ता है ही नहीं जबकि खण्डन है तो मण्डन भी अवश्य ही होना चाहिए । वेद को ही भगवान मानेंगे और श्रीविष्णुजी-रामजी और श्रीकृष्णजी की घोर निन्दा-आलोचना करते हैं । रामायण-गीता- पुरण-बाइबिल-कुर्आन को तो ये सब बिल्कुल ही नहीं मानते हैं। अवतारवाद के तो ये सब घोर शत्रु हैं । ये घोर पाखण्डी व झगड़ालू भी होते हैं । ये जितने ही पाखण्डी होते हैं, उतने ही झगड़ालू भी, और मिथ्याहंकार के तो ये पुतला ही होते हैं । नि:संदेह सनातन धर्म के ये दीमक रूप कीट जैसे ही होते हैं, जो सनातन-धर्म रूप वृक्ष को ही खा जाना चाहते हैं । सनातन धर्म का मूल आधार पूर्णावतार (श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी) हैं उन्हीं के ये घोर आलोचक-निन्दक होते हैं । सुनना-समझना तो इनका अपमान है । न कोई साधना और न कोई ज्ञान, मात्र दम्भ और अभिमान ।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) को किसी की झूठी चाटुकारिता आती नहीं और सच बोलना अहंकार ही निन्दा करना है तो है! कहा क्या जाय ? किया क्या जाय ? निष्पक्ष भाव सत्य हेतु अनिवार्य होता है। निष्पक्ष भाव से जाँच करें । सच्चाई सामने आ ही जायेगी कि क्या ये बातें सत्य ही नहीं है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यहाँ पर मैं जिस किसी के सम्बन्ध में लिख रहा हूँ बिल्कुल ही भगवत् कृपा के आधार पर--तत्तवज्ञान के प्रभाव से, न कि अहंकार से । आप भी जरा सोचिए कि मुझे बोलने-लिखने की आवश्यकता ही क्या है, जबकि आप को सच्चाई को जनाना ही न हो । उपदेश देना-लिखना आदि सब कुछ तो ''सत्य'' को जानने के लिए ही है और सत्यता किसी के बारे (सम्बन्ध) में बोला-लिखा जाता है तो निन्दा-आलोचना कहलाता है-- अहंकार भासता है । मैं तो ऐसे किसी भी व्यक्ति की खोज-तलाश करता हूँ, जो मेरे द्वारा किसी के सम्बन्ध में कहे-लिखे हुए बात को गलत प्रमाणित कर दे । 26 वर्ष में अब तक एक नहीं मिला । फिर मुझे निन्दक-आलोचक-अहंकारी क्यों मान लिया जाता है ? एक बार मिलकर (मुझसे भी ) सच्चाई की जानकारी क्यों नहीं कर ली जाती है ? फिर मैं जैसा लगूँ वैसा कहा जाय। यही सत्य होगा। मैं आपका भला-कल्याण चाहूँ-करूँ और आप सब मुझे निन्दक आलोचक कहें । क्या यह उचित है, सही है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>भगवत् कृपा विशेष से, तत्त्वज्ञान के प्रभाव से, न कि अहंकार से मुझे जैसा दिखलायी देता है, मैं ठीक वैसा ही कहने का प्रयास करता हूँ। वैसा ही लिखता भी हूँ-- यह सत्य है । जितने भी ऋषि-महर्षि -ब्रम्हर्षि-यति- योगी- सिध्द-आलिम-औलिया-पीर- पैगम्बर- प्राफेट्स- स्वाधयायी-विचारक- चिन्तक-आध्यात्मिक-साधक योगी-सन्त-महात्मा- तीर्थंकर-समस्त वर्ग सम्प्रदाय के अगुआ-प्रमुख (गुरु-सद्गुरु) यदि मुझे गलत अथवा आधे-अधाूरे ही दिखलाई दे रहे हों जिसका सही-समुचित प्रमाण भी उन्हीं के उपदेश और उन्हीं के सद्ग्रन्थ-किताब से ही स्पष्टत: मिल रहा हो जिसे मैं जनाता-दिखाता भी हूँ तो इस पर मैं क्या कहूँ ? क्या लिखूँ ? हाँ, उन्हीं के उपदेश और उन्हीं के मूलग्रन्थ से मेरी बातों का स्पष्टत: और पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, तब मैं अपने को ही अहंकारी- अभिमानी मान लेता । इतना ही नहीं, मुझे श्री विष्णु जी-श्री राम जी और श्रीकृष्ण जी गलत अथवा आधो-अधूरे क्यों नहीं दिखलायी देते हैं ? जबकि मैं न तो किसी के प्रति दुर्भावित हूँ और न तो किसी का भी अन्धाभक्त हूँ। मैं न तो किसी का निन्दक हूँ और न तो बन्दक (बन्दना करने वाला) हूँ । हाँ ! खुदा-गॉड-भगवान के कृपा विशेष और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से ही जो कुछ भी कह रहा हूँ । नि:सन्देह ही इसमें हमारा कुछ भी नहीं। शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर यथार्थत: ये चार हैं, मुझसे जानें-देखें-परखें-पहचानें और हर प्रकार से सत्य होने पर ही सही, मगर 'सत्य' को अवश्य स्वीकार करें क्योंकि अन्तत: इसी में ही परम कल्याण है । निश्चित ही इसी में परम कल्याण है, अन्यत्र कहीं भी नहीं।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<table border=\"1\" style=\"width:100%\">\r\n <tbody>\r\n <tr>\r\n <td>शरीर</td>\r\n <td>जीव</td>\r\n <td>आत्मा</td>\r\n <td>परमात्मा</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>शरीर</td>\r\n <td>जीव</td>\r\n <td>ईश्वर</td>\r\n <td>परमेश्वर</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>शरीर</td>\r\n <td>जीव</td>\r\n <td>ब्रम्ह</td>\r\n <td>परमब्रम्ह</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>शरीर</td>\r\n <td>जीव</td>\r\n <td>शिव-शक्ति</td>\r\n <td>भगवान्</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>जिस्म</td>\r\n <td>रूह</td>\r\n <td>नूर</td>\r\n <td>अल्लाहतआला</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>बॉडी</td>\r\n <td>सेल्फ</td>\r\n <td>सोल</td>\r\n <td>गॉड</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>स्थूलशरीर</td>\r\n <td>सूक्ष्म शरीर</td>\r\n <td>कारण शरीर</td>\r\n <td>महा(परम)कारण शरीर</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>शिक्षा</td>\r\n <td>स्वाध्याय</td>\r\n <td>अध्यात्म(योग)</td>\r\n <td>तत्त्वज्ञान</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>एजुकेशन</td>\r\n <td>सेल्फ रियलाइजेशन</td>\r\n <td>स्पिरीचुअलाइजेशन</td>\r\n <td>नॉलेज</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>स्थूल दृष्टि</td>\r\n <td>सूक्ष्म दृष्टि</td>\r\n <td>दिव्य दृष्टि</td>\r\n <td>ज्ञान दृष्टि</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>नर्क-स्वर्ग</td>\r\n <td>स्वर्ग-नर्क</td>\r\n <td>शिव (ब्रम्ह) लोक</td>\r\n <td>परमधाम-अमरलोक</td>\r\n </tr>\r\n </tbody>\r\n</table>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>वास्तव में यथार्थत: ये चार हैं । इन चारों को दिखलाने और मुक्ति-अमरता देने हेतु भगवान लेते अवतार हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>सतयुग में श्रीविष्णु जी, त्रेतायुग में श्रीराम जी, द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी और वर्तमान कलियुग में सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के सिवाय (उपर्युक्त) चारों को पूर्णतया पृथक्-पृथक् बात-चीत सहित-विराट भगवान् सहित साक्षात् दर्शन व परिचय-पहचान कराने वाला चारों युगों में ही कोई दूसरा हुआ ही नहीं और है भी नहीं । चार तो चार हैं, उपर्युक्त चारों में पृथक्-पृथक् अन्तर सहित पूरे भू-मण्डल पर ही किसी को भी तीन की भी यथार्थत: स्पष्ट एवं सुनिश्चित जानकारी-दर्शन नहीं। दुनिया में किसी की जानकारी में यदि कोई है तो सत्प्रमाणों सहित दिखला दे। मैं चुनौती हारकर उसके प्रति समर्पित-शरणागत हो जाऊँगा । मेरे यहाँ भी समर्पण-शरणागत करने-होने पर उपर्युक्त चारों ही उपर्युक्त प्रकार से प्राप्त होता है-- होगा भी। कोई प्राप्त कर जाँच-परख कर सकता है। सत्प्रमाणीय आधार पर खुली छूट है । साँच को ऑंच क्या ? आप आकर-मिलकर जाँच क्यों नहीं कर लेते ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यह उस भगवान् का ज्ञान है जिसके सम्बन्ध में न तो देवी-देवता ही जानते हैं और न तो महर्षिगण ही जानते है । सृष्टि में अन्य किसी की बात छोड़िये, सृष्टि रचयिता ब्रम्हा, देवराज इन्द्र और सृष्टिके संहारक शंकर भी जिसके स्तुति बन्दना भी लेशमात्र भी नहीं जानते तो और कौन है जो उस सर्व के जाननहार को उसके कृपा दृष्टिरूप तत्त्वज्ञान के वगैर उसे जान ले और ज्ञानदृष्टि के वगैर स्पष्टत: एवं सुनिश्चिततापूर्वक समस्त वर्ग-सम्प्रदायों के सद्ग्रन्थों से प्रमाणित रूप में बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन-दीदार कर ले (रामचरित मानस से गीता 10/2, भा0म0पु012/12/66, ऋग्वेद 1/164/38) । तत्त्वज्ञान भी केवल वही ही दे सकता है, दूसरा कोई भी नहीं। पूरे भू-मण्डल पर ही दूसरा कोई भी नहीं । एकमेव एकमात्र खुदा-गॉड-भगवान ही । उनके सिवाय अन्य कोई भी नहीं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364<br />\r\n </p>\r\n', '1656329925-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (21, 'To Osho Aur Rajneesh', '<p><strong>3. ओशो और रजनीश</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>आइए ! यहां पर दो चार शब्द, शारांश रूप में रजनीश के विषय में भी जाना-देखा जाय । विस्तार से तो इन सब पर आगे चलकर इसी पुष्पिका में अथवा आवश्यकता महसूस हुई तो अगली पुष्पिका में विवेचन-व्याख्या सत्प्रमाणों सहित जानने-देखने को मिलेगा । तब तक यहां पर मूल बातों को शरांशत: जाना-देखा जाय तत्पश्चात् जो ''सच'' लगे-- महशूस हो, उसे स्वीकार कर अपने जीवन को सतपथ का सच्चा पथिक के रूप में ढाल दिया जाय । अपने को किसी भी गुरु-सद्गुरु के प्रति भाव-प्रवाह में अन्धभक्त बनकर न बहा दिया जाय । अपने मानव जीवन को खुदा-गॉड-भगवान रूप 'सत्य' से जोड़ते हुये भगवद् शरणागत रूप सतपथ पर रखते-रहते हुये सार्थक-सफल बनाया जाय ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश एक प्रतिभावान दार्शनिक थे । इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वह एक धर्मज्ञ-धर्मात्मा-महात्मा थे । इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि वह सर्वज्ञ थे-किसी भी विषय पर बोल सकते थे । इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि हर विषय पर उनकी बातें सही ही हों । नि:सन्देह सच्चाई यह है कि धर्म के विषय में वे बिल्कुल ही अनजान थे । धर्म का अ-आ-इ-ई भी नहीं जानते थे क्योंकि दर्शन शास्त्र पढ़कर दार्शानिक बना जा सकता है-- आध्यात्मिक गुरु और तात्त्विक सद्गुरु बनना तो दूर रहा, साधक ही नहीं कहला सकते-- ज्ञानी कहलाना तो और ही आगे की बात हो गई । वे योगी-साधक आध्यात्मिक भी नहीं थे ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>शिक्षा के क्षेत्र में दार्शनिक होना-बहुत बड़ा जानकार-विद्वान-सर्वोच्च होना है । सच्चाई यह है कि स्वाध्याय के समक्ष शिक्षा और स्वाध्यायी के समक्ष दार्शनिक ऊपर जाते समय नीचे गिरा हुआ एक पतित सांसारिक व्यक्ति है। अध्यात्म जहां से वास्तव में 'धर्म' में प्रवेश मिलता है और तब साधक कहलाने का अवसर प्राप्त होता है - अध्यात्मवेत्ता और तत्त्ववेत्ता तो बहुत-बहुत-बहुत दूर की बात है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश एक प्रतिभावान दार्शनिक थे । वे स्वाध्यायी भी नहीं थे-आध्यात्मिक और तात्त्विक तो थे ही नहीं । वे स्वाध्यायी भी नहीं थे, अध्यात्म तो बहुत ही ऊपर का पद है, तत्त्ववेत्ता होने की तो कल्पना ही नहीं किया जा सकता है । उसने अपने प्रतिभा का दुरुपयोग किया । घोर महत्त्वाकांक्षी था, मिथ्यामहत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में धर्म और गुरु परम्परा का नाश करना चाहा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>वर्तमान में ऐसा देखा जा रहा है कि कोई प्रतिभावान जन किसी क्षेत्र विशेष में जब कोई विशिष्टता प्राप्त कर लेता है तो अन्य क्षेत्र के लोग भी उसके पीछे-पीछे अन्धी दौड़ लगाना शुरु कर देते हैं । इधर समाज का इतना नैतिक पतन--इतना नैतिक पतन हो चुका है कि सम्मान के लोभ में प्रतिभावान महानुभाव को भी संकोच लगता है--शर्म आती है-- यह कहने में कि वह विषय क्षेत्र मेरा नहीं है( उस विषय में मुझे स्पष्ट जानकारी नहीं है । मैं उस विषय पर भाषण-प्रवचन नहीं कर सकता हूं । उदाहरणार्थ इतिहास में कोई विशिष्टता हासिल किया व्यक्ति भूगोल के सेमिनार (सभा) में भाषण देने लगे। अर्थशास्त्र में कोई विशिष्टता प्राप्त कर लिए तो भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के सेमिनार (सभा) को सम्बोधित करने लगे । ऐसा नहीं होना चाहिये, ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए । इस परमपरा के अन्तर्गत रजनीश भी चल दिये। विशिष्टता प्राप्त किए दर्शनशास्त्र में, प्रवचन करने लगे 'धर्म और गुरु' पर । भगवत्कृपा से मिली हुई प्रतिभा का घोर दुरुपयोग किया था। धर्म और गुरु का खण्डन करके या सेक्स को आगे करके देश क्या दुनियां के युवाओं को भी एक तरह की नास्तिकता और कामुकता का शिकार बना दिया । आकर्षक शीर्षकों में उनकी किताबें आज-कल भी समाज में धर्म जैसे पवित्रतम् विधान में जहर घोलकर युवाओं को धर्म के प्रतिकूल ले जाने में लगी हैं। नि:सन्देह रजनीश 'धर्म और गुरु' के लिए तो एक घोर कलंक ही था ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>क्या अजीब आश्चर्य है कि जिसको खुदा-गॉड-भगवान तो खुदा-गॉड-भगवान् है, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर- सोल-स्पिरिट-ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि की तो कोई जानकारी है ही नहीं, जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं की भी लेशमात्र भी जानकारी नहीं है कि वास्तव में ये सब क्या हैं ? कैसे हैं ? कहां रहते हैं ? जानने-देखने को मिलते हैं कि नहीं और मिलता है तो कैसे-- आदि के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी न रहने के बावजूद भी ये निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी सद्गुरु बनने-कहलाने लगा है । अपने को धर्मोपदेशक कहने-कहलवाने में लगा है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश और उनका प्रेम योग पर सदानन्द 'मत' देखें</p>\r\n\r\n<p>श्री रजनीश के अनुयायीगण से सद्भावना मूलक मेरा साग्रह अनुरोध रहेगा कि आप सभी श्री रजनीश से जो कुछ भी जाने-समझे हैं, वह सच्चाई और वास्तविक स्थिति के प्रति नाजानकारी एवं नासमझदारीवश श्री रजनीश के मिथ्या महत्तवाकांक्षा के शिकार होकर आप सभी धर्म के प्रतिकूल भरम के शिकार हो चुके हैं। मैं किसी दुर्भावना के अन्तर्गत यह नहीं कह-लिख रहा हूं। आप सभी तो भाव और प्रेम को बड़ा महत्व देते हैं । हम चाहेंगे कि उस भाव और प्रेम को 'सत्य' से जोड़कर सद्भाव और सत्प्रेम के अन्तर्गत मुझसे मिल-बैठकर, सत्यता और प्रेम को आधार बनाकर धर्म के वास्तविक सच्चे रूप को जानते-समझते, परख-पहचान करते हुये यदि मेरे साथ आप सभी को भी 'सत्य' ही दिखाई दे तो 'धम-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ और 'सत्य-धर्म संस्थापनार्थ' सेवा-सहयोग में मेरा सहभागीदार बनकर महत्वपूर्ण यश-कीर्ति सहित मोक्ष (मुक्ति-अमरता) का भागीदार बनें। आप-हम सभी का परमकत्तव्य है कि पूरे भू-मण्डल से ही असत्य-अधर्म को समाप्त कर उस पर सत्य-धर्म को स्थापित करने में मेरे बढ़ते हुये कदम को सत्यता के आधार पर नैतिकता एवं धर्मिकता के अन्तर्गत सेवा एवं सहयोग देकर पुन: कह रहा हूं कि महत्वपूर्ण यश-कीर्ति सहित मोक्ष (मुक्ति-अमरता) के भी भागीदार बनें ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>श्री रजनीश तो अब रहे नहीं, मगर आप अनुयायीगण से सद्भाव एवं सत्प्रेम के अन्तर्गत यह कहना-बताना चाहूंगा कि रजनीश के प्रवचन से और दीक्षा से आप सभी ने जो कुछ भी जाना-समझा है, वह आप सभी के पास तो है ही, एक बार मुझसे भी 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ स्थिति को जानने-समझने का बिल्कुल ही निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से सत्प्रयास करें क्योंकि मेरे यहां अग्रलिखित प्रकार की जानकारियां सुस्पष्टता एवं प्रामाणिकता के आधार पर उपलब्ध हैं जिसे आप सभी प्राप्त कर सकते हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>1. जड़ जगत् सहित शरीर और शिक्षा की उत्पत्ति-स्थिति-लय और कारण सहित(<br />\r\n2. जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं और स्वाध्याय की उत्पत्ति-स्थिति-लय और कारण सहित( पुन:<br />\r\n3. आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-दिव्य ज्योतिर्मय स: (शिव) और अध्यात्म की उत्पत्ति-स्थिति-लय और कारण की वास्तविकता सरहस्य पृथक्-पृथक् साक्षात् दर्शन सहित यथार्थत: जानकारी प्राप्त करते हुये परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान्-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम् रूप गॉड शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वबोध रूप एकत्तव बोध रूप मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध रूप साक्षात् दर्शन और यथार्थत: जानकारी सहित प्राप्त कर हर प्रकार के जांच-परख के पश्चात् ही सही मगर पूरे भू-मण्डल पर ही, हो सके तो असत्य-अधर्म विस्थापन और सत्य-धर्म संस्थापन में, बार-बार कहता हूँ कि सेवा-सहयोग का भागीदार बनकर महत्वपूर्ण यश-कीर्ति सहित मोक्ष का भी भागीदार बनें । यह सब आप सभी को प्रलोभन नहीं दिया जा रहा है अपितु आप सभी में भाव और प्रेम का जो स्थान है, उसके चलते परम हितेच्छु भाव में परम कल्याण हेतु सद्भावना मूलक सुझाव है । इसमें किसी भी प्रकार का दुर्भावना न समझकर सद्भाव एवं सत्प्रेम ही समझा जाये तो नि:संदेह कल्याणकर होगा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश का 'सम्भोग से समाधि की ओर' अर्थात् रजनीश का सूफी ध्यान क्रिया रजनीश के कामदेव अथवा वात्स्यायन ऋषि का वर्तमान में प्रतिनिधि होने का ही एकमात्र परिचायक है । रजनीश का कामोत्प्रेरक सूफी ध्यान-साधना काम एवं साधनात्मक दिव्यत्तव दोनों का संयुक्त रूप कामदेव का ही साक्षात् उपस्थित रूप है क्योंकि ध्यान रहित होते तो असुर कहलाते और केवल ध्यान समाधि वाला होते तो शिव ( मगर दोनों का संयुक्त रूप होना-रहना कामदेव होने-रहने का परिचायक है । आप सभी रजनीश के अनुयायी, रजनीश (कामदेव) से ऊपर उठकर भगवत् प्राप्त होकर भगवन्मय होने-रहने का सत्प्रयास करें । सर्वप्रथम अपने आप 'हम' को तत्पश्चात् ज्योतिर्मय आत्मा-ईश्वर (भ्रामक शिवोहं, पतनोन्मुखी सोऽहँं, उर्ध्वमुखी हँऽसो, वास्तविक ज्योतिर्मय स:) शिव को और अन्तत: परमात्मा-परमेश्वर ( परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम्-गॉड-भगवत्तत्त्वम् ) को बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन करते हुये मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध को प्राप्त कर ही लेना चाहिये । जिद्-हठ छोडें, परमप्रभु से नाता जोडें ज़िससे जीवन का चरम और परम लक्ष्य रूप जीव को मुक्ति-अमरता तो मिले ही, जीवन को सर्वोत्ताम यश-कीर्ति भी मिले ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश एक प्रतिभावान व्यक्ति तो थे ही सुशिक्षित और विद्वान भी थे, मगर उनकी वह प्रतिभा और विद्वता सही दिशा में जाने के बजाय मिथ्या महत्वाकांक्षा की पूर्ति में प्रवाहित होने लगी । उनके प्रतिभा और विद्वता का प्रवाह इतना तेज था कि वे उसे सन्तुलित नहीं कर पाये जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्हें कभी अपने को भगवान घोषित करना-कराना पड़ा तो कभी अपनी भगवत्ताा को नकार (अस्वीकार) कर बुध्द बनने और घोषित करने-कराने पर लगना पड़ा तो कभी अपने बुध्दत्व को भी नकार (अस्वीकार) कर अपने को ओशो बनने और घोषणा करने-कराने में लग गये । यदि वे जीवित रहते तो पता नहीं अपने को और क्या-क्या नकार (अस्वीकार) करते हुए और क्या-क्या बनते और घोषणा करते-कराते, कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि वे कोई तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान वाले तो थे नहीं कि एकीकृत और स्थिर भाव रहता । ये सब तो उनके मिथ्या महत्वाकांक्षा के प्रवाह का पड़ाव था जो जीवित रहते तो पता नहीं और कहां-कहां यह पड़ाव पड़ता ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश एक सुशिक्षित विद्वान-दार्शनिक अवश्य थे, मगर उनके शिष्यों-अनुयायियों को यह भली-भांति-- अच्छी प्रकार से जान-समझ लेना चाहिए कि सुशिक्षित विद्वान-दार्शनिक का अर्थ तत्त्वज्ञानी-भगवद्ज्ञानी- सत्यज्ञानी तो होता ही नहीं, योगी-आध्यात्मिक वाला ब्रम्हज्ञानी-आत्मज्ञानी भी नहीं होता । इतना ही नहीं जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं वाला विधान रूप स्वाध्यायी भी नहीं कहला सकता । यह तो संसार और शरीर- जिस्म-बॉडी के बीच और शरीर-जिस्म-बॉडी तक सीमित रहने वाला सुशिक्षित मात्र के अन्तर्गत ही होने-रहने वाला दर्शन शास्त्र और दार्शनिकता ही है । अर्थात् इसका अर्थ यह हुआ कि संसार ओर शरीर-जिस्म-बॉडी के बीच शरीर-जिस्म-बॉडी तक की जानकारी रूप शिक्षा के अन्तर्गत चाहे कोई कितना भी बड़ा और उच्च जानकारी-विद्वता वाला क्यों न हो, दार्शनिक-फिलास्फर ही क्यों न हो, उसे जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं की जानकारी भी नहीं हो पाती तो आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल- स्पिरिट-डिवाइन लाइट-लाइफ लाइट और परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान्-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप अलम्-गॉड शब्दरूप भगवान् को कैसे जान सकता है अर्थात् नहीं जान सकता । इसके बावजूद भी अपनी सुशिक्षा-भौतिक विद्वता के गरूर में कोई जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर के सम्बन्ध में प्रवचन (लेक्चर) देने लगे तो यह उसकी घोर मूर्खता है और जो कोई भी ऐसे घोर मूर्खों के सम्पर्क में आते हैं वे भी उस घोर मूर्खता के शिकार में फंसते जाते हैं । यही हाल रजनीश और उनके ओशो परिवार का है, ठीक यही हाल ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>रजनीश ने अपनी प्रतिभा और अपने दार्शनिकता रूप भौतिक विद्वता का घोर दुरुपयोग किया । गुरुत्व और धर्म के वास्तविक अस्तित्त्व-स्थिति को ही बदनाम-कलंकित और समाप्त करने तक की कुचेष्टा- कुप्रयास किया । 'सत्य सनातन धर्म' को किसी के बदनाम-कलंकित और समाप्त करने तक की कुचेष्टा-कुप्रयास करने के बावजूद भी 'सत्य सनातन धर्म' और सच्चा सद्गुरुत्व तो समाप्त होने की चीज है ही नहीं । यह तो भगवान्-भगवत्ता का अमरत्व से युक्त एक परमसत्य अस्तित्व वाला तत्त्वज्ञान-विधान है । कोई भी कितना भी हाथ-पांव चला ले-- चाहे कितना भी हाथ-पांव मार ले, इस वास्तविक 'सत्य सनातन धर्म' का अब तक न तो कहीं कुछ बिगड़ा है और न तो आगे कहीं कुछ बिगड़ेगा क्योंकि इसका संस्थापक और संरक्षक सीधे खुदा-गॉड-भगवान ही होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>जब भी कोई व्यक्ति, कोई संस्था-वर्ग-समाज 'धर्म' को हानि पहुंचाने में लगता है और अधर्म का उत्थान-विकास-प्रचार-प्रसार-फैलाव करने में जुड़ जाता है तो परमधाम-पैराडाइज-बिहिश्त-अमरलोक का वासी खुदा-गॉड-भगवान् अपने धाम को छोड़कर 'धर्म- धर्मात्मा- धरती' की रक्षा हेतु इस भू-मण्डल पर अवतरित होता है और अपने समर्पित-शरणागत भक्तों-सेवकों- प्रेमियों को भक्ति-सेवा-प्रेम प्रदान करते हुये दुष्ट-दुर्जनों का नाश-विनाश और 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' की रक्षा-व्यवस्था भी करता-करवाता है । इस बात को अच्छी प्रकार से जान-समझकर ओशो परिवार को अपने धर्म-द्रोही-आसुरी प्रचार-प्रसार-फैलाव को बन्द कर देना चाहिये । यदि प्रचार-प्रसार-फैलाव करना ही है तो 'सत्य-सनातन धर्म' जो सर्वोच्चता और सम्पूर्णता को अपने में समाहित किये हुये और सर्वोत्ताम मानव जीवन विधान रूप परमसत्य विधान है, का ही क्यों नहीं किया जाय !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>चाहे कोई रजनीश वाला ओशो परिवार का हो अथवा धर्म द्रोही (देव द्रोही) आसुरी सभ्यता-संस्कृति प्रचारक श्रीराम शर्मा वाला गायत्री परिवार-प्रज्ञा परिवार अथवा मिथ्या ज्ञानाभिमानी-मिथ्याहंकारी प्रजापिता ब्रम्हा कुमार-कुमारियों वाला व मिथ्याज्ञानाभिमानी-मिथ्याहंकारी आर्य समाजियों व ऐसे ही लक्षण वाले निराकार-निरंकार हरदेव वाले हों, चाहे पतनोन्मुखी (पतन और विनाश को जाने वाले) सोऽहँ वाले अथवा स्वाध्यायी आन्दोलन वाले पाण्डुरंग शास्त्री वाले हों अथवा मुरारी बापू, आशाराम व महामण्डलेश्वरों वाले हों अथवा जो कोई भी जिस किसी भी गुरु तथा तथाकथित सद्गुरु, तथाकथित धर्मोपदेशक वाले शिष्य और अनुयायी गण ही क्यों न हों, सभी से ही मेरा प्रेम-अपनत्व-सद्भाव भरा साग्रह अनुरोध है कि गुरु जी गण तथा तथाकथित धर्मोपदेशक गण तो अपने मिथ्या महत्वाकांक्षा और निकृष्ट स्वार्थ लोलुपता की पूर्ति में लगे हैं, मगर आप शिष्य-अनुयायीगण 'किस पूर्ति' में लगे हैं कि जिसके लिए इन आडम्बरी-ढोंगी-पाखण्डी- धूर्तबाज-छली-कपटी-धर्म द्रोही-आसुरी सभ्यता-संस्कृति वाले गुरुजनों और तथाकथित सद्गुरुजनों के पीछे लगे-बझे-सटे-चिपके हैं ? इनकी झूठी-झूठी महिमा गुणगान गा-गाकर और उसमें धर्म प्रेमी भगवद् जिज्ञासुओं को उसी मिथ्या ज्ञानाभिमान-मिथ्याहंकार और आसुरी सभ्यता- संस्कृति का भी शिकार बनाते हुए इन भोले-भाले धर्म प्रेमी भगवद् जिज्ञासुओं के धन और धर्म दोनों का दोहन-शोषण करने में लगे-लगाये हैं । आखिर इस कुकृत्य से आप सभी को मिलना-जुलना क्या है ? कुछ मिले-जुले ही तो क्या कुकृत्य ही किया जायेगा ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! नि:सन्देह गुरुओं में लगाव-चिपकाव के नाते मेरी ये उपर्युक्त सद्ग्रन्थीय प्रमाणों पर आधारित बातें थोड़े देर के लिये आप सभी को झकझोरे और थोड़ा-बहुत दु:ख-तकलीफ-कष्ट भी दें, मगर हर प्रकार से जांच-परख कर सच्चाई ऐसी ही हो तो कहा क्या जाय? आप लोग भी तो थोड़ा सोचिये-समझिये कि मैं इन लोगों की असलियत को जानते हुए भी आप सभी (शिष्य-अनुयायीगण) चाहे जिस किसी भी गुरु तथा तथाकथित सद्गुरु के ही क्यों न हों, आपके समक्ष इन लोगों की झूठी चाटुकारिता करते हुए झूठे गुणगान प्रस्तुत करूं तो क्या आप सभी बताइये कि आप सबके प्रति यह मेरा धोखा-धड़ी-कपट-छलावा नहीं होगा ? क्या मैं इसी धोखा-धड़ी-कपट-छलावा के लिए ही आप सबके बीच समाज में सच्चे धर्म-उपदेशक के रूप में घूम रहा हूं ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! ऐसा मुझसे सम्भव ही नहीं ! आप मुझे जो कहिये-- निन्दक कहिये, आलोचक कहिये-- गुरुजन और तथाकथित सद्गुरुजन को अपमानित करने वाला, गाली देने वाला कहिये-- जो-जो आपके भाव आवे, मुझको वो-वो कहिये, मगर मैं आप सबके समक्ष सत्य-धर्म संस्थापक और संरक्षक होने के नाते आप सबको आडम्बर-ढोंग- पाखण्ड-छल-कपट-धूर्तबाजी के शिकार होने से बचाते हुये खुदा-गॉड-भगवान् रूप परमसत्य से जुड़ने-जोड़ने वाला-- आप लोगों को सजग बनाना यानी भ्रम निद्रा से जगाने वाला अपने सत्य कर्तव्य का पालन करता ही रहूंगा। पुन: कह रहा हूं कि अपने सत्य कर्तव्य का पालन करता ही रहूंगा । पुन: तीसरे बार कह रहा हूं कि अपने ऐसे परम पवित्रतम् सत्कर्तव्य का पालन करता ही रहूंगा।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>आप सभी उपर्युक्त पैरा के तथ्यों से दु:ख-कष्ट मनाते हुए मुझे जो निन्दक-आलोचक कहने-कहलाने में लगे हैं, क्या इससे आपको तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान प्राप्त हो जायेगा ? क्या इससे आपको करोड़ों-करोड़ों जन्मों के पाप-कुकर्मों से मुक्ति का बोध प्राप्त हो जायेगा ? क्या इससे माया बन्धनों में बंधकर चौरासी लाख के चक्कर में करोड़ों बार होते रहने वाले जन्म-मृत्यु रूप दु:सह दु:ख यातनाओं से मुक्ति का बोध प्राप्त हो जायेगा ? क्या आपको दु:सह पीड़ा-यातनाओं को प्रत्येक मृत्यु के रूप में देने वाले यमराज से सदा-सर्वदा के लिये मुक्ति पाकर अमरत्त्व का बोध प्राप्त हो जायेगा? आपको<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>(1) संसार,<br />\r\n(2) शरीर-जिस्म-बॉडी,<br />\r\n(3) जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं,<br />\r\n(4) आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह- नूर-सोल-स्पिरिट (भ्रामक शिवोहं-पतनोन्मुखी सोऽहँ-उर्ध्वमुखी हँऽसो- यथार्थत: ज्योतिर्मय स:) जीवन ज्योति रूपी यीशु-ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव और<br />\r\n(5) परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम-गॉड शब्दरूप अद्वैत्तत्त्व बोध रूप एकत्त्वबोध की प्राप्ति रूप पांचों की पृथक्-पृथक् रूप में बात-चीत और साक्षात् दर्शन सहित सप्रमाण यथार्थत: जानकारी आपको क्या प्राप्त हो जायेगी ? पुन: शिक्षा (Education), स्वाध्याय (Self Realization), योग-साधना या अध्यात्म (Yoga or Spiritualization) और सत्यज्ञान रूप तत्तवज्ञान रूप भगवद् ज्ञान (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) --- इन चारों की पृथक्-पृथक् सम्पूर्णतया यथार्थत: जानकारी आपको प्राप्त हो जायेगी ? नहीं! नहीं !! कदापि नहीं!!! ऐसा हो ही नहीं सकता ! मुझे निन्दक-आलोचक कहते हैं तो कहते रहिये, मगर मैं नि:सन्देह परमसत्य के आधार पर कह रहा हूं कि मुझे निन्दक-आलोचक कहने से इन उपर्युक्त प्रश्नों का समाधान आपको उपलब्ध होने वाला नहीं है। ईमान-सच्चाई जांच-परख सहित मुझसे मिल कर 'तत्त्वज्ञान' को प्राप्त करने मात्र से ही उपर्युक्त सम्पूण्र् ा की सम्पूर्णतया उपलब्धि हो सकती है । मैं कहां कह रहा हूं कि बिना जानकारी और बात-चीत सहित पृथ्क्-पृथक् साक्षात् दर्शन पाये ही बिना जांच के ही मान लें । हां, सत्यता को अवश्य ही जान लें ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>वास्तव में यदि इन उपर्युक्त सभी प्रश्नों का ईमान-सच्चाई से सही समाधान आप सभी चाहते हैं तो मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) से कम से कम एक बार अपनत्व भरा शान्ति और प्रेम के माहौल में बिना भय-संकोच के सौहाद्र भाव से मिल-बैठ कर सच्चाई का जांच-परख ही क्यों न कर लिया जाय कि मैं निन्दक-आलोचक हूं अथवा ईमान-सच्चाई से परमसत्य का उद्धोषक और उसका ज्ञानदाता भी। आप सबके पास अपने गुरुजन तथा तथाकथित सद्गुरुजन से जो कुछ भी ध्यान अथवा तथाकथित तत्त्वज्ञान मिला हुआ है, वह तो आपके पास है ही और जो कुछ भी आपको जानकारियां-अनुभूतियां - दर्शन आदि-आदि हैं, वे सब तो आपके पास हैं ही । एकबार मुझसे मिलकर अपनी उपलब्धियों-प्राप्तियों का और मेरे तत्त्वज्ञान को जानकर क्यों नहीं तुलनात्मक जांच-परख कर-करा लिया जाय ? तब मैं आप सभी को जो जैसा निन्दक-आलोचक अथवा परमसत्य उद्धोषक- पूज्यनीय जैसा भी लगूं, वैसा ही आप सभी कहें । तब ही आप सभी का कथन सही और उचित होगा । बिना जाने-परखे मुझे निन्दक-आलोचक कहना आप अपने से ही तो पूछिये कि क्या यह उचित और सही है ? नि:सन्देह उत्तार मिलेगा 'नहीं' । जांचना-परखना कुछ कहने के लिये अनिवार्य होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>विशेष नोट :- सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों और आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे के समर्पण-शरणागत के आधार पर प्रायौगिक आधार पर भी । उपर्युक्त समस्त प्रश्नों में से किसी की भी उपलब्धि आप शिष्यों-अनुयायियों, चाहे आप जिस किसी भी धर्मोपदेशक के ही क्यों न हों, को प्राप्त नहीं है । समस्त प्रश्नों वाली उपलब्धि तो आप सभी से बहुत-बहुत-बहुत ही दूर है । यदि आपको लगता हो कि उपर्युक्त पैरा के प्रश्नों वाली उपलब्धियां आपको हैं तो नि:सन्देह मैं उस उपलब्धि को आध-अधूरा-गलत प्रमाणित करने की खुली चुनौती देता हूं । कोई भी हो, आकर एक बार जांच-परख तो कर ले । वास्तविकता का -- असलियत का पता अवश्य ही चल जायेगा। जांच-परख में विचार-चिन्तन क्यों ? आइये ! आपका सहर्ष स्वागत है । ईमान-सच्चाई से सत्प्रमाणों के आधार पर बिना भय-संकोच के 'सत्य' को आधार बनाकर जांच-परख कर-करा लिया जाय । नि:सन्देह आप सभी जांच कर्ताओं का यदि सद्भावी होंगे तो परम कल्याण हो ही जायेगा । सांच को आंच क्या ? सब भगवत् कृपा।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364</p>\r\n', '1656330046-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (22, 'To So_Han-Han_So', '<p><strong>4 . सतपाल और उनका सोऽहँ - ( सोऽहँ और सोऽहँ वाले)</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>सोऽहँ की साधना करने वालों को बतला दूँ कि सोऽहँ-परमात्मा तो है ही नहीं, विशुध्दत: आत्मा भी नहीं है । यहाँ तक कि यह कोई योग की क्रिया भी नहीं है, बल्कि सोऽहँ तो श्वाँस और नि:श्वाँस के मध्य सहज भाव से होते -रहने वाला आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी स्थिति है, जो बिना कुछ किए ही होते रहता है। यह आत्मा (ज्योतिर्मय स:) का जीव (सूक्ष्म शरीर अहम् मय) बिना किए ही अनजान जीवित प्राणियों में जीवनपर्यन्त सहज ही होते रहने वाली स्थिति मात्र ही है--योग की क्रिया भी नहीं है क्योंकि क्रिया तो वह है जो करने से हो । जो बिना किए ही सहज ही होती रहती हो, उसे क्रिया कैसे कहा जा सकता है ? और सोऽहँ का श्वाँस-नि:श्वाँस के मध्य होते रहने वाली आत्मा की जीवमय तत्पश्चात् इन्द्रियाँ (शरीरमय) होता हुआ परिवार संसारमय होते हुए पतनोन्मुखी यानी विनाश को जाते रहने वाली एक सहज स्थिति है । योग भी नहीं है तो उसे ही तत्त्वज्ञान कह देना-मान लेना तो अज्ञानता के अन्तर्गत घोर मिथ्याज्ञानाभिमान ही हो सकता है, 'तत्त्वज्ञान' की बात ही कहाँ ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>जब सब ही भगवान के अवतार हैं तो सद्गुरु कैसा ?</p>\r\n\r\n<p>सोऽहँ वाले बन्धुजनों से एक बात पूछनी है कि क्या ऐसा कोई भी जीवित शरीर है, जो सोऽहँ की न हो ? और जब सोऽहँ ही खुदा-गॉड-भगवान् है, तब तो सब के सब मनुष्य ही भगवान् के अवतार हैं, फिर तथाकथित गुरु जी-सद्गुरुजी ही क्यों ? भगवान् भी अज्ञानी जिज्ञासुओं वाला और 'ज्ञानी' गुरुजी-तथाकथित सद्गुरुजी वाला दो प्रकार का होता है क्या ? एक भगवान् अज्ञानी और दूसरा भगवान् ज्ञानी ? यह कितनी मूढ़ता और मिथ्याहंकारिता है घोर ! घोर !! घोर !!! घोर मूढ़ता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>जब पूर्व में एक ही एक तो अब सब ही ?</strong></p>\r\n\r\n<p>पूरे सत्ययुग में एकमात्र श्रीविष्णु जी ही, पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र केवल एक ही भगवान के अवतार थे, ठीक वैसे ही त्रेतायुग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक ही श्रीराम जी और पूरे द्वापर युग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक श्रीकृष्ण जी ही केवल भगवान के अवतार थे और आजकल-वर्तमान में सब ही मनुष्य ही सोऽहँ वाली शरीर होने के कारण भगवान् के अवतार हो गये ? कितनी हास्यास्पद बात है !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>सत्ययुग-त्रेता-द्वापरयुग में ऋर्षि-महर्षि, ब्रम्हर्षि आदि और नारद-व्यास- शंकर जी आदि देववर्ग भी जो पतनोन्मुखी सोऽहँ नहीं, बल्कि ऊर्ध्वमुखी हँऽसो वाले भी थे, वे जब भगवान् के अवतार मान्य व घोषित नहीं हुए। तो आज-कल पतनोन्मुखी सोऽहँ वाले भगवान् के अवतार हो जायेंगे ? यदि कोई भी गुरु जी एवं तथाकथित सद्गुरु जी गण सोऽहँ मात्र के आधार पर ही भगवान् के अवतार मान व घोषित कर रहे हों, तो थोड़ा भी तो सोचो कि क्या यह घोर मिथ्या और हास्यास्पद नहीं है ? बिल्कुल ही मिथ्या और हास्यास्पद ही है । सोऽहँ वाले चेला जी भी भगवान् और सोऽहँ वाले गुरु जी भी भगवान् जी ! अरे मूढ़ थोड़ा चेत ! थोड़ी भी तो चेत कि यह कितनी बड़ी मूर्खता है !!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>जीव और आत्मा (ईश्वर) का अवतार नहीं होता !</strong></p>\r\n\r\n<p>यहाँ पर मुख्य बात तो यह है कि अवतार -- जीव (रूह-सेल्फ) और आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य ज्योति-ज्योतिर्विन्दु रूप शिव) का नहीं होता है। संसार में सारे गृहस्थ शरीर स्तर के; सारे के सारे स्वाध्यायी जीव (रूह-सेल्फ) स्तर के; सारे के सारे योगी-साधक-आध्यात्मिक- अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मागण आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य-ज्योति-ज्योति विन्दु रूप शिव) स्तर के; और तत्त्वज्ञानी-तात्त्विक‌- तत्त्ववेत्ता परमतत्त्वम् स्तर के होते हैं । इन चारों स्तरों में क्रमश: पहले तीन स्तर वालों का अवतार नहीं होता है । एकमात्र केवल एक चौथे स्तर (परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप गॉड रूप खुदा-गॉड- भगवान् का ही अवतार होता है । यह अवतार ही सद्गुरु भी होता है । यह ही सत्य है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सोऽहँ वाले साधक भी नहीं, तो ज्ञानी कैसे ?</strong></p>\r\n\r\n<p>संसार में तत्त्वज्ञान एवं योग-अध्यात्म रहित जितने भी गैर साधक के शरीर हैं और जीवित हैं वे सबके सब सोऽहँ की ही शरीर तो हैं । सोऽहँ व शरीर वाले गैर साधक होते हैं --साधक भी नहीं । तो जो साधक नहीं है वह तो योगी-आध्यात्मिक ही नहीं, तत्त्वज्ञानी होने की बात ही कहाँ ? अत: सोऽहँ आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी श्वाँस-नि:श्वाँस के बीच होते रहने वाली योग (अध्यात्म) विहीन गैर साधक की यथार्थत: सहज स्थिति है। सोऽहँ आत्मा भी नहीं है तो परमात्मा होने की बात ही कहाँ ? अवतार तो एकमात्र एकमेव ''एक'' परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप गॉड रूप खुदा-गॉड-भगवान् का ही होता है, अन्य किसी का भी नहीं । सोऽहँ वालों ! थोड़ा भी तो अपने जीवन के मोल को समझो अन्यथा सोऽहँमय बना रहकर पतन होता हुआ विनाश को प्राप्त हो जायेंगे।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>आप मनमाना जबर्दस्ती जिद्द-हठ वश सोऽहँ को ही भगवान् और सोऽहँ वाले झूठे और पतन और विनाश को ले जाने वाले गुरु को ही अवतार मान लोगे तो इससे आप अपने को ही धोखा दोगे । आप ही परमतत्त्वम् रूप परमसत्य से बंचित होंगे। हम लोग तो परम हितेच्छु भाव में आप सबको बतला दे रहे हैं-- समझना-अपनाना-जीवन को सार्थक-सफल तो आप को बनाना-न-बनाना है । आप चेतें-सम्भलें और सत्य अपना लें । यह सुझाव नि:सन्देह आप के परम कल्याण हेतु है कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें। मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सोऽहँ तो मात्र अहंकार बढ़ाने वाला</strong></p>\r\n\r\n<p>आप सोऽहँ वाले बन्धुओं से एक बात पूछूँ कि क्या सोऽहँ-अहंकार को बढ़ाने और पतन और विनाशको ले जाने वाली सहज स्थिति मात्र ही नहीं है ? और है तो अपने लिये ऐसा क्यों करते हैं ? आप स्वयं देखें कि स: रूप आत्म शक्ति जब अहं रूप जीव को मिलेगी तो बढेग़ा 'अहंकार' ही तो। यह प्रश्न आप सब अपने आप से क्यों नहीं करते? आप में यदि अहंकार और मिथ्याभिमान नहीं बढ़ा है तो आप सभी के सोऽहँ और तथाकथित सोऽहँ क्रिया को बार-बार ही अहंकार को बढ़ाने और पतन-विनाश को ले जाने वाला चुनौती के साथ समर्पण-शरणागत करने-होने के शर्त पर कहा जा रहा है तो मेरे इस कथन-चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने को तैयार होते हुए मेरे समक्ष उपस्थित होकर जाँच-परख ही क्यों नहीं कर-करवा लेते। सच्चाई का -- वास्तविकता का सही-सही पता चल जाता कि सोऽहँ क्या है ? सोऽहँ जीव है कि आत्मा है कि परमात्मा है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सोऽहँ जीव एंव आत्मा और परमात्मा तीनों में से कौन ?</strong></p>\r\n\r\n<p>सोऽहँ वाले गुरुओं को तो यह भी पता नहीं है कि सोऽहँ का 'सो' कहाँ से आकर श्वाँस के माध्यम से प्रवेश करता है और 'हँ' नि:श्वाँस के माध्यम से कहाँ को जाता है। यह भी बिल्कुल ही सच है कि उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि सोऽहँ दो का संयुक्त नाम है या एक ही का या तीन का नाम है? यदि वे दो कहते हैं तो फिर सोऽहँ माने आत्मा कैसा जबकि आत्मा तो एक ही है । यदि एक ही आत्मा का नाम मानते हैं, तो जीव और परमात्मा का नाम क्या है ? सोऽहँ ही परमात्मा है तो जीव और आत्मा का नाम क्या है? धारती का कोई भी आध्यात्मिक गुरु यह रहस्य नहीं जानता कि इसकी वास्तविकता क्या है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>अन्तत: आप की चाहत क्या है</strong></p>\r\n\r\n<p>अन्तत: अब निर्णय आप पर है कि आप सोऽहँ साधना से अपने अहंकार को बलवान बनाते हुए पतन को जाते हुए विनाश को जाना चाहते है, अथवा मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) से तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान प्राप्त करके भगवद् भक्ति-सेवा में रहते-चलते हुये पूर्ति-कीर्ति-मुक्ति तीनों को अथवा सर्वोच्चता-यश-कीर्ति और पूर्ति सहित मोक्ष पाना चाहते हैं<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आध्यात्मिक गुरु-सद्गुरु को तो सोऽहँ का भी सही-सही पता ही नहीं !</strong></p>\r\n\r\n<p>सन्त ज्ञानेश्वर का यह चुनौती भरा कथन है कि पूरे भू-मण्डल पर ही एक भी कोई आध्यात्मिक गुरु तथाकथित सद्गुरुजी यह स्पष्टत: नहीं जानते कि सोऽहँ वास्तव में क्या है ? कहाँ से और कैसे उत्पन्न और संचालित-नियन्त्रित होता रहता है ? अथवा सोऽहँ वास्तव में 'जीव' है कि आत्मा-ईश्वर है कि परमात्मा-परमेश्वर है या इससे भी कुछ भिन्न है? जब हमे साधना ही करना है तो पतन-विनाश वाला ही क्यों करें उत्थान-कल्याण वाला क्यों नहीं करें ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>जाँच करने-करवाने हेतु कोई तो चुनौती स्वीकारें</strong></p>\r\n\r\n<p>इस उपर्युक्त चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति सन्त ज्ञानेश्वर अपने सकल भक्त-सेवक-शिष्य समाज व समस्त आश्रमों सहित गलत प्रमाणितकर्ता के प्रति समर्पित-शरणागत हो जायेंगे मगर सद्ग्रन्थीय व प्रायौगिक आधार पर भी गलत प्रमाणित के प्रयासकर्ता को भी गलत प्रमाणित कर सकने पर भगवद् सेवार्थ रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती रक्षार्थ समर्पित-शरणागत-अपना सर्वस्व ही समर्पित-शरणागत करना-होना-रहना ही पडेग़ा । जब भक्ति-सेवा पूजा-आराधना करना ही है तो पतन-विनाश और आध-अधूरे का क्यों करें ? पूरा-पूरा वाले का क्यों नहीं ? सब भगवत् कृपा<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>तब योग-साधना की आवश्यकता ही क्यों ?</strong></p>\r\n\r\n<p>आप समस्त सोऽहँ-साधना वाले किसी भी गुरुजन अथवा उनके शिष्यजन से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस को एक बात पूछनी है जो आप लोगों पर ही है। क्या इसका उत्तार देने का कष्ट करेंगे ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐसा भी अज्ञानी और साधनाहीन की भी कोई जीवित शरीर है जो सोऽहँ की न हो ? जो भी जीवित शरीर है, वह सोऽहँ की ही तो है । फिर साधाना की आवश्यकता क्यों ? सोऽहँ मात्र ही जब भगवान् है और सभी जीवित प्राणी सोऽहँ वाला ही है, तब तो सभी ही भगवान् हुये ! क्या भगवान् जब जो स्वयं सोऽहँ ही है, को भी सोऽहँ की साधना की जरूरत है ? गुरुजी भी सोऽहँ की शरीर और चेला जी भी सोऽहँ की शरीर ! यानी गुरु जी सोऽहँ और चेला जी भी सोऽहँ! यानी चेला भगवान् जी गुरु भगवान् जी की पूजा-पाठ करें ! यानी चेला भगवान् जी अपना धन-सम्पदा अपने पत्नि-लड़का-लड़की भगवान् जी लोगों से ले करके गुरु भगवान् जी को सौंप दे! ऐसी भक्ति, ऐसी सेवा, ऐसी पूजा-आराधना और ऐसे भगवानजन नाजानकारों नासमझदारों के नहीं तो भगवद् भक्तजन के हो सकते हैं क्या ? इस पर नाराजगी हो रही हो तब तो यही कहना होगा कि मतिभ्रष्टों के नहीं तो क्या सही भगवद्जन के हो सकते हैं ? थोड़ा गौर तो करें और सच्चाई समझने की कोशिश तो करें। क्या ऐसे ही भगवान जी उध्दव के नहीं थे ? जिसे गोपियों के माध्यम से त्याग करके अफसोस-प्रायश्चित के साथ समर्पण-शरणागत कर-हो करके श्री कृष्ण जी से 'ज्ञान' प्राप्त करना पड़ा ? क्या उध्दव की तरह से आप लोगों को भी सोचना-समझना और सम्भलना नहीं चाहिये ? नाजानकारी और नासमझदारी से उबर करके अध्यात्म से भी ऊपर वाले इस सम्पूर्ण वाले 'तत्त्वज्ञान' के माध्यम से भगवत् प्राप्त होकर भगवद् शरणागत हो-रहकर अपने जीवन को सार्थक-सफल नहीं बना लेना चाहिये ? अवश्य ही बना लेना चाहिये !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>अन्तत: उपसंहार रूप में एक बात बताऊँ कि जो नहीं करता है, वह तो नहीं ही करता है मगर जो पूजा-आराधना-भक्ति-सेवा करना चाहता है, करता भी है, वह आध-अधूरे-झूठे का क्यों ? जब करना ही है तो पूर्ण-सम्पूर्ण-परमसत्य का ही क्यों नहीं ? 'अहँ ब्रम्हास्मि' वाला 'जीव' वाला और सोऽहँ-हँऽसो-शिव ज्योति आत्मा वाला मात्र ही क्यों ? परमात्मा-परमेश्वर-तत्तवज्ञान वाला क्यों नहीं?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>सम्पूर्ण और परमसत्य लक्षण वाला परमेश्वर मानने का विषय-वस्तु नहीं होता है अपितु बात-चीत सहित साक्षात् देखते हुये जानने-देखने का विषय होता है । आप मुझसे स्पष्टत: बात-चीत सहित जान-देख-परख-पहचान कर सकते है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>क्या प्राचीन गुरुओं ने शिष्यों को भगवत् प्राप्ति और मोक्ष से बंचित नहीं करा दिये थे ?</p>\r\n\r\n<p>फिर आप अपने को सोचिए<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>एक बात सोचिये तो सही ! सत्ययुग-त्रेता-द्वापर में भी हजारों-हजारों गुरुओं ने अपने शिष्यों के बीच अपने को भगवान् की मान्यता देते-दिलाते हुये अपने में ही भरमाये-भटकाये-लटकाये रखते हुये परमब्रम्ह-परमेश्वर-खुदा- गॉड-भगवान् के पूर्णावतार श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी महाराज के भगवत्ताा के वास्तविक प्राप्ति से क्या बंचित नहीं कर-करा दिये ? क्या उन शिष्यों का भक्ति-सेवा के अन्तर्गत कहीं कोई अस्तित्तव-महत्तव है ? कुछ नहीं ! नामों-निशान तक नहीं! क्या उन सभी लोगों (तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों) का सर्वनाश नहीं हो गया? क्या वर्तमान में ऐसी ही बात आप सबको अपने पर नहीं सोचना चाहिये? अपने-अपने गुरुजी को ही भगवान् ही मान करके भटके-लटके रहेंगे और वर्तमान में अवतरित भगवत् सत्ताा का लाभ प्राप्त नहीं कर सकेंगे तो क्या आप भी उन्हीं तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों की तरह ही विनाश-सर्वनाश को प्राप्त नहीं हो जायेंगे ? चेतें-सम्भलें नहीं तो अवश्य ही हो जायेंगे<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>वास्तव में यदि इन उपर्युक्त सभी प्रश्नों का ईमान-सच्चाई से सही समाधान आप सभी चाहते हैं तो मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) से कम से कम एक बार अपनत्व भरा शान्ति और प्रेम के माहौल में बिना भय-संकोच के सौहाद्र भाव से मिल-बैठ कर सच्चाई का जांच-परख ही क्यों न कर लिया जाय कि मैं निन्दक-आलोचक हूं अथवा ईमान-सच्चाई से परमसत्य का उद्धोषक और उसका ज्ञानदाता भी। आप सबके पास अपने गुरुजन तथा तथाकथित सद्गुरुजन से जो कुछ भी ध्यान अथवा तथाकथित तत्त्वज्ञान मिला हुआ है, वह तो आपके पास है ही और जो कुछ भी आपको जानकारियां-अनुभूतियां - दर्शन आदि-आदि हैं, वे सब तो आपके पास हैं ही । एकबार मुझसे मिलकर अपनी उपलब्धियों-प्राप्तियों का और मेरे तत्त्वज्ञान को जानकर क्यों नहीं तुलनात्मक जांच-परख कर-करा लिया जाय ? तब मैं आप सभी को जो जैसा निन्दक-आलोचक अथवा परमसत्य उद्धोषक- पूज्यनीय जैसा भी लगूं, वैसा ही आप सभी कहें । तब ही आप सभी का कथन सही और उचित होगा । बिना जाने-परखे मुझे निन्दक-आलोचक कहना आप अपने से ही तो पूछिये कि क्या यह उचित और सही है ? नि:सन्देह उत्तार मिलेगा 'नहीं' । जांचना-परखना कुछ कहने के लिये अनिवार्य होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>चेते-सम्भलें, अनमोल अपने<br />\r\nमानव जीवन को व्यर्थ न गवाएँ !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>अन्त में एक वाक्य कहूँगा कि परमेश्वर के असीम कृपा से मानव जीवन रूप अनमोल रतन मिला है । इसे व्यर्थ ही न गवाँ दें । ईमान और सच्चाई से पूर्वोक्त बातों को ध्यान में रखते हुये चेतें-सम्भलें और अपने अनमोल रतन रूप जीवन को सफल-सार्थक बनावें । भगवत् कृपा से मेरी भी ऐसी ही आप के प्रति शुभ कामनायें हैं । न चेते, न सम्भलें तो इसमें भगवान क्या करें । अत: चेतें और सम्भले । जीवन जो वास्तव में अनमोल रत्न है, को सार्थक-सफल बनाएँ । सब भगवत् कृपा से । भक्ति-सेवा-पूजा गुरु मात्र की नहीं अपितु एकमेव खुदा-गॉड-भगवान् का ही करना चाहिए यह सही तत्तवज्ञानदाता सद्गुरु ही भगवान् होता है मगर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि गुरु ही भगवान् होता है । यह सही है कि भगवान् ही सद्गुरु होता है । क्या एक साथ ही हजारो-हजारों गुरु नहीं है ? भगवान् ही होता है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>किसी का भी नामो-निशान तक भी नहीं है</strong></p>\r\n\r\n<p>आप यह कह सकते हैं कि मैं अपने गुरुजी से सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरुजी ही भगवान् के अवतार हैं; अब मुझे कहीं किसी दूसरे की कोई जरूरत नहीं; मुझे जो मन्त्र-तन्त्र-नाम-जप-ध्यान-ज्ञान, जो कुछ भी मिला है, उससे मैं काफी सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरु जी मात्र ही सही हैं और सब लोग गलत हैं । तो क्या यह वाक्य सही नहीं है कि ''गुरु करें दस-पाँचा । जब तक मिले न साँचा॥'' क्या ऐसी ही मान्यता सत्ययुग-त्रेता-द्वापर के भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्री कृष्ण जी के अवतार बेला में उस समय के गुरुजनों के शिष्यों में नहीं था ? ऐसे ही था ! तभी तो वे लोग अपने तथाकथित गुरुजनों में भटके-लटके रहकर अपने अस्तित्तव और महत्तव दोनों का ही सर्वनाश करा लिये । भगवद् भक्त-सेवकों में नामों-निशान तक नहीं आ सका । किसी भी गुरुजन के किसी भी शिष्य का भगवद् भक्ति-सेवा के अन्तर्गत किसी भी प्रकार का कोई भी अस्तित्तव-महत्तव है ? कोई नामों-निशान है ? कोई नहीं ! देख लीजिये बशिष्ठ के शिष्यों का--याज्ञवल्वय के शिष्यों का--बाल्मीकि के शिष्यों का--व्यास के शिष्यों का, किसी का कोई अस्तित्तव है ? अठ्ठासी हजार शिष्यों के विश्वायतन चलाने वाले शौनक के शिष्यों में से कितने का नामों-निशान है ? कोई नहीं ! अरे भईया ! दस हजार शिष्यजन तो दुर्वासा जी के पीछे-पीछे घूमते रहे । उन शिष्यजनों में से कितने का अस्तित्तव महत्तव-नाम किसी को मालूम है ? अर्थात् किसी का भी नहीं ! थोड़ा इधर भी देख लीजिये । श्रीविष्णु जी से 'तत्तवज्ञान' पाने वाला मनुष्य भी नहीं, गरुण पक्षी; श्रीराम जी की भक्ति-सेवा करने वाला कौआ काक-भुषुण्डि हो गया । गिध्द जटायु, गिध्द सम्पाती, भालू जामवन्त और बानर हनुमान, राक्षस परिवार का विभीषण, अरे भईया पुल बाँधाने में सहायता करने वाली छोटी सी गिलहरी की सेवायें भी नहीं छिप सकीं।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इतना ही नहीं, अपने नानी के नानी का नाम अधिकतर लोगों को प्राय: किसी को भी पता नहीं रहता जबकि ''अधम से अधम, अधम अति नारी शेबरी'' का नाम हर श्रीराम जी को जानने वाले के जानकारी में है । क्या हुआ उन गुरुजनों के भक्ति-सेवा का ? कहीं कोई भक्ति-सेवा में उनका नामों-निशान है ? कहीं कुछ नहीं ! जबकि पूर्णावतार के भक्त-सेवकजनों का अमरकथा आप पढ़-सुन-जान रहे हैं । क्या यह सब सही ही नहीं है ? फिर वर्तमान के भगवान् के पूर्णावतार को छोड़कर पूर्वोक्त शिष्यजनों के तरह से ही अपने गुरुओं को ही भगवान् मान-मानकर भटके-लटके रहेंगे तो आप सबकी भी गति-दुगर्ति भी क्या वही नहीं होगी ? अरे भईया ! भगवान् वाला ही बनिये ! इसी में परम कल्याण है। यदि मोक्ष नहीं और भगवत् प्राप्ति नहीं, तो गुरु जी और दे ही क्या सकते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं ! फिर तो मोक्ष और भगवत् प्राप्ति के लिये आगे बढ़ें । सच्चाई को देखते हुए वगैर किसी सोच-फिकर के सबसे पहले आप जिज्ञासु भक्तजन मुझसे तत्तवज्ञान के माध्यम से भगवद् भक्ति-सेवा करते हुए जीव-आत्मा और परमात्मा तीनों को ही पृथक्-पृथक् प्राप्त करते हुए मुक्ति अमरता रूप मोक्ष का साक्षात् बोध प्राप्त करते हुए गीता वाला ही विराटपुरुष का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ होवें सब भगवत् कृपा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें ।<br />\r\nमुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥<br />\r\nजिद्द-हठ से मुक्ति नहीं, मुक्ति मिलती 'ज्ञान' से ।<br />\r\nमिथ्या गुरु छोड़ो भइया, सम्बन्ध जोड़ो भगवान से ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364</p>\r\n', '1656331045-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (23, 'To Prajapita Bramha Kumari', '<p><strong>5. शिव व लेखराज और प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>किसी को उपदेश देना एक पवित्र कार्य है । उसमें भी धर्मोंपदेश देना तो बहुत ही पवित्र कार्य है । समाज को ज्ञानमय-भगवन्मय उपदेश देना तो जीवन का उद्देश्यमूलक सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम और परम पवित्र कार्य है । किसी को भी किसी भी कार्य को करते समय कम से कम इतनी सावधानी तो अवश्य ही बरतनी चाहिए कि इस उपदेश या कार्य से किसी को भी किसी भी प्रकार की कोई क्षति या हानि न हो । इतनी जिम्मेदारी तो हर किसी उपदेशक या कार्यकर्ता को अपने ऊपर लेना ही चाहिए कि मेरे उपदेश या कार्य से किसी का भला-कल्याण हो या न हो मगर क्षति या हानि तो न ही हो । भला-कल्याण करना ही धर्मोपदेशक का एकमेव एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये--होना ही चाहिए । किसी भी विषय-वस्तु का उपदेशक बनने-होने के पहले सर्वप्रथम यह बात जान लेना अनिवार्यत: आवश्यक होता है कि उस विषय-वस्तु का परिपक्व सैध्दान्तिक-प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी स्पष्टत:-- परिपूर्णत: हो। धर्मोपदेशक के लिए तो यह और ही अनिवार्य होता है मगर आजकल ऐसा है नहीं । धर्मोपदेश जैसे पवित्रतम् विधान को भी आजकल धन उगाहने का एक धन्धा बना लिया गया है जिससे धर्म की मर्यादा भी क्षीण होने लगती है, होने लगी भी है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>धर्मोंपदेशक अथवा गुरु बनना--सद्गुरु बनना आज-कल एक शौक-धन्धा, बिना श्रम का मान-सम्मान सहित प्रचुर मात्रा में धन-जन को एकत्रित करना हो गया है । भले ही परमेश्वर और ईश्वर तो परमेश्वर और ईश्वर है, जीव की भी वास्तविक जानकारी न हो । अब आप सब स्वयं सोचें कि ऐसे गुरुजन सद्गुरुजन-धर्मोपदेशक बन्धुजन क्या धर्मोपदेश देंगे ? ऐसे धर्मोपदेशकों के धर्मोपदेश से कैसा दिशा निर्देश और मार्गदर्शन होगा ? समाज में इतना भ्रम फैलेगा कि हर कोई मंजिल के तरफ जाने के बजाय प्रतिकूल दिशा में जाने लगेगा, जिसका दुष्पिरिणाम यह होगा कि भगवान् और मोक्ष (मुक्ति-अमरता) के आकर्षण के बजाय हर कोई माया और भोग में आकर्षित होता हुआ मार्ग-भ्रष्ट हो ही जायेगा। समाज में भगवान् के प्रति आकर्षण के बजाय विकर्षण होने लगता है और भगवद् भक्ति-सेवा के बजाय मनमाना नाना प्रकार के विकृतियों का शिकार हो जाया करते हैं । वर्तमान में ऐसे ही होने भी लगा है। चारों तरफ देखें।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>आजकल के गुरुजनों की स्थिति बड़ी ही विचित्र हो गयी है । समाज कल्याण तो अपने मिथ्यामहत्तवाकांक्षा की पूर्ति के लिए एक प्रकार का मुखौटा मात्र बनकर रह गया हैं । मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारमय बना रहना और चाहे जिस किसी भी प्रकार से हो, धन-जन-आश्रम बढ़ाना मात्र ही धर्म रह गया है । दूसरे को उपदेश तो खूब दे रहे हैं मगर अपने पर थोड़ा भी लागू नहीं कर पा रहे हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐसे ही महात्मजनों में एक लेखराजजी और उनका समाज भी है जिन्होंने एक संस्था प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय संस्थापित किया। यह संस्था जितनी ही ढोंगी-पाखण्डी है, उतनी ही धूर्तबाज भी है । जितनी ही अज्ञानी है, उतनी ही मिथ्याज्ञानाभिमानी भी है। इस संस्था को परमात्मा-परमेश्वर का ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं है, आत्मा-ईश्वर का भी ज्ञान नहीं है । जीव की भी इसे कोई जानकारी नहीं है । इतना ही नहीं, इसे तो मन-बुध्दि-संस्कार की भी जानकारी नहीं है कि ये सब क्या हैं ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इतना ही नहीं, आश्चर्य की बात तो यह है कि इन्हें यह भी नहीं मालूम कि हवा का रूप होता है कि नहीं । 'रूप' शब्द क्या है ? कहाँ पर इसका प्रयोग होता है ? लेखराज और इसके संस्था वाले बिल्कुल ही इससे अनभिज्ञ हैं । मगर ढोंगी-पाखण्डियों का ही आज-कल प्रचार-प्रसार, बोल-बाला और सारी मान्यताएँ हैं । शान्ति-शान्ति कहते रहिए जनमानस के धन-धरम दोनों का शोषण करते रहिए, सरकार को कोई परेशानी नहीं हैं क्यों भाई ? इसलिए कि शान्ति वाले है जिससे राजनेता भी प्रसन्न हैं भले ही जनता का धन-धरम दोनों जाय जहन्नुम-नरक में ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इसका मुखौटा श्रीकृष्ण जी से सराबोर है । महाकुम्भ जैसे विश्व के सबसे बड़े धर्म मेले में इसका पण्डाल और मुख्य द्वार ऐसा सजाया जाता है कि लगता है कि कृष्ण जी की सबसे बड़ी भक्ति और प्रचारक संस्था यही है। मगर अन्दर से देखिये तो कितनी बड़ी धूर्तबाजी है कि श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान है । श्रीराम और श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान और अपने लेखराज तथाकथित ब्रम्हा बाबा का पूर्ण सम्मान जैसे अज्ञानता मूलक बकवास ही देखने को मिलेगा, जिसका किसी भी ग्रन्थ से कोई प्रमाण नहीं-- कोई मान्यता नहीं, फिर भी राजनेता तो इसको और ही सिर-माथे चढ़ा लिये हैं जिससे जनता भी फँसती जाती है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यह संस्था शान्ति का मुखौटा पहन कर चाटुकारिताप्रिय राजनीतिज्ञ की चाटुकारिता कर-कर के उपराष्ट्रपति से और राष्ट्रपति महोदय आदि आदि से अपने यहाँ बार-बार किसी न किसी सभा-उत्सव का उद्धाटन करवाते रहते हैं और उसी के आड़ में समाज का धन-धर्म दोनों का ही दोहन-शोषण करने में लगे हैं । यह संस्था जितना ही घोर आडम्बरी- पाखण्डी है उतना ही धूर्तबाज भी, और उससे भी अधिक राजनीतिज्ञों का चाटुकार भी ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>घोर घोर घोर अनर्थकारी संस्था है प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय</strong></p>\r\n\r\n<p>क्या कहा जाय ऐसे जनमानस को ! हवा, मन, बुध्दि, संस्कार, जीव, आत्मा, परमात्मा, अनुभव, देखना, मुक्ति-अमरता आदि आदि व ब्रम्हा जी, विष्णु जी, शंकर जी, 84 लाख योनियाँ, पुर्नजन्म-अवतार- अवतरण आदि की ऐसी ऊल-जलूल शास्त्र के विरुद्व मनमाना गलत अर्थ तोड़-मरोड़ कर सारे शब्दों के अर्थ-मान्यता को अनर्थ करते जा रहे हैं। राजनेता लोग इस आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड को जान-देखकर रोकने के बजाय भरपूर हवा देने में लगे हैं क्योंकि इन सबों के शान्ति के मुखौटा के ये नेताजी लोग शिकार हो चुके हैं । शान्ति शान्ति बोलते रहो और जनमानस के साथ धूर्तबाजी करते हुये धन-धर्म दोनों का शोषण करते रहो । सरकार के लिये सब कुछ ठीक है। सरकार को तो शान्ति- शान्ति-शान्ति चाहिये, भले ही उसके आड़ में आप जनता के धन-धर्म दोनों का ही शोषण करते-कराते हुये नाश-विनाश तक करते रहें । सरकार के लिये सब ठीक ही है क्योंकि आप शान्ति का नारा जो लगा रहे हैं, शान्ति-शान्ति जो चिल्ला रहे हैं । फिर तो सरकार आप के सुरक्षा में है ही । सरकार को सत्य और अपनी जनता के कल्याण से क्या मतलब ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>जितना ही घोर अज्ञानी उतना ही मिथ्याज्ञानाभिमानी</strong></p>\r\n\r\n<p>यह तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था ऐसी घोर मिथ्याज्ञानाभिमानी संस्था है कि परमात्मा -परमेश्वर- आत्मा-ईश्वर-जीव, मन-बुध्दि-संस्कार, प्रकृति-हवा, तत्त्वज्ञान, योग या अधयात्म-स्वाध्याय, चौरासी लाख योनियाँ, ब्रम्हा-विष्णु-महेश-शिव, श्रीराम-श्रीकृष्ण-अवतरण और अवतार आदि आदि धर्म प्रधान, अस्तित्व प्रधान, ज्ञान और योग प्रधान आदि शब्द जो हैं-- इनके बारे (सम्बन्ध) में ये बिल्कुल ही अनजान हैं । फिर भी अपने को मनमाने तरीके से शास्त्र के विरुध्द यानी शास्त्रों में वर्णित शब्दों के सत्यतामूलक अर्थों-व्याख्यानों-भावों को अपने मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारवश तोड़-मरोड़ कर अर्थ-- शुध्द व सही अर्थ को न जान-समझ सकने के कारण अनर्थ कर-कराकर जनमानस को ऐसा दिग्भ्रमित-- ऐसा दिग्भ्रमित करने पर लगे हैं कि जनमानस में श्रीराम जी, श्रीकृष्ण जी, ब्रम्हा जी, श्रीविष्णु जी, तत्त्वज्ञान, योग... .आदि उपर्युक्त शब्दों की सद्ग्रन्थों (गीता-पुराण आदि सद्ग्रन्थों) की सही और शुध्द-विशुध्द भावों के प्रति अपवित्र-अशुध्द-दुर्भाव रूप विकृत-घृणित भाव पैदा-उत्पन्न करने और उस विकृत घृणा भाव को सुकृत-सत्कृत् भाव का रूप देता हुआ अति तीव्रता से फैलाने में लगे हैं । जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि सनातन धर्म के मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थों के मान्यता-मर्यादा को बड़े ही योजना बध्द तरीके से शान्ति: शान्ति: के आड़ में विध्वंस किया जा रहा है समाप्त किया जा रहा है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सत्य और सद्ग्रन्थों के अस्तित्त्व और सद्भाव को नष्ट कर विकृत् दुर्भाव फैलाना</strong></p>\r\n\r\n<p>ऐसा-ऐसा खींच-तान करके मनमाने और ऊल-जलूल अर्थ-तर्क प्रस्तुत कर-कराके 'परम पवित्र सत्य प्रधान धर्म' का चोला पहनकर-- मुखौटा लगाकर ''सत्य और सद्ग्रन्थ'' के अस्तित्त्व और सद्भाव को अपने घोर अपवित्र असत्य-अधर्म को फैलाकर नष्ट-समाप्त करने पर अत्यन्त तीव्र गति से यह तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हा कुमार कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था लगी हुई है । विश्व स्तर पर ही सनातन पौराणिक मान्यताओं को नष्ट किया जा रहा है, सनातन सत्य मान्यता को समाप्त कर उसके स्थान पर भष्ट-झूठी मान्यताएँ स्थापित की जा रही हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>यह घोर असत्यवादी और अधार्मिक संस्था है, प्रमाणित करने को तैयार हूँ</strong></p>\r\n\r\n<p>भगवत् कृपा और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस उपर्युक्त संस्था के प्राय: या लगभग समस्त जानकारियों को जो उनके किताबों द्वारा दी-फैलायी जा रही है, प्राय: या लगभग समस्त को ही असत्य (मिथ्या), भ्रामक (दिग्भ्रमित करने वाला ऊल-जलूल कुतर्क पर आधारित), घोर असत्य और अधर्म पर आधारित व शास्त्र-सद्ग्रन्थ विरुद्व प्रमाणित करने की खुले मंच से खुली चुनौती देता हूँ । पूर्वोक्त पैरा (पुन: एक बार पढ़-देख लें) के समस्त चुनौती भरे कथन को सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर आवश्यकता महसूस होने पर प्रायौगिक (प्रैक्टिकल) के आधार पर भी सत्य और सद्ग्रन्थीय होने की पूरी चुनौती दे रहा हूँ । साथ ही साथ यह भी चुनौती दे रहा हूँ कि मेरे पूर्वोक्त पैरा के कथनों-तथ्यों को सद्ग्रन्थों और प्रायौगिकता के आधार पर भी उक्त तथाकथित संस्था के किसी भी अधिकारिक व्यक्ति द्वारा गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति अथवा उक्त संस्था के प्रति सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस अपने सकल सेवक-शिष्य समाज व आश्रमों सहित समर्पित-शरणागत हो जायेंगे । मगर एक बात याद रहे कि कोई भी एकतरफा शर्त वैधानिक आधार पर मान्य नहीं होता है । इसलिए मेरे पूर्वोक्त कथनों को वे सद्ग्रन्थीय अथवा प्रायौगिक (प्रैक्टिकली) आधार पर गलत प्रमाणित नहीं कर सके-- मेरे उक्त कथन सत्य ही साबित प्रमाणित हो जाने पर उक्त संस्था के सदस्यों और आश्रमों को भी 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस तथा उनकी संस्था ''सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्'' के प्रति भी समर्पित-शरणागत करना-होना-रहना ही पडेग़ा । यह अपने को सही और पूरण कहने वालों को गलत अथवा आध-अधूरा प्रमाणित करने वाला चुनौती इस पुष्पिका के अन्तर्गत उल्लिखित समस्त पूर्वापर (पूर्व और पश्चात् के) महात्मागण (धर्मोपदेशकों) के लिए भी है। किसी के प्रति कोई भेद-भाव नहीं है । समस्त चुनौती व शर्त सबके लिए है-- सबके ही लिए है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था के किताबों-उपदेशों में से कौन-कौन से ''शब्द-विषय'' भ्रामक-मिथ्या-गलत और घोर अधार्मिक व शास्त्र विरुध्द हैं--पूछने पर मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) तो यथार्थत: और स्पष्टत: यही कहूँगा कि एक-आध शब्द-बात-तथ्य-विषय को छोड़कर उनके समस्त किताबों के समस्त विषयों-तथ्यों-शब्दों जो पूर्वोक्त पैरा में हैं, प्राय: या लगभग समस्त को ही भ्रामक-मिथ्या- गलत-घोर अपवित्र-अधार्मिक, शास्त्र विरुध्द और सद्ग्रन्थ विरुध्द प्रमाणित करने की चुनौती देता हूँ । यहाँ विस्तार से बचने के लिये दो-चार तथ्यों को अति संक्षिप्तत: प्रस्तुत कर दे रहा हूँ कि समझ में आ जाय कि उपर्युक्त बातें मात्र कथनी की नहीं अपितु सत्य-तथ्य पर आधारित हैं । उनकी किताबों से:-<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>1 . क्या आप जानते हैं कि गीता-ज्ञान किसने दिया था अर्थात् गीता के भगवान् कौन ?</strong><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>उक्त संस्था का कथन है कि गीता-ज्ञान श्रीकृष्ण ने नहीं दिया था बल्कि निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया था और फिर गीता-ज्ञान से सत्ययुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था आदि आदि इसी प्रकार की बहुत सी ऊल-जलूल व मिथ्यात्त्व पर आधारित बातें लिखी गयी हैं । यहाँ पर स्थानाभाव के चलते एवं विस्तृत विस्तार से बचने हेतु मुख्य-मुख्य बातें और तथ्यों से ही समझने का प्रयत्न करें ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस तत्त्वज्ञान वाले का कथन है कि....</strong></p>\r\n\r\n<p>यह सर्व विदित है कि गीता-ज्ञान भगवान् श्रीकृष्ण जी ने ही दिया था, शिव ने नहीं । अब यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि--शिव कौन और श्री कृष्ण कौन ? उक्त प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ई0वि0 विद्यालय के कथनानुसार शिव एक ज्योति बिन्दु है यानी शिव एक दिव्य ज्योति हैं । पुन: उक्त संस्था के अनुसार श्रीकृष्ण मात्र एक सांसारिक मनुष्य है, जो देवता कहला सकते हैं या देवता हैं। मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का कथन है कि..... प्राय: हर वर्ग-सम्प्रदाय और संस्था-समाज वालों में एक घोर विकृति यह छायी हुई दिखायी देती है कि अपने और अपने अगुओं को तो ये सब के सब शरीर से अलग जो मूलभूत सूत्र-सिध्दान्त होता है, उस आधार पर और उस दृष्टि से देखते हैं परन्तु अन्यों को शारीरिक-बिल्कुल ही सांसारिक-शारीरिक दृष्टि से देखते हैं । यहीं पर भ्रम-भूल और तत्पश्चात् गलतियाँ होनी शुरु हो जाती हैं। यह स्थिति प्राय: समस्त वर्ग-सम्प्रदाय-संस्था और समाज में ही है-- सभी के सभी ही इसी भ्रम-भूल और गलती के शिकार हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यही उपर्युक्त स्थिति उक्त संस्था की भी है कि लेखराज (तथाकथित ब्रम्हा बाबा) तो उस ज्योति विन्दु के अंश और कहीं-कहीं पूर्ण अवतरित (ज्योति विन्दु ही अवतरित) दिखायी दे रहे हैं और श्रीकृष्ण मात्र शारीरिक-सांसारिक और जन्मने-मरने वाला मनुष्य या क्षमता-शक्ति सामर्थ्य के चलते अधिक से अधिक देवता तक दिखायी दे रहे हैं। यह उपर्युक्त पैरा वाली ही बात हुई।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस को लेखराज तथा उनके संस्था प्र0ब्र0कु0ई0वि0 विद्यालय के इस मान्यता कि 'शिव' एक ज्योति विन्दु हैं, ज्योतिर्मय विन्दु ही शिव हैं, को स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि यही सही है । परेशानी तो वहाँ है कि ज्योतिर्विन्दु शिव ही परमपिता परमात्मा है-- यह सही नहीं है । यह बिल्कुल ही गलत है । परमपिता परमात्मा तो दिव्य ज्योति-ज्योतिर्विन्दु रूप आत्मा-शिव का भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप खुदा-गॉड- भगवान् है । परमपिता परमात्मा तो आत्मा-ईश्वर- शिव सहित सारी सृष्टि का ही पिता, संचालक, नियन्त्रक और लय-विलय कर्ता होता है और वह ही श्रीकृष्णजी के रूप में अवतरित था । श्री कृष्ण जी ज्योति विन्दु रूप शिव के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् के ही साक्षात् पूर्णावतार रूप साक्षात् भगवदवतार ही थे ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'शिव स्वरोदय' के आधार पर भी शिव-शक्ति-ज्योतिर्मय हँऽसो है और सोऽहँ- हँऽसो-ज्योति का परमपिता और स्वामी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् है । यही 'अलम्' खुदा अथवा शब्द (बचन) रूप गॉड भी है । इसी खुदा-गॉड-भगवान् के साक्षात् पूर्णावतार ही भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्रीकृष्ण जी थे जो ज्योति रूप आत्मा-हँऽस-शिव के भी परमपिता और संचालक स्वामी भी थे ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>श्वेताश्वतरोपनिषद् के मन्त्र संख्या 4/18 में स्पष्टत: है कि परमात्मा-परमेश्वर अन्धकार तो है ही नहीं, दिव्य ज्योति भी नहीं है, बल्कि वह दोनों से ही परे और कल्याणरूप 'तत्त्वम्' है जबकि प्रजापिता ब्र0 कु0 ई0 विश्वविद्यालय वाले आत्मा को तो कहीं सूक्ष्म आकृति और कहीं-कहीं ज्योति माने ही हैं, परमात्मा को भी ज्योतिर्विन्दु ही कहते हैं।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>लेखराज और सरस्वती सहित उनके प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वाले जितना ही ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी-गलत-झूठ और धूर्तबाज हैं, उतना ही मिथ्याहंकारी भी हैं । जितना ही अज्ञानी हैं, उतना ही भ्रमज्ञानी, मिथ्याज्ञानाभिमानी भी हैं। इन सबों को तो इतना भी पता नहीं है कि-<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>1 . हवा में रूप होता है कि नहीं ? होता है तो कैसा है ? नहीं, तो क्यों ?<br />\r\n<br />\r\n2 . मन क्या चीज है ?<br />\r\n<br />\r\n3 . बुध्दि क्या है ?<br />\r\n<br />\r\n4 . जीव क्या चीज है ? यह तो इन लोगों का विषय ही नहीं है<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>5 . आत्मा कहीं से सुन-पढ़ लिए हैं कि एक ज्योति विन्दु है, जानकारी नहीं है, क्योंकि प्राय: आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ भी जानकारियाँ इनके यहाँ-- ईश्वरीय ज्ञान का साप्ताहिक पाठयक्रम में लिखी हैं, प्राय: सबकी सब झूठी-गलत एवं भ्रामक हैं । यह सद्ग्रन्थों द्वारा प्रमाणित करने की मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) खुली चुनौती दे रहा हूँ और यह भी कह रहा हूँ कि झूठा-गलत व भ्रामक और शास्त्र विरुध्द न प्रमाणित कर दूँ तो अपने सकल भक्त-सेवक समाज सहित उनके प्रति पूर्णत: समर्पित-शरणागत हो जाऊँ, मगर प्रमाणित कर दूँ तो उन्हें भी पूर्णत: समर्मित-शरणागत करना होगा । सब भगवत् कृपा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>उन लोगों की जानकारी और मान्यता में आत्मा तो ज्योति है ही, परमात्मा भी वैसा ही ज्योति विन्दु ही है, जो सरासर गलत है। जीव के सम्बन्ध में तो उनके यहाँ कोई जिक्र ही नहीं है, जबकि आत्मा का सारा वर्णन, जीव का ही वर्णन जैसा ही है और इनका जो ज्योतिर्विन्दु रूप शिव है, उन्हें यह भी पता नहीं कि वह परमपिता परमात्मा नहीं है, बल्कि आत्म-ज्योति रूप आत्मा-दिव्य ज्योति रूप ईश्वर-ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति-स्वयं ज्योति रूप शिव शक्ति मात्र ही है। परमपिता तो ज्योति विन्दु रूप शिव-शक्ति का भी पिता रूप परमतत्त्वम् ही है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय संस्था का नाम ईश्वरीय विश्व विद्यालय है, परमेश्वरीय नहीं । इस संस्था के अभीष्ट ज्योति विन्दु आत्मा या शिव है और ज्योति विन्दु रूप ईश्वर का ही होता है । यहाँ तक तो कहने मात्र के लिये ये लोग सही हैं, मगर इन लोगों का सबसे भारी भूल-गलती, मिथ्या ज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकार यह है कि ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा को ही ये ज्योति विन्दु रूप परमपिता परमात्मा भी मान बैठे हैं- मनवा रहे हैं। जबकि यह गलत है और ये समाज को गलत उपदेश देकर ज्योति मात्र में ही भरमा-भटका कर लटका दे रहे हैं जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि वास्तविक ज्योति विन्दु रूप आत्मा-ईश्वर-शिव का भी पिता परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् है, को भी आत्मा-शिव ही माना जाने लगता है । एक बार पुन: स्पष्ट कर दूँ कि ज्योति विन्दु आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल- स्पिरिट-शिव मात्र है परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् नहीं । परमात्मा-परमेश्वर तो ज्योतिर्विन्दु रूप शिव का भी पिता रूप है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन लोगों तथा मात्र इन लोगों की ही नहीं, पूरे भू-मण्डल पर आज वर्तमान मात्र में ही नहीं- आदि-काल से ही श्रीविष्णु जी महाराज, श्रीराम जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज के सिवाय प्राय: सभी समस्त धर्मोपदेशकों ने ही चाहे वे किसी भी वर्ग-समाज-सम्प्रदाय-पंथ-ग्रन्थ के ही क्यों न हों, सभी के सभी ही ने यह भारी भूल या गलती या मिथ्या ज्ञानाभिमान या मिथ्याहंकार किया था, किया है और कर भी रहे हैं कि अपने (जीवत्त्व रूप) को ही तथा सबके शरीर में रहने वाले अहँ-मैं-आइ (जीवत्त्व) को ही ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा और इसी ज्योति बिन्दु-शिव आत्मा को ही परमतत्त्वम् रूप परमात्मा; इसी ज्योति रूप शिव-ईश्वर को ही परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर; इसी ज्योति रूप ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह; इसी ज्योति (नूर) को ही अलम् रूप अल्लाहतआला; इसी ज्योति (लाइफ लाइट) को ही 'वर्ड-गॉड; इसी ज्योति विन्दु शिव को ही परमतत्त्वम् रूप भगवान्-परमपिता मानना--घोषित करना, अपने अनुयायियों और किताबों-ग्रन्थों को मनमाना लिख-लिखवा कर समस्त धर्मप्रेमी जनमानस को भी भ्रामक और गलत जानकारियाँ दे-दिवाकर धर्मप्रेमी-भगवत् प्रेमी जनों को भरमा-भटका कर परमात्मा-परमेश्वर- खुदा-गॉड-भगवान के वास्तविक परमतत्त्वम् रूप 'वर्ड-गॉड' रूप वास्तविक परमात्मा से बंचित-च्युत तो करा ही दे रहे हैं, खुद अपने ही 'स्व-रूह-सेल्फ' रूप सूक्ष्म शरीर की जानकारी -दर्शन से भी बंचित कर-करा दे रहे हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>अत: इन लोगों के कथनानुसार जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं भी आत्मा ही है और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमपुरुष भी आत्मा (ज्योति विन्दु) रूप शिव ही है, पृथक्-पृथक् तीनों ही तीन नहीं हैं बल्कि 'एक' का ही तीन नाम है, तो क्या ये लोग आत्म-ज्योति से पृथक् परमतत्त्वम् परमात्मा- परमपुरुष के पृथक् अस्तित्त्व को मिटाना नहीं चाह रहे हैं ? क्या आत्मा से भी श्रेष्ठ और पृथक् परमात्मा-परमपुरुष नहीं है तो यह मंत्र क्या कह रहा है ? क्यों नहीं देखते या इन्हें दिखायी ही नहीं देता ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन: । मनसस्तु परा बुध्दिर्बुध्देरात्मा महान् पर: ॥ महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर: । पुरषान्न परं किंचित्न्सा काष्ठा सा परा गति: ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>(कठोपनिषद् 1/3/10-11)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>हि इन्द्रियेभ्य: = क्योंकि इन्द्रियों से; अर्था: = शब्दादि विषय; परा:= बलवान है; च = और; अर्थेभ्य:= शब्दादि विषयों से; मन:= मन; परा:= प्रबल है; तु मनस:= और मन से भी; बुध्दि:= बुध्दि; परा= बलवती है; बुध्दे = बुध्दि से; महान् आत्मा = महान् आत्मा; महत:= महान् (आत्मा) से; परम= श्रेष्ठ-बलवती है; अव्यक्तम् = भगवान कि अव्यक्त मायाशक्ति; अव्यक्तात् = अव्यक्त माया से भी; पर:= श्रेष्ठ; पुरुष:= परमपुरुष (स्वयं परमेश्वर); पुरुषात् = परमपुरुष भगवान् से; परम् = श्रेष्ठ और बलवान्; किंचित्:= कुछ भी; न:= नहीं है; सा काष्ठा = वही सबका परम अवधि (और); सा परागति:= वही परमगति है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>(कठोपनिषद् 1/3/10-11)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन्द्रियों से शब्दादि विषय बलवान् है तथा शब्दादि विषयों से मन प्रबल है और मन से भी बुध्दि बलवती है । बुध्दि से महान् आत्मा है और महान् आत्मा से भी श्रेष्ठ-बलवती भगवान् की अव्यक्त मायाशक्ति है और अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ परमपुरुष-परमेश्वर हैं । परमपुरुष भगवान् से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है । परमात्मा ही सब की परम अवधि और वही परमगति है। ज्योति विन्दु रूप आत्मा अथवा ज्योति विन्दु रूप शिव को ही परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् मानने वालों को और हँऽसो ज्योति रूप आत्मा-शिव से श्रेष्ठ और कुछ नहीं मानने वालों के लिए इन मन्त्रों के अर्थ-भाव और यथार्थ स्थिति का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? यहाँ तो सभी के वास्तविक अस्तित्त्व-स्थिति को स्पष्टत: श्रेणीबध्द रूप में क्रमश:पृथक्-पृथक् बतलाते हुए जनाया गया है। इससे भी समझ में न आवे तो भगवान् परमात्मा क्या करे, आप अभागों को ? सब भगवत् कृपा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>(नोट:-अभी तो ये ऊर्ध्वमुखी हँऽसो-ज्योति की बातें की जा रही है जो परमात्मा तो है ही नहीं, शुध्द आत्मा भी नहीं है, बल्कि जीव और आत्मा का संयुक्त रूप में ऊर्ध्वमुखी यौगिक स्थिति है। वर्तमान कालिक महात्माओं का सोऽहँ तो स्पष्ट ही पतन कारक अर्थात् पतन को जाता हुआ विनाश को ले जाने वाला है । इस पतनोन्मुखी सोऽहँ वालों की तो इसमें कोई गिनती ही नहीं है । ये उपर्युक्त बातें तो ऊर्ध्वमुखी हँऽसो-ज्योति वालों से की जा रही है ।)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ज्योति प्रधान समस्त सोऽहँ- हँऽसो-आत्मा-स्वयं ज्योति रूप शिव-शक्ति को ही परमपिता-परमात्मा-परमेश्वर-मानने-मनवाने वालों को यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर ही परमेश्वर नहीं होता है बल्कि ईश्वरों का भी महान ईश्वर परम ईश्वर अर्थात् परमेश्वर होता है श्वेताश्वतरोपनिषद् का ही एक सत्प्रमाण गौर से देखें-<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् ।<br />\r\nतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीडयम्॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>(श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/7)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>व्याख्या-- वे परमब्रम्ह पुरुषोत्तम समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप परम शासक हैं, अर्थात् ये सब ईश्वर भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य‌ देव हैं। समस्त पतियों-रक्षकों के भी परम पति है तथा समस्त ब्रम्हाण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव-परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण है और वे सर्वरूप होकर भी सबसे सर्वथा पृथक् हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यह उपर्युक्त मन्त्र बतला रहा है कि ईश्वरों का भी परम होता है परमेश्वर। ईश्वर से पृथक् और 'परम' परमेश्वर का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा ? आत्मा से भी परम पूर्वोक्त मन्त्र में परमपुरुष को बताया गया है और उससे भी पूर्व के मन्त्रों में हँऽसो नाम ज्योति रूप आत्मा-शिव के भी परमपिता-संचालक स्वामी मुक्तिदाता परमतत्त्वम् रूप परमात्मा होते हैं। इससे स्पष्ट है कि ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले परमेश्वर-परमात्मा- भगवान्- भगवदवतार को क्या जाने कि क्या होता है? कैसा होता है ? ये लोग तो आत्मा-शिव तो आत्मा-शिव है जीव 'हम' के बारे में भी कुछ नहीं जानते ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वाले महानुभावों से मुझे यही कहना है कि....</p>\r\n\r\n<p>'गीता ज्ञान श्रीकृष्ण जी ने नहीं दिया था बल्कि ज्योति विन्दु रूप परमपिता शिव परमात्मा ने दिया था' --यह उनका कथन बिल्कुल ही भ्रामक व गलत है । उनका यह भ्रम है कि शिव तो ज्योतिर्मय आत्मा है और श्रीकृष्ण जी शरीर मात्र । जबकि उन्हें यह अच्छी प्रकार से जान-समझ लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण जी महाराज शरीर मात्र ही नहीं थे बल्कि ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् रूप परमपिता रूप परमात्मा के ही पूर्णावतार थे, साक्षात् भगवदवतार थे-- परमपिता परमात्मा-परमेश्वर ही थे।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा उन परमतत्त्वम् रूप परमात्मा से ही उत्पन्न और उन्हीं के द्वारा संचालित होता रहता है । यह ही सत्य है । यह ही सत्य है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्र0 ब्र0 ईश्वरीय विश्वविद्यालय वालों का यह कथन कि गीता का ज्ञान परमपिता परमात्मा ने दिया है-- यह बात तो सही है । भ्रामकता और गलती यहाँ है कि वह परमात्मा ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा ही हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हँऽसो ज्योति रूप शिव-शक्ति-आत्मा-ईश्वर के भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा के ही साक्षात् पूर्णावतार रूप श्रीकृष्ण जी हैं । पूर्वोक्त मन्त्रों से यह निर्णय हो चुका है कि हँऽसो ज्योति रूप जीवात्मा-शिव-शक्ति लाइट या दिव्य ज्योति ही परमात्मा नहीं होता है अपितु इन सभी नामधारी शब्दों के भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् होता है, था और रहेगा भी। उन्हीं परमात्मा के पूर्णावतार श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता-ज्ञान दिये । नि:सन्देह यही सत्य है-- यही सही है--यही ही सही है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्र0 ब्र0 ईश्वरीय विश्वविद्यालय की सारी बातें-जानकारियाँ-कथन एवं सारा का सारा लेखन-किताबें-पत्रिकाएं ही प्राय: पूर्णतया भ्रामकता एवं गलती से युक्त हैं । इसे सद्ग्रन्थीय आधार पर गलत प्रमाणित करने की चुनौती पूर्वक घोषणा कर रहा हूँ । नि:सन्देह यह संस्था अज्ञानतामूलक घोर आडम्बर-ढोंग वाली है । इस संस्था की सारी किताबें ही भ्रामक व गलत हैं तो प्रत्येक कथन को लिखना-बताना स्थानाभाव और विस्तृतता से बचने के क्रम में असम्भव है। कोई मिलकर जान-समझ सकता है । मेरे कथन की सच्चाई की जाँच भी कर सकता है। मेरे कथन को गलत ठहराने वाले के प्रति मैं सकल आश्रमों-शिष्यों सहित समर्पण कर दूँगा । मगर गलत प्रमाणित न कर पाने पर उन्हें भी पूर्णत: आश्रमों-सेवकों सहित समर्पण करना-रहना ही पडेग़ा । जब और जहाँ चाहें मैं पूर्णत: तैयार हूँ । साँच को ऑंच कहाँ ? सब भगवत् कृपा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>''विचार-इच्छा-प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ, अनुभव, स्मृति तथा संस्कार ये आत्मा के ही लक्षण है । आत्मा ही सत्य-असत्य का विचार करती, आनन्द के लिए इच्छा करती है । उसके लिए पुरुषार्थ करती है, फिर दु:ख-सुख या आनन्द की प्राप्ति का अनुभव आदि करती है । अत: मन और बुध्दि आत्मा से अलग नहीं, ये प्राकृतिक नहीं है, बल्कि स्वयं आत्मा ही की योग्यताएँ हैं ।'<br />\r\n(प्र0 ब्र0 ई0 वि0 का ईश्वरीय ज्ञान का 'साप्ताहिक पाठयक्रम पृष्ठ 25 )<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यह उपर्युक्त कथन सरासर (पूर्णत:) गलत है-- नाजानकारी और नासमझदारीवश मिथ्याज्ञान का परिचायक है । सही यह है कि ये उपर्युक्त सारे लक्षण आत्मा के नहीं, बल्कि जीव के हैं, जीव के ही हैं। मन, बुध्दि, संस्कार, विचार, अनुभव, आनन्द से आदि ये सब जीव से ही सम्बन्धिात हैं--इनका आत्मा से या आत्मा का इनसे कोई मतलब नहीं । आत्मा तो निराकार-निर्विकार मन-बुध्दि- विचार- अनुभव-आनन्द से परे होती है। आत्मा-शिवशक्ति तो ज्योति रूप होती है-- ज्योति मात्र में ये सब लक्षण कल्पना के लिए भी नहीं हो सकते-- ऐसा कथन बिल्कुल ही अज्ञानता अथवा मिथ्याज्ञान का लक्षण है । हाँ ! ये सब लक्षण सूक्ष्म शरीर (सेप्टल बॉडी) रूप जीव- रूह-सेल्फ-स्व-अहं के हैं । विशेष जानकारी हेतु मुझसे मिल सकते हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'ईश्वरीय ज्ञान का साप्ताहिक पाठयक्रम' के दूसरे दिन में पृष्ठ संख्या 30-31-32 से उध्दृत् उदाहरणार्थ--<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>परमात्मा के बारे में अनेक मत क्यों ?</strong></p>\r\n\r\n<p><strong>ब्रम्हाकुमारी:-</strong><br />\r\nतो परमात्मा के बारे में अनेक मतों का होना यह सिध्द करता है कि लोग अपने आत्मा के पिता को नहीं जानते । तभी तो आज बहुत से लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई रूप ही नहीं है। आप किंचित् विचार कीजिए कि रूप के बिना भला कोई चीज हो कैसे सकती है ? परमात्मा के लिए तो लोग कहते है--''ऍंखिया प्रभु दर्शन की प्यासी' अथवा हे प्रभो? अपने दर्शन दे दो।'' अत: परमात्मा का कोई रूप ही नहीं है, तब तो परमात्मा से मिलन भी नहीं हो सकता? परन्तु सोचिए, क्या हम जिसे अपना परमपिता कहते हैं, उससे मिल भी नहीं सकते ? परमात्मा से जो इतना प्यार करते हैं, उसे इतना पुकारते हैं, उसके लिए इतनी साधनाएँ करते हैं, वे किसलिए ? जिसका कोई रूप ही नहीं है अर्थात् जो चीज ही नहीं है, उसके लिए कोशिश ही क्यों करते हैं ? स्पष्ट है कि परमात्मा का कोई रूप है अवश्य, परन्तु आज मनुष्य के पास ज्ञान-चक्षु के न होने के कारण वह उसे देख नहीं सकता ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>उन्हीं के अनुसार-- मान लीजिए, आप किसी मनुष्य से पूछते हैं कि तुम किस चीज को खोज रहे हो ? तो वह कहता है--''उस वस्तु का कोई रूप नहीं है।'' फिर आप पूछते हैं कि वह वस्तु कहाँ है, वह कैसी है और उसके गुण क्या हैं ? तो वह कहता है कि-- 'वह तो निर्गुण है' तो आप उसे तुरन्त कहेंगे कि-- 'फिर तुम ढूँढ क्या रहे हो, खाक् ? जिसका न नाम है, न रूप है, न गुण है, और न पहचान तो उसके पीछे तुम अपना माथा क्यों खराब कर रहे हो?'<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>क्या परमपिता परमात्मा का कोई रूप है ? यदि हाँ, तो कैसा</strong></p>\r\n\r\n<p>सभी लोग कहते हैं कि परमात्मा एक लाईट है, एक ज्योति अथवा एक नूर है परन्तु वे यह नहीं जानते कि उस लाइट का रूप क्या है? तो आज हम अपने अनुभव के आधार पर आप को यह बताना चाहते हैं जैसे आत्मा एक ज्योतिर्विन्दु है, वैसे ही आत्माओं का पिता अर्थात् परम-आत्मा भी ज्योति विन्दु ही है। हाँ ! आत्मा और परमात्मा के गुणों में अन्तर है । परमात्मा सदा एकरस, शान्ति का सागर, आनन्द का सागर और प्रेम का सागर है और जन्म-मरण तथा दु:ख-सुख से न्यारा है। परन्तु आत्मा जन्म-मरण से न्यारा तथा दु:ख-सुख के चक्कर में आती है । आप देखेंगे कि सभी धर्म वालों के यहाँ परमात्मा के इस ज्योतिर्मय रूप की यादगार किसी न किसी नाम से मौजूद है । ये उपर्युक्त मत प्र0 ब्र0 कु0 वालों के किताब से है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का मत</strong></p>\r\n\r\n<p>प्राय: ऐसा देखा जाता है कि सामान्यतया कोई व्यक्ति-उपदेशक अथवा धर्मोपदेशक भी दूसरे को राय-परामर्श-उपदेश आदि तो खूब देते हैं, मगर स्वयं अपने पर कम से कम अनिवार्यत: आवश्यक बातों पर भी ध्यान नहीं देते-- गौर नहीं करते हैं कि जो बात-उपदेश वे दूसरे को कर-दे रहे हैं कि ''परमात्मा का रूप होता है, मगर ज्ञान चक्षु नहीं होने के कारण वे परमपिता परमात्मा के रूप को नहीं देख पाते है'' तो मैं यह पूछूँ कि क्या प्र0ब्र0कु0ई0वि0 वालों के पास ज्ञान-चक्षु हैं ? यदि वे कहते हैं कि है-- तो बिल्कुल ही झूठ बोलते हैं, क्योंकि वे लोग (प्र0ब्र0कु0ई0वि0 वाले) यह भी नहीं जानते है कि--<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>1 . मन-बुध्दि-संस्कार को भी आत्मा से अभिन्न--आत्मा ही मानना उसकी घोर अज्ञानता है । सच्चाई यह है कि ये तीनों ही जीव से सम्बन्धित होता हैं, आत्मा से सम्बन्धित नहीं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>2 . कार और ड्राइवर जैसे ही काया (शरीर) और आत्मा कहना भी अज्ञानता ही है क्योंकि कार रूप शरीर है तो ड्राइवर रूप आत्मा नहीं होती बल्कि जीव होता है । इस बात से स्पष्ट होता है कि उन्हें जीव के सम्बन्धा में भी जानकारी बिल्कुल ही नहीं है क्योंकि जीव के समस्त कार्य लक्षणों को वे लोग आत्मा का कार्य और लक्षण मानते कहते हैं जो सरासर झूठ-गलत और भ्रामक भी तो है<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>3 . उनके कथनानुसार आत्मा एक चेतन वस्तु है । आत्मा को चेतन इसी कारण कहा जाता है कि वह सोच-विचार कर सकती है, दु:ख-सुख का अनुभव कर सकती है और अच्छा या बुरा बनने का पुरुषार्थ अथवा कर्म कर सकती है। अत: आत्मा मन, बुध्दि और संस्कारों से अगल नहीं है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी के अनुसार ये उपर्युक्त सोच-विचार कर्म करना आदि लक्षण कार्य आत्मा के नहीं अपितु जीव के ही हैं । आत्मा तो निर्विकार-निर्दोष व सोच-विचार से बिल्कुल ही रहित होती है। सच्चाई यह है कि यह (प्र0ब्र0कु0ई0वि0) संस्था जितनी ही घोर अज्ञानी है, उतनी ही मिथ्या-ज्ञानाभिमानी भी। नि:सन्देह बार-बार ही कह रहा हूँ-- हजारों बार कह रहा हूँ कि यह संस्था घोर अज्ञानी और भ्रामकता की शिकार है जिसको परमात्मा के विषय में कोई कुछ भी जानकारी तो है ही नहीं, जीव के विषय में भी कोई भी जानकारी नहीं है, क्योंकि जीव की जानकारी होती तो जीव का ही सारा लक्षण-वर्णन आत्मा पर साट करके वर्णित नहीं करते। क्योंकि इसको इसमें 1 . परमात्मा, 2 . आत्मा, 3 . जीव, 4 . बुध्दि, 5 . मन, 6 . संस्कार, 7 . ज्ञान व ज्ञान चक्षु, 8 . योग व दिव्य दृष्टि, 9 . स्वाध्याय व सूक्ष्म दृष्टि, 10 . अवतार, 11 . 84 लाख योनिया, 12 . गीता ज्ञान दाता कौन? 13 . गीता ज्ञान क्या है ? 14 . क्या राम-कृष्ण वास्तव में पूर्णावतारी थे या देवता मात्र ? 15 . जन्म-मृत्यु-मुक्ति क्या है ? 16 . स्वर्ग-परमधाम क्या है ? 17. जीव एवं आत्मा (ईश्वर) और परमात्मा (परमेश्वर) के नाम-रूप- स्थान-लक्षण-जानकारी-दर्शन-प्राप्ति-पहचान- कार्य-मुक्ति- अमरता-जीवन की रहस्यात्मक बातें आदि-आदि--में से किसी की भी कोई जानकारी नहीं है, नहीं है! कदापि नहीं है !! इन उपर्युक्त के सम्बन्ध में उनकी किताबों में जो जानकारियाँ है, सरासर ही अज्ञानता मूलक भ्रामकता पर आधारित हैं और बिल्कुल ही मिथ्या है । गलत है । इस भ्रामकता और गलत-मिथ्यात्त्व को सद्ग्रन्थीय और आवश्यकता पड़ने पर प्रायौगिक (प्रैक्टिकली) आधार पर सत्प्रमाणों सहित प्रमाणित करने की चुनौतीपूर्ण घोषणा कर रहा हूँ । उन लोगों में क्षमता (जानकारी-ज्ञान) हो तो मेरी चुनौती को गलत प्रमाणित करने की चुनौती किसी खुले मंच से पत्रकारों की उपस्थिति में दें ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यह प्र0 ब्र 0 कु0 ई0 वि0 संस्था घोर भगवद्रोही -- सत्यद्रोही संस्था है । ज्योति आत्मा-शिव के भी पिता जो बिल्कुल ही पृथक् और परमतत्त्वम् है, को ही नकार रही है और नकारने वाली सत्य विरोधी विष जनमानस में घोल-घोलवा रही है । सच्चाई यह है कि न तो मैं किसी का विराधी हूँ और न तो कोई मेरा दुश्मन ही है । जो बातें हो रही है ईमान से सत्य तथ्य पर आधारित है जो होना ही चाहिए । सब भगवत् कृपा।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364</p>\r\n', '1656331940-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (24, 'To Gayatri Parivaar', '<h3><strong>6 . गायत्री-श्रीराम शर्मा और देव द्रोहिता</strong></h3>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p><strong>देव मंत्र गायत्री छन्द में वर्णित,<br />\r\nगायत्री कोई मंत्र नहीं, कोई देवी नहीं ! </strong><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>' ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य<br />\r\nधीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।' </strong><br />\r\n </p>\r\n\r\n<table border=\"1\" style=\"width:100%\">\r\n <tbody>\r\n <tr>\r\n <td>ॐ</td>\r\n <td>ब्रम्हा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं का संयुक्त रूप से बोध कराने वाला संकेत</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>भूर्भुव: स्व:</td>\r\n <td>भू: = ( ब्रम्हा का )<br />\r\n भुव: = ( विष्णु का)<br />\r\n स्व: = ( महेश का )( तीनों देवताओं के अलग-अलग निवास स्थान का संकेत है</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>तत्सवितुर्वरेण्यं</td>\r\n <td>सूर्य द्वारा वरणीय अथवा सूर्य का भी उपास्य देव रूप उस</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>भर्गो देवस्य</td>\r\n <td>तेजस्वरूप देव का</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>धीमहि</td>\r\n <td>ध्यान करता हूँ</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>धियो</td>\r\n <td>बुध्दि</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>यो</td>\r\n <td>जिससे</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>न:</td>\r\n <td>हमारी( (जिससे हमारी बुध्दि )</td>\r\n </tr>\r\n <tr>\r\n <td>प्रचोदयात्</td>\r\n <td>शुध्द रहे या उत्प्रेरित रहे</td>\r\n </tr>\r\n </tbody>\r\n</table>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>किसी भी विषय-वस्तु के सत्यता का आधार और प्रमाण परम्परागत रूप से आता हुआ कोई विचारधारा नहीं हो सकता। जैसे तथाकथित गायत्री को ही ले लिया जाय तो स्पष्ट हो जायेगा कि वास्तविकता क्या है। तथाकथित गायत्री देवी सही है--यह कहना और प्रमाण पेश करना कि अमुक-अमुक-अमुक ऋषियों ने अथवा अमुक-अमुक-अमुक महापुरुषों ने भी गायत्री को स्वीकारा था--समर्थन दिया था-- यह कोई महत्वपूर्ण आधार और प्रमाण नहीं हो सकता-- कदापि नहीं हो सकता । महत्वपूर्ण आधार और तो विषय-वस्तु की सत्यता है । सत्य है नहीं तो महत्व है 'सत्य' ही से महत्व कैसा ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं, मंत्र भी गायत्री का नहीं</p>\r\n\r\n<p>प्रस्तुत शीर्षक पढ़-सुन कर निश्चित् ही आप सबको जाने-अनजाने जो गायत्री में सटे-चिपके होंगे, उनको कष्ट हो रहा होगा, क्योंकि आप बहुत समय से ही इस मंत्र का श्रध्दाभाव से जाप करते चले आ रहे हैं और आप भावनात्मक रूप से इसमें लगे-चिपके हैं । यहाँ एकाएक सीधे ही उसे गलत कहते हुए काट (खण्डन) कर दिया जा रहा है । आप सब बन्धुओं से यहाँ पर एक बात कहूँ कि आप सबके श्रध्दा और उपासना पर चोट मारना अथवा आप सबको कष्ट पहुँचाने का मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, मगर सत्य यही और ऐसा ही हो तो कहा क्या जाय ? क्या आप के समक्ष 'सत्य' को न रखा जाय ? नि:सन्देह यह सत्य ही है कि गायत्री न तो कोई देवी है और न कोई मन्त्र ही । हाँ! गायत्री छन्द अवश्य है। व्याकरण के अन्तर्गत छन्द मात्र ही । यहाँ पर आप पहले निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव भावित होकर देखते हुए जानने-समझने का प्रयास करें और आप एक प्रश्न करें कि मन्त्र का अभीष्ट स्त्रीलिंग प्रधान है या देवस्य पुलिंग प्रधान ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>एक बार पुन: आप सब से यही कहूँगा कि आप सब पढ़े-लिखे एक सुशिक्षित विद्वान हैं--संस्कृत के अच्छे जानकार भी हैं -- कोई क्या कहता है क्या नहीं --क्या गलत है क्या सही? आप प्रस्तुत मन्त्र को पहले यहाँ पर बार-बार पढ़िए । अर्थ करिये-समझिए । तत्पश्चात् निर्णय कीजिए कि क्या यह-- ' ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।' मन्त्र स्त्री प्रधान है या पुरुष प्रधान ? मन्त्र का अभीष्ट देवी है या देव ? क्या यही उत्तर नहीं बनेगा कि मन्त्र का अभीष्ट ' ॐ देवस्य' पुरुष प्रधान है और मन्त्र का अभीष्ट देवी नहीं है बल्कि ॐ तेजोमय देव ही है, कोई भी प्रार्थना-पूजा-अराधना-उपासना जिसका भी करना हो चाहे जिस किसी का भी करना हो तो क्या यह सबसे जरूरी-सबसे आवश्यक नहीं है कि सबसे पहले इष्ट-अभीष्ट की सही-सही जानकारी प्राप्त कर लिया जाय कि 'वह कौन है' और 'वह कैसा है'। जब तक हम इष्ट-अभीष्ट को जानेंगे ही नहीं कि वह कौन है? और वह कैसा है ? गलत है कि सही है--तब तक उसकी प्रार्थना-पूजा-आराधाना-उपासना कर कैसे सकते हैं? नहीं कर सकते ! कदापि नहीं कर सकते !!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>1 . क्या यह सही ही नहीं है कि-- यह मन्त्र देवी का नहीं है, बल्कि ' ॐ देव' का है ?<br />\r\n<br />\r\n2 . क्या यह सही ही नहीं है कि इस मन्त्र का अभीष्ट स्त्री प्रधान देवी नहीं है बल्कि पुरुष प्रधान ॐ देव है ?<br />\r\n<br />\r\n3 . क्या यह सही ही नहीं है कि--गायत्री मात्र छन्द है और गायत्री छन्द में ॐ देव मन्त्र वर्णित है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>जब मन्त्र पुलिंग (पुरुष) प्रधान ॐ देव का है तो गायत्री देवी कहाँ से आ गयी ? क्या यह उचित और सही होगा कि मन्त्र के अभीष्ट 'ॐ देव' को विस्थापित कर या हटाकर उनके स्थान पर छन्द (गायत्री) की झूठी-काल्पनिक मूर्ति-फोटो-चित्र-आकृति देवी की बनाकर स्थित कर उसी का प्रचार-प्रसार किया-कराया जाय ? क्या यहाँ 'ॐ-देव' विस्थापन रूप देव द्रोहिता ही नहीं है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इसका मुखौटा श्रीकृष्ण जी से सराबोर है । महाकुम्भ जैसे विश्व के सबसे बड़े धर्म मेले में इसका पण्डाल और मुख्य द्वार ऐसा सजाया जाता है कि लगता है कि कृष्ण जी की सबसे बड़ी भक्ति और प्रचारक संस्था यही है। मगर अन्दर से देखिये तो कितनी बड़ी धूर्तबाजी है कि श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान है । श्रीराम और श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान और अपने लेखराज तथाकथित ब्रम्हा बाबा का पूर्ण सम्मान जैसे अज्ञानता मूलक बकवास ही देखने को मिलेगा, जिसका किसी भी ग्रन्थ से कोई प्रमाण नहीं-- कोई मान्यता नहीं, फिर भी राजनेता तो इसको और ही सिर-माथे चढ़ा लिये हैं जिससे जनता भी फँसती जाती है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ब्रम्हा जी और श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी का नाम घसीटते हुए यह कहना कि ये लोग भी गायत्री देवी का समर्थन किये थे, स्वीकार किये थे--यह सरासर झूठी बात है । यदि ग्रन्थों में है भी तो यह श्रीराम शर्मा जैसे ही नकली-ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी तथाकथित ऋर्षियों-लेखकों द्वारा ही उल्लिखित कर दिया गया है क्योंकि श्रीविष्णु -राम-कृष्ण जी के चाहे सैध्दान्तिक पक्ष हों या व्यावहारिक पक्ष-कहीं भी और किसी के पक्ष में भी देव-द्रोहिता रूप दुर्गन्ध नहीं मिल सकता । कदापि नहीं मिल सकता क्यकि ये श्रीविष्णुजी-श्रीराम जी और‌ श्रीकृष्ण जी-- तीनों ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान् के ही साक्षात् पूर्णावतार थे । इसलिए ऐसा देव द्रोहिता रूप दुष्कृत्य इन तीनों और ब्रम्हा जी पर भी नहीं साटना चाहिए क्योंकि तीनों ही अवतारी सत्पुरुष और ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता थे। यदि किसी के दुष्प्रयास से सट भी गया हो, तो भी उसे तत्काल ही अलग करके पढ़ने-जानने-समझने-ग्रहण करने का सत्प्रयास करना चाहिए क्योंकि देवद्रोहिता रूप असुरता ही त्याज्य और सत्यता और सर्वोच्चता-सर्वश्रेष्ठत्व सदा-सर्वदा ही ग्राह्य होना चाहिए । ग्राह्यय होना ही चाहिए ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर आप सब निश्चित ही जान-समझ गए होंगे कि गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं, कोई मन्त्र भी नहीं । वह तो एक छन्द मात्र है । मन्त्र 'ॐ देव' का है और मन्त्र का अभीष्ट 'ॐ देव' ही है। यही सही है । इसे ही स्वीकार भी करना चाहिए ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>किसी भी संस्कृत भाषा वाले से मैं जानना चाहूँगा कि क्या गायत्री छन्द नहीं है ? निश्चित ही उन्हें कहना पडेग़ा कि छन्द ही है । पुन: पूछूँ कि मन्त्र स्त्रीलिंग सूचक या पुलिंग सूचक ? तो निश्चित ही उत्तर मिलेगा कि पुलिंग सूचक । पुन: पूछूँ कि फिर तब यह स्त्री रूपा गायत्री देवी कहाँ से आ गयी? तो सिवाय फालतू खींचतान के उनके पास इसका यथार्थत: कोई उत्तर नहीं । ॐ-देव मन्त्र के अभीष्ट देव को हटाकर--समाप्त करने का दुष्प्रयास करते हुए गायत्री छन्द के नाम पर काल्पनिक और झूठी स्त्री रूपा आकृति बना-बनवा कर समाज को वास्तविक ॐ-देव से विमुख क्यों किया जा रहा है ? अपने आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड को छोड़कर सत्यधर्म को स्वीकार क्यों नहीं किया जा रहा है ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>श्रीराम शर्मा और उनका तथाकथित गायत्री परिवार वाले क्या मेरे इस प्रश्न का उत्तार देने का प्रयास करेंगे- कर सकेगें कि श्रीराम शर्मा वाले 'ब्रम्हवर्चस भवन (हरिद्वार में) ॐ देव मन्त्र (तथाकथित गायत्री मन्त्र) के चौबीस अक्षरों पर काल्पनिक और झूठी चौबीस देवियों की मूर्तियाँ बना-बनवा कर कि- ॐ देवी, भू: देवी, भुव: देवी, स्व: देवी, तत् देवी आदि-आदि जनमानस में झूठ ढोंग-आडम्बर-पाखण्ड की सभी सीमाओं को पार नहीं कर गए हैं ? क्या इससे भी बढ़कर देवद्रोहिता रूप असुरता का कोई कार्य हो सकता है ? ऐसा कौन सा असुर-राक्षस था जो शंकर अथवा देवी का भक्त न हो और देव द्रोही न हो । असुरता का यही तो एक मात्र लक्षण है--देव द्रोही होना और देवी-शंकर पूजक होना कि झूठी और काल्पनिक गायत्री देवी की झूठी और काल्पनिक आकृतियाँ-मूर्तियाँ गढ़-गढ़वा कर उसे इतना प्रचारित किया-कराया जाय---इतना प्रचारित किया-कराया जाय-- इतना प्रचारित किया-कराया जाय कि 'ॐ देव' भी कोई कुछ है, इसके अस्तित्त्व-मान्यता की भावना ही समाज से समाप्त हो जाय। क्या यह देव-द्रोहिता रूप घोर असुरता नहीं है ? क्या ऐसे कुकृत्य को इसलिए स्वीकार कर लिया जाय कि यह ऋषि परम्परा से चला आ रहा है और बड़े-बड़े आचार्य पण्डितों ने इसे मान्यता दिये अथवा स्वीकार किये हैं ? नहीं! नहीं !! कदापि नहीं !! ऋषि परम्परा यदि 'सत्य' के प्रतिकूल हो और 'ॐ देव' के खिलाफ हो तो उसे कभी भी मान्यता नहीं मिलनी चाहिए और स्वीकार्य भी नहीं होना चाहिए ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>जो देवी स्वत: ही झूठ और कल्पना पर आधारित हो, उसकी पूजा-आराधाना कैसी ? उसकी पूजा-आराधना से लाभ क्या ? उसकी पूजा-अराधना भी क्या झूठी और काल्पनिक ही नहीं होगी ? और जब पूजा-अराधना करना ही कराना है तो 'ॐ देव' और उनके पितारूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् रूप परमसत्य का ही क्यों न किया कराया जाय ? सब भगवत् कृपा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364<br />\r\n </p>\r\n', '1656332550-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (25, 'To Jai Guru Dev', '<p><strong>7. जय गुरुदेव और पंचनाम</strong></p>\r\n\r\n<p><br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तथाकथित भगवानों की भीड़ में एक भगवान् ऐसे भी हैं जिन्हें कि परमात्मा-परमेश्वर और उनके तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान का तो लेशमात्र भी कुछ अता ही पता नहीं, आत्मा-ईश्वर और उनकी जानकारी-प्राप्ति से सम्बन्धित योग-साधना अथवा अध्यात्म की भी कोई जानकारी नहीं। यहां तक कि जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं और इसकी जानकारी-दर्शन प्राप्ति से सम्बन्धित स्वाध्याय की भी कोई जानकारी नहीं है । इतना ही नहीं, यहां एक बात और भी जानने का प्रयास करें कि इन्हें मन्त्र का भी अर्थ-भाव पता नहीं है कि मन्त्र कैसा होता है, किसलिये होता है, मन्त्र जाप का ढंग क्या है, अभीष्ट और अभीष्ट का मन्त्र एक का और एक होना चाहिए अथवा पांच आदि कुछ भी पता नहीं । ये तथाकथित भगवान जी, तथाकथित जयगुरुदेव महाशय जी हैं जो अपना नाम तो सन्त तुलसीदास बताते हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>किसी भी तथाकथित सन्त-महात्मा-गुरु-सद्गुरु का खिलाफत अथवा निन्दा-आलोचना करने-लिखने का न तो मेरा आचरण-स्वाभाव है और न तो शौक ही । मगर असत्य-अधर्म विनाशक और सत्य-धर्म संस्थापक होने-रहने के कारण जहाँ कहीं भी सिध्दान्तत: और व्यवहार में भी असत्य-अधर्म तथा जनमानस के बीच धोखा-धड़ी, छल-कपट, धन और धरम भाव का दोहन-शोषण होने लगता है अथवा किया-कराया जाना शुरु हो जाता है, तब वहां पर ऐसा करने वाले ढ़ोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन- धर्मोपदेशकों के वास्तविकता को जनमानस के समक्ष रखना ही पड़ता है । यहां पर भी सत्यता-वास्तविकता के आधार पर ही जनकल्याणार्थ तथाकथित जयगुरुदेव उर्फ सन्त तुलसीदास की वास्तविकता भी जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, रखा जा रहा है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>हम यह महसूस कर रहे हैं कि मेरे उपर्युक्त कथनों से तथाकथित जयगुरुदेव के शिष्यों-अनुयायिओं को गुरु में आस्था-निष्ठा और गुरु भक्ति के चलते थोड़ा-बहुत दु:ख क्लेश अवश्य ही मिलेगा, मगर उन शिष्यों-अनुयायी बन्धुओं से मेरा साग्रह अनुरोध है कि आस्था-निष्ठा मात्र गुरु में नहीं अपितु खुदा-गॉड-भगवान् में होनी-रहनी चाहिये । भक्ति भी मात्र गुरु की नहीं अपितु भगवान् की ही होनी चाहिए । ऐसा कहने का अर्थ यह कदापि नहीं लगना चाहिए । ऐसा कहने का अर्थ यह कदापि नहीं लगाना चाहिये कि मैं 'गुरु द्रोही' हूं क्योंकि किसी भी जिज्ञासु भक्त का लक्ष्य-उद्देश्य गुरु खोजना-पाना नहीं होता बल्कि 'ज्ञान और भगवान्' खोजना-पाना होता है। गुरु तथाकथित सद्गुरु तो एक समय में ही हजारों हजार की संख्या में होते हैं और सभी तथाकथित गुरु-सद्गुरु ही अपने शिष्यों-अनुयायिओं में अपने को परमात्मा-परमेश्वर खुदा-गॉड-भगवान् और भगवान् का अवतार ही घोषित करते-कराते रहते हैं जबकि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह खुदा-गॉड-भगवान् तो सदा-सर्वदा से ही केवल एकमेव 'एक' ही था, है और रहने वाला भी होता है । फिर तो इन हजारों-हजार तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन रूपी तथाकथित भगवानों में से कोई भी एकमेव 'एक' ही तो सही होगा, शेष सभी तो झूठ ही तो होंगे।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>अब आप बन्धुजन थोड़ा भी तो सोचने-विचारने का कष्ट करें कि उपर्युक्त पैरा की बातें क्या बिल्कुल ही सत्य पर आधारित नहीं हैं ? क्या वर्तमान में भी एक ही समय में ही हजारों-हजार तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन रूप तथाकथित भगवान् जी लोग प्रकट नहीं हो गये हैं? पुन: एक बार आप सबसे पूछूं कि इन हजारों-हजार तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन रूप तथाकथित भगवान् जी लोगों को-- सभी को ही भगवान् और भगवदवतार की मान्यता दे दिया जाय ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! ऐसा सम्भव भी नहीं है क्योंकि खुदा-गॉड-भगवान् सदा-सर्वदा से 'एक' ही था, 'एक' ही है और सदा-सर्वदा के लिये 'एक' ही रहने वाला भी होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>गुरु-सद्गुरु बन-बना जाना तो बहुत ही आसान है, मगर गुरुत्त्व और सद्गुरुत्त्व के कर्तव्य का पालन करना उतना आसान नहीं होता जितना कि बनने वाले गुरु-सद्गुरुजी लोग मान बैठे हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364</p>\r\n', '1656333384-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'); INSERT INTO `pagedetailstb` (`id`, `pagename`, `long_desc`, `image_name`, `added_on`) VALUES (26, 'To Asha Ram Bapu', '<p><strong>8. आशाराम बापू, एक कथावाचक</strong></p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>कथावाचक अथवा शास्त्रीगण</p>\r\n\r\n<p>मुरारी बापू, आशाराम बापू, राम किंकर दास, पंक्षी देवी और ऐसे-ऐसे बहुत से कथावाचकगण हैं जो कर्मकाण्डी मान्यता के अन्तर्गत किसी शास्त्र विशेष पर (जैसे भागवत् महापुराण, रामायण, श्रीरामचरित मानस, गीता आदि-आदि ग्रन्थों पर) थोड़ा-बहुत अध्ययन- अध्यापन कर-कराकर खासकर श्रीराम और श्रीकृष्ण जी के लीला वर्णनों को जो हंसाने वाला हो, रुलाने वाला हो, जनमानस को रिझाने वाला हो अर्थात् ऐसे लीला प्रकरणों को जिसमें जनमानस प्राय: रुचि लेते हैं और अधिकाधिक दान-दक्षिणा देते हों, उसे खूब इधर-उधर के प्रकरणों को ले-लेकर जोड़-घटाकर वर्णन करते हैं-- इसकी परवाह किये वगैर कि इनकी अधिकतर व्याख्यायें जोड़-घटाव और मनोरंजन मात्र के लिये हैं, न कि धर्म-सम्बन्धी कोई खास उत्प्रेरक । ऐसा वर्णन करते-करते जनमानस को कभी हँसाते हैं तो कभी रोते-रुलाते हैं और देखते हैं कि अब जनमानस इनके पक्ष-समर्थन में आ गया है तब वे अपने उद्देश्य मूलक दान-दक्षिणा वाले उध्दरणों को मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थों से खोज-खोज कर भाव में बहते- बहाते हुये श्रोतागण के बीच काफी प्रभावक तरीके से प्रस्तुत करते हैं और उसी में झूम-झाम कर जनता भी खूब (बहुत) ही भेंट-चढ़ावा देना शुरू कर देती है । लगता है कि मुक्ति पाने का इस दान-दक्षिणा- भेंट-चढ़ावा के सिवाय दूसरा कोई उपाय ही नहीं !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ऐसे शास्त्री-कथावाचक जन प्राय: 'भूत' प्रधान होते हैं। वर्तमान के तो ये घोर विरोधी होते हैं । ये वर्तमान अवतार के विषय में तो जनमानस के धर्मभाव में वर्तमान कालिक अवतरित भगवत्ता के विरोध रूप मीठा जहर घोलने की सारी जिम्मेदारी अपने ही सिर-माथे ले लेते हैं। इनके इन विरोधात्मक बातों का जनमानस के धर्मभाव रूप दिल-दिमाग पर भारी दुष्प्रभाव पड़ता है क्योंकि इनके सारे तथाकथित धर्मोपदेश भूतपूर्व भगदवतारियों (भगवान श्रीविष्णु जी, भगवान श्रीराम जी और भगवान श्रीकृष्ण जी) के लीलाचरित्रों पर ही अधिक होते हैं। चूँकि ये भगवान के पूर्व अवतारों के लीलाचरित्रों को ही विशेष मान्यता देने वाले होते हैं जिसपर जनमानस की भी मान्यता सहज ही ठहर जाती है, इसलिये इनके बातों पर जनमानस अधिकाधिक विश्वास करने लगता है और वर्तमान अवतार के प्रति नाना प्रकार के विकृत-भ्रान्तियों का शिकार होकर विमुख हो जाता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान की महत्ता इनके पल्ले बिल्कुल ही नहीं पड़ती । न तो ये योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के महत्ताा को जानते ही हैं, न तो स्वयं स्वीकार ही करते हैं और न जनमानस को स्वीकार करने देते हैं । यदि किसी श्रध्दालु भक्त में योगी-महात्माओं और वर्तमान अवतार के प्रति जिज्ञासा-श्रध्दाभाव बनती भी है तो ये उसको भी नाना तरह से समझा-बुझाकर उसके वर्तमान कालिक श्रध्दाभाव को समाप्त करते हुये भूतकालिक स्थिति-परिस्थितियों से जोड़-जुड़ाकर अपने में जोड़े-बनाये रखने का प्रयत्न करते रहते हैं क्योंकि पूर्णावतार तो पूर्णावतार ही है, वर्तमान कालिक आध्यात्मिक महात्मागण के सामने भी इनका कोई अस्तित्व नहीं होता है । आध्यात्मिक महात्मागणों के समक्ष भी इनका अस्तित्व नगण्य सा होता है अर्थात् नहीं के बराबर होता है । यदि ये वर्तमान कालिक महात्मन और पूर्णावतार को स्वीकार करने दें तो इनका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाये । फिर ऐसा ये क्यों करें ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>धर्म-प्रेमी सत्यान्वेषी सांस्कारिक जिज्ञासुजन वर्तमान कालिक पूर्णावतार के स्थिति-परिस्थिति वश सत्संग- धर्मोपदेशों को सुन-सुनकर और वर्तमान लीला कार्यों को सुन-जानकर प्रभावित और आकर्षित होकर अपने विश्वसनीयता को पुष्ट करने के लिये जब वे राय-परामर्श हेतु इन कथावाचक-शास्त्री जनों के पास जाते हैं तो ये सब विशेष ही रुचि ले-दे करके उनके समक्ष शास्त्रीय प्रमाणों को प्रस्तुत कर-करके ऐसे-ऐसे भ्रामक सुझाव देते हैं कि- अरे ! वो भगवान बनता है ! पिछले भगवानों को कोई मान्यता नहीं देता हैं ! आप लोग झुठे भरम-भटक रहे हो -फंस रहे हो ! उनके आंखों में सम्मोहन है ! जो कोई भी उनके सामने पड़ेगा तो उनको वे हिप्नोटाइज (सम्मोहित) कर लेगें ! क्या श्रीविष्णु जी, श्रीराम जी और श्रीकृष्ण जी भगवान नहीं हैं जो आप लोग उन्हें छोड़कर इनके पीछे जाते हो ! आदि-आदि प्रकार से उन जिज्ञासुजनों को समझाने का इन कथावाचक-शास्त्रीजनों का मुख्य कारण-उद्देश्य यह होता है कि यह जनमानस जब उन्हें (वर्तमान कालिक पूर्णावतार को) स्वीकार कर लेगा तो उन्हीं के अनुसार रहने-चलने लगेगा, फिर हम लोगों की सारी मान्यतायें ही समाप्त होने लगेंगी--हम लोगो को मिलने वाला मान-मर्यादा-चन्दा- दान-दक्षिणा-भेंट-चढ़ावा और कार्यक्रमों की फीस आदि भी बन्द हो जायेंगे-- उनके सामने हम लोगों को कोई पूछेगा ही नहीं --इस प्रकार के भय से ये कथावाचक-शास्त्रीजन ग्रसित हो जाते हैं जिसका दुष्परिणाम यह होता है कि वर्तमान कालिक कुछ इने-गिने सांस्कारिक धर्म-प्रेमी जिज्ञासुओं को छोड़कर अधिकतर लोग ही (प्राय: सभी लोग ही) भरम-भटक कर वर्तमान कालिक पूर्णातार से मिलने वाले 'सम्पूर्ण' और 'परमलाभ' से बंचित रह जाते हैं। वे वर्तमान में तो 'हटो-हटो' घोषित करने लगते हैं और चले जाने के पश्चात् 'हरे-हरे' कह-कह कर पुकार करने लगते हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन्हीं कथावाचक शास्त्रीजनों में जो अधिक नाटकीय यानी पूर्वकालिक अवतारों के लीला चरित्रों के अन्तर्गत विरोधाभाषी दु:ख और कष्टकारक प्रकरणों को लेकर मंच से जनमानस को रोते-रुलाते तथा अनुकूल और खुशहाल प्रकरणों को ले-ले करके हंसते-हंसाते और रिझाते हुये प्रभावित करते हैं और तब जब जनमानस के भारी भीड़ को अपने पीछे उमड़ता हुआ देखते हैं तो इन्हें अब कथावाचक-शास्त्री बने रहने में परता नहीं पड़ पाता है । तब ये लोग जनमानस के धन और धर्मभाव को उनके बहते हुये भक्ति-भाव के चलते दोहन-शोषण करते हुये सन्त-महात्मा बनने लगते हैं और कथा-प्रवचन करते-करते उसी में मनमाना ऊल-जलूल योग-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान पर भी उपदेश देने लगते हैं और उसी को कभी कथा, कभी प्रवचन और कभी सत्संग कह-कहकर वर्णन करने लगते हैं । यानी इन्हें इन तीनों का अन्तर भी नहीं मालूम होता है। योग या अध्यात्म और तत्त्वज्ञान पर इस प्रकार दिये गये इनके उपदेश सरासर भ्रामक तो होते ही हैं, मिथ्या यानी गलत भी होते हैं, लेकिन जनमानस उनके चालों-जालों में फंसकर उसी भरम-भटकाव का शिकार हो जाया करता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इतना ही नहीं, ये कथावाचक शास्त्रीजन इन भरमे-भटके जनसमूह को अपने पीछे देखकर अब ये कथावाचक-शास्त्री कहलाने में अपने को अपमानित और शर्म तो महसूस करते ही रहते हैं, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा बने रहने -कहलाने में भी अब इन्हें अपमान-शर्म महसूस होने लगता है और पूर्वकालिक लीला-अवतार का चरित्र-वर्णन करते-करते स्वयं लीला पुरुष बनने लगते हैं और अपने पीछे रहने-चलने वाले समर्पित-भक्तों की टीम-टोली बनाकर अब कुछ तो अपनी मान्यता भी लीला पुरुष-पूर्णावतार के रूप में प्रस्तुत करने लगते हैं । राजसत्ता मिल जाती तो ये पूर्ण रावण जैसे ही हो जाया करते फिर भी राजविहीन रावणीय विचार-भाव वाले तो ये होते ही हैं। नि:संदेह यह सत्यता पर आधारित उल्लेख है, न कि किसी का किसी प्रकार निन्दा-अपमान करने के अन्तर्गत।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ये कथावाचक-शास्त्री जी लोग इस बात को भूल जाते हैं कि आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-दिव्य ज्योति- ज्योर्तिविन्दु रूप शिव और इनके प्राप्ति से सम्बन्धित योग-अध्यात्म और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-भगवान और इनके प्राप्ति से सम्बन्धित 'तत्त्वज्ञान' विधान-- ये दोनों ही पढ़ने-सुनने और विचार मात्र से जानने-समझने में आने वाले नहीं हैं, भले ही लाखों-करोड़ों जन्मों तक पढ़ा-समझा-विचार किया जाय । इन दोनों (योग- अध्यात्म और तत्त्वज्ञान) की वास्तविक जानकारी क्रमश: सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) और पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) से ही यथार्थ जानकारी और साक्षात् दर्शन सहित वास्तविक समझ की प्राप्ति सम्भव है । चाहे जो कोई भी हो, चाहे जितना बड़ा शास्त्री-विद्वान-दार्शनिक आदि क्यों न हो, मगर योग- अध्यात्म की वास्तविक जानकारी सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) के सिवाय सम्भव ही नहीं है क्योंकि यह शिक्षा और विचार-मनन-चिन्तन का विषय ही नहीं है। यह तो योग-क्रिया अथवा अध्यात्मिक क्रिया अथवा समुचित साधनात्मक पध्दति से ही सम्भव है । ठीक इसी प्रकार 'तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान' भी शिक्षा- स्वाध्याय (मनन-चिन्तन-विचार) आदि से तो सम्भव ही नहीं, योगिक क्रियाओं से भी सम्भव नहीं है। तत्त्वज्ञान के लिये पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ताा (सदगुरु) की शरणागति और एकमात्र केवल उन्हीं से इनकी प्राप्ति सम्भव है । पूरे ब्रम्हाण्ड में अन्य किसी से भी नहीं ! कदापि नहीं!!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन कथावाचक-शास्त्री लोगों को कौन समझावे कि योग-सिध्द सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) ही बनने-बनाने का पद नहीं होता, और जब अध्यात्म का पिता रूप 'तत्त्वज्ञान' और आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह के भी पितारूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-भगवान की प्राप्ति ही पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) के वगैर सम्भव नहीं है, तब उस परमपद पर मनमाना अपने आपको घोषित करना--लीला पुरुष बनना--इसे झूठा और भ्रामक मात्र न कहकर घोर हास्यास्पद भी कहा जाय तो भी कम ही है क्योंकि भगवान और भगवदवतार कोई बनने-बनाने का विषय-वस्तु-पद नहीं होता है ! यह तो वह पद है जो था, है और सदा रहने वाला भी है। 'एक' था, 'एक' है और सदा 'एक' ही रहने वाला भी है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ये कथावाचक-शास्त्रीगण जी लोग पूर्व के अवतार और देवी-देवताओं का लीला वर्णन और कथा-चित्रण करते-कराते हुये इस बात को महत्तव क्यों नहीं देते कि पूर्णावतार अपने अनुयायी-भक्त-सेवकों से न तो किसी का भी कोई मन्त्र जाप करवाता है, न तो किसी अन्य का कोई पूजा-पाठ करवाता है और न तो किसी अन्य देवी-देवता का कोई कथावाचन ही करता-कराता है, न तो किसी शास्त्र विशेष पर ही कथावाचन करता है। इतना ही नहीं, वह किसी से दान-दक्षिणा भी नहीं लेता है । अपने उपदेश की कोई फीस भी नहीं मांगता । पूर्णावतार मन्च पर कभी नाच-गान कर किसी का कीर्तन नहीं करता-कराता है । श्रीराम जी श्रीविष्णु जी का और श्रीकृष्ण जी श्रीराम जी का अपने उपदेश में श्रोतागण से कीर्तन नहीं करते-कराते थे । जाप नहीं कराते थे, अजपा-जप की क्रिया और ध्यान भी नहीं करते-कराते थे बल्कि स्वयं अपने वर्तमान कालिक पूर्णावतार रूपी भगवत्ता को 'तत्त्वज्ञान' के प्रायौगिक विधान से साक्षात् कराते हुये उपदेश करके गोपनीयता की मर्यादा रखते हुये भगवत्तत्त्वम् को जनाने-समझाने और साक्षात् दिखलाते हुये अपने वास्तविक भगवद् रूप का परिचय-पहचान कराते हैं और समर्पित शरणागत भक्त-सेवकों को सम्पूर्ण (संसार-शरीर-जीव- ईश्वर और परमेश्वर) को यथा स्थान और एकत्त्व बोध रूप में भी अपने विराट रूप सहित साक्षात् दर्शन भी कराते हैं।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ये वर्तमान कथावाचक जी लोग अपने भक्तजनों को विराट दर्शन कराने की बात तो दूर रही, क्या वे स्वयं भी मामूली जीव का भी दर्शन किये हैं ? नहीं ! कदापि नहीं!! इन कथावाचक शास्त्रीजनों को तो परमेश्वर का दर्शन तो दुर्लभ ही रहा है, है भी, ईश्वर दर्शन भी इनके लिये दुर्लभ ही चीज है। इतना ही नहीं, ऐसा धरती का कोई कथावाचक शास्त्री नहीं जो कह सके कि हम जीव मात्र को भी जाने-देखे हैं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इन शास्त्री लोगों की बात तो अलग हटाइये, वर्तमान कालिक तथाकथित आध्यात्मिक गुरुजन और बनने वाले भगवान जी लोग भी नहीं कह सकते कि 'हम जीव जानें-देखें हैं ।' क्या धरती का कोई भी कथावाचक-शास्त्री और आध्यात्मिक गुरुजन भी मेरे इन उपर्युक्त कथनों को गलत प्रमाणित करने का साहस कर सकता है ? जबकि मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) तो आवश्यकता पड़ने पर भगवद् समर्पण-शरणागत के शर्त पर प्रायौगिक आधार पर भी अपने उपर्युक्त समस्त कथनों को प्रमाणित-सत्यापित करने-कराने के लिये सदा-सर्वदा तैयार हूं ।<br />\r\nपूर्णावतार-तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) चाहे वे श्रीविष्णु जी हों, चाहे श्रीराम जी हों अथवा चाहे श्रीकृष्ण जी महाराज ही क्यों न हों, अपने समर्पित-शरणागत भक्त-सेवकों को 'तत्त्वज्ञान' देने के अन्तर्गत संसार-शरीर-जीव-ईश्वर (आत्मा-ब्रम्ह) माया और परमेश्वर (परमात्मा-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-भगवान) को सरहस्य बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन सहित क्रमश: शिक्षा, स्वाध्याय, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान आदि समस्त जानकारियों को जनाते-बताते थे । मगर व्यवहार में किसी से मन्त्र-जाप, तान्त्रिक क्रिया, जप-तप और यहां तक की योग या अध्यात्म की ध्यान-क्रिया-साधना आदि-आदि कुछ भी नहीं करवाते थे, बल्कि सीधे- सीधे अपनी सीधी भक्ति-सेवा में लगाते थे। इसकी परवाह किये वगैर कि कोई क्या कहेगा और क्या करेगा। वर्तमान में सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस जी भी तो वही और वैसा ही कर-करा रहे हैं । कोई भी जांच-परख कर निर्णय ले सकता है कि क्या ये उपर्युक्त बातें श्रीविष्णु- राम-कृष्णजी के जैसा ही-- सही ही नहीं है अथवा नहीं ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>हम तो समस्त कथावाचक-शास्त्रीजनों से और योग-साधना-आध्यात्मिक क्रिया कराने वाले अध्यात्मवेत्तागण् महात्मनों से भी यही कहेंगे कि वे थोड़ा भी तो जानने-समझने की कोशिश तो करें और किसी भी गुरुजन के शिष्य जन भी उपर्युक्त पैरा के तथ्यों को जानने-समझने की कोशिश भी तो करें कि क्या पूर्वोक्त पैरा की सारी की सारी बातें सत्य ही नहीं है ? सत्य ही हैं और बिल्कुल ही सत्य ही हैं । अब समस्त तथाकथित भगवान जी लोगों को उपर्युक्त आधार पर आत्म-निरीक्षण कर-कराकर ईमान से सच्चाई को अपना कर वर्तमान कालिक पूर्णावतार-तत्त्ववेत्ताा को अपनाकर किसी अपमान-मान-सम्मान को आड़े लाने के बजाय समर्पित-शरणागत होकर परमलाभ से लाभान्वित होते हुये अपने-अपने शिष्यगण के जीवन को भी सफल-सार्थक बनाने में बेहिचक आगे आना चाहिये । क्या नहीं आना चाहिये ? जांच-परख की मनाही तो कर नहीं रहे हैं, जांच-परख किया जाय, खूब किया जाय, मगर हर प्रकार से सत्य ही होने पर तो स्वीकार किया जाय ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>भगवान् के शरण में आने से किसी की भी कभी भी कोई मर्यादा नहीं गिरती अपितु सदा-सर्वदा बढ़ती ही रहती है । उदाहरण के लिये देखा जाय कि सत्ययुग में श्रीविष्णु जी के समय में, त्रेतायुग में श्रीराम जी के समय में और द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी के समय में वर्तमान की तरह ही बहुत से योगी-यति-ऋषि- महर्षि- ब्रम्हनिष्ठ-तथाकथित भगवानों की कमी नहीं थी, मगर इन लोगों के शिष्यजनों का भगवद् भक्ति-सेवा के अस्तित्त्व और महत्ता-मर्यादा के अन्तर्गत तो कहीं किसी का कोई अस्तित्व-मर्यादा नहीं मिलेगा । क्या कहीं किसी का अस्तित्व महत्ता-मर्यादा है ? नहीं! कदापि नहीं !! इन तथाकथित ऋषि-महर्षि-ब्रम्हनिष्ठ जन भी भक्ति-सेवा के अस्तित्व-महत्ता-मर्यादा में कहीं नहीं है जबकि वे भगवान के पूर्णावतार तो नहीं ही बन पाये, भगवान के समर्पित-शरणागत गिध्द (जटायू), कौआ (काक भुषुण्डि), बानर (हनुमान), भालु (जामवन्त) आदि-आदि के बराबर भी होने-रहने की मान्यता भी नहीं पा सके, बड़े होने की बात ही कहाँ ? क्या आप इन तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों को उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर समझने-सम्भलने की कोशिश नहीं करना-कराना चाहिये? करना-कराना ही चाहिये। अवश्य ही करना-कराना चाहिये क्योंकि हर किसी का मानव जीवन एक अनमोल रतन है । इसको कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। ईमान से सत्यता को अपनाकर अपने जीवन को सार्थक-सफल बना ही लेना चाहिये ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यदि कथावाचक-शास्त्री जी लोग मन्त्र जाप आदि-आदि कर-करवाकर भगवान बनना चाहते हैं और पतनोन्मुखी सोहं-साधना वाले तथाकथित अध्यात्मवेत्ता जी लोग आध्यात्मिक क्रिया कर-करा करके भगवान बनना चाहते हैं तथा उपर्युक्त दोनों वर्ग अपने में और सबमें समान रूप से भगवान होने-रहने की उद्धोषणा करते हैं-- तो क्या ऐसा कभी पूर्व के अवतारों में हुआ है ? नहीं ! कदापि नहीं !! इतना ही नहीं, नारद जी यदि जाप भी करते थे तो श्रीविष्णुजी का- 'नमो भगवते वासुदेवाय' अथवा 'श्रीमन् नारायण, नारायण, नारायण' अथवा 'हरेर्नामैव, हरेर्नामैव, हरेर्नामैव' और हनुमान जी तो इन पूर्व के अवतार (श्रीविष्णु जी के) नारद जी वाले इन नामों से किसी का भी कभी भी कोई जाप न करके केवल वर्तमान का 'जय श्री राम, जय श्री राम, जय श्री राम' कह-कह करके जयकार-उद्धोष करते रहते थे। ऐसे ही अर्जुन ने भी कभी भी श्रीविष्णुजी और श्रीरामजी का नाम नहीं जपे बल्कि वर्तमान कालिक श्रीकृष्ण जी के ही आज्ञानुसार रहे-चले।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>क्या इन पूर्वोक्त तथ्यों के आधार पर अपनी स्थिति और श्रेणी हर किसी तथाकथित भगवान् को नहीं जान-परख लेना चाहिये ? मन्त्र जाप, नाम जाप, योग-क्रिया-साधना मात्र आदि करना-करवाना अपूर्णता-अधूरापन का संकेत है। क्या नहीं है ? अवश्य ही है । ऐसे लोग भी कभी भगवान और भगवदवतार हो सकते हैं ? नहीं ! कदापि नहीं !! भगवान् और भगवदवतार इन मन्त्र जाप, नाम जाप, योग की क्रियाकलाप आदि से परे और परम होता है जो 'एक' था, 'एक' है और सदा ही 'एक' ही रहने वाला भी है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>शिष्य-अनुयायीगण चाहे वे जिस किसी गुरु के ही हों, ईमान से सच्चाई को अपनावें तो नि:संदेह यह रहस्य उनके सामने प्रकट हो जायेगा कि जीवन का उद्देश्य गुरु खोजना-पाना और गुरु-भक्ति मात्र करना-कराना न कभी था, न आज है और न आगे रहेगा । खोजना-पाना तो भगवान है ! मोक्ष है ! भक्ति तो भगवान की होती है, गुरु मात्र की नहीं ! गुरु तो मात्र आदर-सम्मान का पात्र आदरणीय हो सकता है, मगर पूज्य-पूज्यनीय तो एकमात्र परमप्रभु परमेश्वर-खुदा- गॉड-भगवान ही हो सकता है अन्यथा दूसरा कोई भी नहीं ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>जब हम गुरु को ही पाने में और गुरु में ही चिपकने में लग जायेंगे तब तो गुरु एक साथ ही हजारों-हजारों होते हैं, हैं भी ! क्या सभी गुरु भगवान जी ही हैं ? क्या इससे आडम्बर-ढोंग और पाखण्ड को बढ़ावा नहीं मिलेगा? भगवान तो 'एक' था, है और सदा ही 'एक' रहने वाला है। क्या इससे वास्तविक परख-पहचान नहीं हो जायेगा कि हम गुरु को नहीं, भगवान को स्वीकार करेंगे ? गुरु तो मात्र एक डाकिया (Postman) के समान होता है जो भगवान के ज्ञान को भगवद् भक्तों को देता-रहता है । किसी भी गुरु से पूछा जाय तो पता चलेगा कि ज्ञान वास्तव में भगवान् का होता है और भगवान् के लिये होता है । क्या यह सही ही नहीं है ? निश्चित ही सही है । जब हम भगवान खोजेंगे तब हम आडम्बरी- ढोंगी- गुरुओं में भटकने-लटकने नहीं पायेंगे । अपने सच्चे मन्जिल तक अवश्य पहुंच जायेंगे। क्या दत्तात्रेय सच्चाई खोजने हेतु चौबीस गुरुओं तक नहीं बढ़े ? क्या काग भुषुण्डि के लोमस ऋषि ब्रम्हनिष्ठ गुरु नहीं थे ? क्या बाल्मीकि-वशिष्ठ आदि सभी गुरुजन तपोनिष्ठ-ब्रम्हनिष्ठ नहीं थे जो श्रीराम जी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुये चरण भक्ति-सेवा मांगे ? क्या नारद जी ब्रम्हनिष्ठ नहीं थे जो केवल पूर्णावतारी श्रीविष्णु-राम-कृष्णजी के ही भक्ति को अपनाये? इतना ही नहीं, आप लोग एकबार और देख लीजिये। पुन:दोहरा दे रहा हूं कि किस ऋषि-महर्षि- सन्त-महात्मा-ब्रम्हनिष्ठ के शिष्य का अस्तित्तव- महत्ता-मर्यादा भक्ति-सेवा के अन्तर्गत जनमानस में है? किसी का भी नहीं ! अरे शिष्यों की बात तो छोड़िये! इन तथाकथित गुरुजनों का अस्तित्तव और मर्यादा भी भगवद् भक्त-सेवक गिध्द (जटायु), कौआ (काक भुषुण्डि) के बराबर भी नहीं रहा है । महादेव-महेश्वर को भी कौआ (काक भुषुण्डि) का शिष्यत्तव ग्रहण करने में कोई मान-सम्मान आडे नहीं आया । अपमान महसूस नहीं हुआ । क्या महादेव से भी बड़ा कोई ऋषि-महर्षि-ब्रम्हर्षि था, या है ? यदि कोई कहता है कि हमारे गुरुदेव उनसे भी बड़े ही है तो यह सरासर झूठ और छलावा है । इसकी प्रमाणिकता की आवश्यकता हो तो मेरे (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के) पास सद्ग्रन्थीय मान्यताओं के आधार पर भरपूर प्रमाण है । जब महादेव-महेश्वर को भगवान् नहीं बल्कि भगवान के एक कौआ शिष्य-भक्त के शिष्यत्त्व को ग्रहण करने में अपमान नहीं लगा, मान-सम्मान आड़े नहीं आया फिर आप लोग मान-सम्मान को आड़े क्यों आने दे रहे हैं? क्या किसी भी ऋषि-महर्षि- तपोनिष्ठ-ब्रम्हनिष्ठ का कोई मन्दिर है जहां इन लोगों का पूजा-आराधना हो रहा हो? न मन्दिर हो मगर क्या किन्ही मन्दिर में इन लोगों का कहीं कोई प्रतिष्ठित पूज्यनीय स्थान भी है ? अयोध्या में बाल्मीकि भवन तथा तुलसी मन्दिर और बशिष्ठ भवन आदि भी हैं तो श्रीराम जी के नाम पर हैं, न कि उनके तपोनिष्ठ या ब्रम्हनिष्ठ होने के आधार पर हैं । नैमिषारण्य में व्यासपीठ है तो वह भी उनके तपोनिष्ठ होने के कारण नहीं बल्कि श्रीकृष्ण जी के श्रीमद्भागवत् महापुराण लिखने पर है । प्रयागराज में भारद्वाज आश्रम है तो वह उनके तप के आधार पर नहीं बल्कि श्रीराम जी के वहां पहुंचने पर है। ऐसा कोई भी आश्रम जहां श्रीराम-श्रीकृष्ण जी न पहुंचे हों, उसको कहीं भी कोई महत्व नहीं मिला । है भी तो बहुत कम और सामान्य मान्यता वाला।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ईमान-सच्चाई से पूर्णावतार की भक्ति-सेवा करने वाले गिध्द-कौआ-बानर-भालू-गिलहरी तक भी श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी के साथ-साथ भक्ति-सेवा में महत्ताा में-- कोई-कोई तो इनसे भी अधिक छाये हुये हैं । क्या सुधरने-सम्भलने के लिये ये सब उपर्युक्त तथ्य काफी नहीं हैं ? बन्चित रह जाने पर भगवान को कोई दोष दे करके कोई लाभ पा पायेगा ? जबकि आप सभी के समक्ष इतना स्पष्ट तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हों और तब भी आप सब न चेत-सम्भल पा रहे हों, इसमें भगवान् का क्या दोष ?<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>भइया ! ईमान और सच्चाई को आगे लाइये। सुधरिये और सम्भलिये ! परमतत्त्व रूप परमसत्य रूप परमप्रभु को ही अपनाकर उन्हीं की शरण गहिये। इसी में आप सबका परमकल्याण है । मेरी भी यही शुभेच्छा है । भगवान् आप सबका भला करे !<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>यह सत्य के रूप में आप सबसे अन्तिम बार कहा जा रहा है कि आप चाहे जो कोई भी गुरुजन-तथाकथित सद्गुरुजन अथवा जिस किसी के शिष्यजन क्यों न हों, जरा सा निष्पक्ष और तटस्थ भाव में होकर ईमान और सच्चाई से अपने को थोड़ा देखिए तो सही कि क्या यह सत्य नहीं है ? कि ऊपर से नीचे के क्रम में परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान के विषय में कोई दर्शन-जानकारी आप सब के पास है ही नहीं, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट की भी आदि-अन्त सहित जानकारी भी नहीं है । इतना ही नहीं, धरती का कोई भी धर्मोपदेशक-गुरु चाहे वह कथावाचक शास्त्री हों या वेदान्ती, चाहे वह स्वाध्यायी ('अहं ब्रम्हास्मि' वाले) हों या पतनोन्मुखी सोऽहँ- ज्योतिर्विन्दु शिव वाले तथाकथित अध्यात्मवेत्ता ही क्यों न हों-- जीव क्या है, कैसा होता है, कहां से आता है, शरीर में किस प्रकार से प्रवेश करके कहाँ रहता है और अन्तत: निकलकर कहां जाता है-- यह सब किसी को भी मालूम नहीं। आप सब में से किसी में भी यह दम-खम या क्षमता-शक्ति नहीं है कि वह यह कह सके कि हमने जीव को देखा है । यह बिल्कुल ही सत्यता और सद्ग्रन्थीय प्रमाणिकता के आधार पर ही कहा जा रहा है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>आप सब कथावाचक अथवा वेदान्ती और योगी- आध्यात्मिक गुरुजन को अज्ञान और घोर भ्रमवश झूठी और भ्रामक मान्यता के अन्तर्गत रहने के नाते मेरे इन उपर्युक्त कथन पर थोड़ा-बहुत तकलीफ हो सकता है। आपके भावनाओं पर थोड़ा-बहुत ठेस भी लग सकता है क्योंकि आपको अपने विषय में दिखाई दे रहा होगा कि मेरे पास इतने धन-शिष्य-अनुयायीजन हैं, मेरे पास इतने आश्रम हैं, मेरा इतना प्रचार-प्रसार है, मेरी इतनी भारी मान-मर्यादा है । क्या युक्त धन वाले कुबेर से भी अधिक धन है ? जन (शिष्य- अनुयायीगण) वाले इन्द्र से भी अधिक अनुयायी हैं ? आश्रम निर्माण वाले सृष्टि रचना कर्ता विश्वकर्मा-ब्रम्हा से भी अधिक रचना है? क्या दस हजार शिष्यों को पीछे-पीछे लेकर चलने वाले सिध्द दुर्वासा से भी अधिक पीछे-पीछे रहने वाले जन (प्रचार) और अधिक सिध्दि है? ब्रम्हा-इन्द्र-महेश से भी अधिक मान-मर्यादा आदि कुछ है ? नहीं ! कदापि नहीं !! ईमान और सच्चाई से जरा सोच-समझ और अपने आप को देख तो लें । फिर मिथ्या अभिमान और मिथ्या अहंकारवश मात्र उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर अपने आप को भगवान अथवा भगवदवतार मानना- मनवाना क्या सही और उचित है ? नहीं ! कदापि नहीं!! शिष्यगण को भी मात्र उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर अपने गुरुजी को-- तथाकथित सद्गुरुजी को भगवान अथवा भगवदवतार घोषित कर-कराकर उन्हीं में चिपके रहना क्या सही और उचित है ? नहीं ! कदापि नहीं !! तथा मैं इतने भारी गुरुजनों का शिष्य और अनुयायी हूं तब भी मेरे को ऐसा कहा जा रहा है कि हम परमात्मा-परमेश्वर- खुदा-गॉड-भगवान को नहीं जानते और आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट- ज्योतिर्विन्दु रूप शिव के आदि-अन्त (क्योंकि आदि-अन्त की आप लोगों के दृष्टि में मान्यता ही नहीं है जबकि सच्चाई में आदि-अन्त है) को भी नहीं जानते! इतना ही नहीं, हम लोगों को यहां तक कहा जा रहा है कि जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं को भी साक्षात् देखे तो हैं ही नहीं, यथार्थत: जानते भी नहीं। यह तो एक घोर अहंकारिक बात है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>इस पर मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) आपके परमहितेच्छु रूप में यही कहूंगा कि मुझे घोर अहंकारी मान लेने मात्र से क्या आपको कुछ मिल जायेगा ? कुछ नहीं मिल पायेगा ! मैं तो यह कह रहा हूं कि ईमान और सच्चाई से आप अपने स्थिति-परिस्थिति को देखिये । फिर नि:संदेह निश्चित ही आपको अपने निर्णय में मिलेगा कि उपर्युक्त सारे कथन 'सत्य' ही हैं और सद्ग्रन्थीय आधार पर प्रमाणित भी हैं। यदि उपर्युक्त बातें समझ में-- पकड़ में न आ पा रही हों तो आप सब मुझसे मिल-बैठकर प्रेमभाव से-- अपनत्त्व भाव से-- ईमान और सच्चाई से वास्तविकता को-- वास्तविक सत्यता को खुले दिल-दिमाग से मुझसे यथार्थत: जान- देख- परख-पहचान कर-करा जाँचिये तो सही, मगर भगवद् समर्पण-शरणागत होने-रहने-चलने के शर्त पर ही क्योंकि 'तत्त्वज्ञान' वगैर भगवद् समर्पित-शरणागत को मिलता ही नहीं और जब तक 'तत्त्वज्ञान' मिलेगा नहीं तब तक उपर्युक्त तथ्यों की बात-चीत-परिचय-पहचान सहित साक्षात् दर्शन और यथार्थत: जानकारी हो ही नहीं सकती। यह एक परम सच्चाई है । इसमें मेरा कोई अहंकार नहीं, बल्कि भगवत् कृपा रूप 'तत्त्वज्ञान' का प्रभाव है । यही एकमात्र 'एक' सच्चाई है । जांच-परख-पहचान की खुली छूट, मगर सद्ग्रन्थीय आधार पर, मनमाना कुछ भी नहीं, क्योंकि मेरे पास मनमाना नाम का कोई चीज या कुछ भी नहीं है । जो कुछ भी है, सब भगवदीय है । सब भगवत् कृपा ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',<br />\r\nपुरुषोत्ताम नगर- सिध्दौर, बाराबंकी-225 413 उ0 प्र0 (भारत)<br />\r\nदूरभाष : 05222346613, मोबाइल : 09196001364</p>\r\n', '1656333592-inner-banner.jpg', '27 Jun, 2022'), (27, 'Bhagwadavatari Ki Aarti', '<p>प्रेम से बोलिये -- श्रीसद्गुरुदेव महाराज की -- जय ! परमपिता परमेश्वर की -- जय !!<br />\r\nआनन्दकन्द लीलाबिहारी प्रभु सदानन्द मनमोहन भगवान् की -- जय !!!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>हे प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये ॥<br />\r\nलीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें, ब्रम्हचारी धर्म रक्षक वीर व्रतधारी बनें ॥<br />\r\nयस्य भाषा विभातिदं सर्वं सद्सदात्मकं । सर्वाधारं सदानन्दं परमात्मानं तं हरिं भजे ॥<br />\r\nज्ञान मूलं प्रभु प्राप्ति, पूजा मूलं प्रभु पादुका । मन्त्रं मूलं प्रभु वाक्यं, मोक्ष मूलं प्रभु कृपा ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्रेम से बोलिये -- श्रीसद्गुरुदेव महाराज की -- जय ! परमपिता परमेश्वर की -- जय !!<br />\r\nआनन्दकन्द लीलाबिहारी प्रभु सदानन्द मनमोहन भगवान् की -- जय !!!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>BHAGWADAVATARI SADANAND JI KI AARATI</strong></p>\r\n\r\n<p>प्रभु सदानन्द अवतारी की, शुभ आरति कीजै ।<br />\r\nआरति कीजै शुभ आरति कीजै, प्रभु सदानन्द अवतारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>नटवर वेष मनोहर झांकी, नटवर वेष मनोहर झांकी,<br />\r\nसत्य-प्रेम व्रतधारी की शुभ आरति कीजै । सत्य-प्रेम व्रतधारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>श्री किशुन जी के पुत्र मां श्रृंगारी जी के नन्दन, श्री किशुन जी के पुत्र मां श्रृंगारी जी के नन्दन ।<br />\r\nइन्द्रदेवजी के छोटे भइया की शुभ आरति कीजै। परमानन्दजी के छोटे भइया की शुभ आरति कीजै॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>नयनानन्द प्रभु ज्ञान के दाता, ज्ञान के दाता तत्त्वज्ञान के दाता ।<br />\r\nअखिल भुवन करतारी की शुभ आरति कीजै । अखिल भुवन करतारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>जड-चेतन सचराचर स्वामी, जड-चेतन सचराचर स्वामी ।<br />\r\nअकथ-अगम अविकारी की शुभ आरति कीजै । अकथ-अगम अविकारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>परमधाम वासी भव भय नाशी, भव भय नाशी स्वामी भव भय नाशी ।<br />\r\nखल-दल-बल दनुजारी की शुभ आरति कीजै। खल-दल-बल दनुजारी की शुभ आरति कीजै॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>ब्रम्हा-इन्द्र-शिव मुनि सुर नर, ब्रम्हा-इन्द्र-शिव मुनि सुर नर ।<br />\r\nवेद भनत पचिहारी की शुभ आरति कीजै, वेद भनत पचिहारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>आदि-शक्ति जग जननी माता, आदि-शक्ति जग जननी माता ।<br />\r\nयुगल छबी मनहारी की शुभ आरति कीजै, युगल छबी मनहारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>आयहुं शरण दयालु नाथ की, आयहुं शरण दयालु नाथ की ।<br />\r\nप्रभु सदानन्द छबिधारी की शुभ आरति कीजै, प्रभु सदानन्द छबिधारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्रभु सदानन्द अवतारी की, शुभ आरति कीजै ।<br />\r\nआरति कीजै शुभ आरति कीजै, प्रभु सदानन्द अवतारी की शुभ आरति कीजै ॥</p>\r\n\r\n<p>( प्रभु सदानन्द अवतारी की...)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्रेम से बोलिये -- श्री सद्गुरुदेव जी महाराज की -- जय ! आनन्दकन्द लीला बिहारी प्रभु सदानन्द मनमोहन भगवान की -- जय !!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।<br />\r\nत्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥<br />\r\nत्वमेव सर्वं मम देव देव । त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>बार बार वर माँगहु हरषि देहु प्रभु सदानन्द । पद सरोज अनुपायनी, भक्ति सदा सत्संग ॥<br />\r\nभक्ति दान मोहि दीजिये, प्रभु देवन के देव । और नहीं कछु चाहिये, प्रभु निस दिन तुम्हरि सेव ॥<br />\r\nअर्थ धर्म अरु काम रुचि, न चाहौं निर्वाण । भक्तिदान मोहि दीजिए कृपा सिन्धु भगवान ॥<br />\r\nप्रभु के सुमिरन मात्र से नासत विघ्न अनन्त । ताते सर्वारम्भ में सुमिरत हैं सब सन्त ॥<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्रेम से बोलिये -- श्री सद्गुरुदेव जी महाराज की -- जय ! आनन्दकन्द लीला बिहारी प्रभु सदानन्द मनमोहन भगवान की -- जय !!<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>धर्म की -- जय हो ! (3)<br />\r\nअधर्म का -- विनाश हो ! (3)<br />\r\nप्राणियों में -- सद्भावना हो ! (3)<br />\r\nविश्व का -- कल्याण हो ! (3)<br />\r\nसत्य की -- विजय हो !!! (7)<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p>प्रेम से बोलिये -- श्री सद्गुरुदेव जी महाराज की -- जय ! आनन्दकन्द लीला बिहारी प्रभु सदानन्द मनमोहन भगवान की -- जय !!</p>\r\n', '1656675257-inner-banner.jpg', '01 Jul, 2022'), (28, 'Protection of Dharma-Dharmatma-Dharti', '<h3><strong>Three jobs undertaken by Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal ONLY</strong></h3>\r\n\r\n<p><strong>1.'Pavitranaya Sadhunaam' --- Protection of Dharmatma</strong></p>\r\n\r\n<p>All Sadhus (noble persons) who are also named as 'Dharmatmas' ( the Saintly Persons) and who have taken shelter of Khuda-GOD-Bhagwan shall be well protected by the Lord all round. This is done by HIM by bestowing them HIS Eternally Pure Knowledge. This is what is termed as ' Protection of Dharmatma'.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>2.'Vinashay Cha Dushkritaam' --- Protection of Dharti</strong></p>\r\n\r\n<p>All ill-trends who are against the rules and regulations or Dharma of Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal, shall be destroyed from the earth if they do not take shelter of the Almighty Lord. Ill or irreligious trends are the root cause through which Dharti (or the Earth) becomes overloaded and found herself unable to carry the burden of ill-trended people. She becomes quite purplexed. Ill trends whatsoever they may be, shall not be tolerated by GOD and ultimately replaced with Dharmin Trends.This is called 'Protection of Dharti'.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>3.'Dharma Sansthapanaarthay'--- Protection of Dharma</strong></p>\r\n\r\n<p>It is Dharma throuth which the whole Universe including Material Worlds, Sceptal Regions, Divine Provinces and Eternal Abode are all governed in order and for smooth functioning. If Dharma is flinched or distorted or polluted, the functioning of the Universe is badly affected. The Lord cannot tolerate such distortion or pollution. HE restores and re-establishes Dharma whenever it is down fallen. This is called 'Protection of Dharma'.<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>4.What is our duty ?</strong></p>\r\n\r\n<p>Our duty is to be engaged in the Protection of 'DDD' to please Khuda-GOD-Bhagwan-Sat SiriAkaal, so that the human race can be saved from nature's anger by HIM. This is called 'Service to the Almighty Lord'. 'Sadanand Tattvajnaan Parishad' is calling you to help in saving the world by whatever means you can !</p>\r\n', '1656915973-inner-banner.jpg', '04 Jul, 2022'), (29, 'Gains - लाभ', '<h3><strong>DO YOU KNOW CATEGORICAL ACHIEVEMENTS FROM VARIOUS LEVELS ?</strong></h3>\r\n\r\n<p><strong>1. THE RELIEF (SUKH) :</strong> Dukh or Sukh (Grief or Relief) are the only gains in between the world and the body. There is nothing else to get from this material world. World is the storage of Dukh (grief) and body is the source of Sukh (relief). The Self (Jeeva) is a pedulam between the two.The eye used in this field for seeing material objects is called bodily eye or Sthool Drishti.</p>\r\n\r\n<p><strong>2. THE PLEASURE (AANAND) :</strong> Beyond the body and upto the Self, there lies Aanand (Pleasure). Pleasure is ever superior than happiness or enjoyment and is 1000 times better than the bodily relief or Sukh. Aanand is derived from the Self (Jeeva) and not from the body. For Aanand, one has to remain in touch of the field of the Self. When the Self tocuhes its own field, it gets Aanand. The eye to see through in this field is called 'Sceptal Eye (Sukshma Drishti)'. The Sceptal Eye is bestowed by 'Incarnated Sadguru' ONLY and none else.</p>\r\n\r\n<p><strong>3. THE BLISS (CHIDAANAND) :</strong> Beyond the Self and upto the Soul, Bliss is ascertained. Bliss is combined form of Peace and Pleasure (of double unit). Pleasure of the Self is also available here. Aanand without Peace is derived from the Self, but Aanand with Peace is the outcome from the Soul. Bliss is 1 million times better than Pleasure. The Eye used in this field is known as 'Divine Eye (Divya Drishti)' which is bestowed by 'Incarnated Sadguru'. Spiritual Preachers (Gurus) can also bestow this Eye. Liberation and Immortality are not at all found in this level.</p>\r\n\r\n<p><strong>4. THE ETERNITY (SACHCHIDAANAND) :</strong> Eternal Bliss is unlimited times superior than anything else. Eternal Bliss is Truth, Peace and Pleasure (triple unit). All the achievements of down levels are available here in Eternity as fractions. Eternity is gained while beholding Khuda-GOD-Bhagwan-Sat Siri Akaal in one's front with Eternal or Supremely Eye (Gyan Drishti or Tattva Drishti) who is beyond any Action (Karma) or Practice (Sadhana or Kriya) but within surrendered devotion and service (Annanya Bhakti aur Seva). Liberation and Immortality is ascertained in this level and no where else. This is the paramount goal of our human life. Gyan Drishti or Supremely Eye is bestowed by 'Incarnated Sadguru' ONLY and none else.</p>\r\n', '1657188744-inner-banner.jpg', '07 Jul, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `patrikalinktb` -- CREATE TABLE `patrikalinktb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(300) NOT NULL, `downloadlink` varchar(500) NOT NULL, `readerlink` varchar(500) NOT NULL, `month` varchar(20) NOT NULL, `year` varchar(20) NOT NULL, `language` varchar(50) NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `patrikalinktb` -- INSERT INTO `patrikalinktb` (`id`, `title`, `downloadlink`, `readerlink`, `month`, `year`, `language`, `image_name`, `added_on`) VALUES (1, 'Patrika1', 'https://drive.google.com/file/d/1iFxV-SpgUmdwkx8oBKIB4f0ZrkBRXXdP/view', 'https://drive.google.com/file/d/1iFxV-SpgUmdwkx8oBKIB4f0ZrkBRXXdP/view', 'January', '2010', 'English', '1656067945-18.jpg', '24 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `pressreleasetb` -- CREATE TABLE `pressreleasetb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `pressreleasetb` -- INSERT INTO `pressreleasetb` (`id`, `title`, `discription`, `added_on`) VALUES (1, 'योग-साधना अथवा अध्यात्म (SPIRITUALIZATION)', '<p>सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं !! अध्यात्म जीव का आत्मा-ईश्वर-शिव से दरश-परश और मेल-मिलाप करते हुए आत्मामय ईश्वरमय-ज्योतिर्मय शिवमय रूप में स्थित-स्थापित करने-कराने का एक क्रियात्मक आध्यात्मिक साधना पध्दति है। जिस प्रकार शिक्षा से संसार और शरीर के मध्य की जानकारी प्राप्त होती है तथा स्वाध्याय शरीर और जीव के बीच की 'स्व' का एक अधययन विधान है, ठीक उसी प्रकार योग-अधयात्म जीव और आत्मा-ईश्वर-शिव के मधय तथा आत्मा से सम्बन्धित क्रियात्मक या साधनात्मक जानकारी और दर्शन उपलब्धि वाला विधान होता है । दूसरे शब्दों में आत्मा-ईश्वर-शिव से सम्बन्धित क्रियात्मक अधययन पध्दति ही योग-अध्यात्म है । अध्यात्म सामान्य मानव से महामानव या महापुरुष या दिव्य पुरुष बनाने वाला एक योग या साधना से सम्बन्धित विस्तृत क्रियात्मक एवं अनुभूतिपरक आधयात्मिक जानकारी है, जिसके अन्तर्गत शरीर में मूलाधार स्थित अहम् नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव का आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति रूप ईश्वरीय सत्ता-शक्ति या ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति या आलिमे नूर या आसमानी रोशनी या नूरे इलाही या DIVINE LIGHT या LIFE LIGHT या जीवन ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश या स्वयं ज्योतिरूप शिव का साक्षात् दर्शन करना एवं हँऽसो जप का निरन्तर अभ्यास पूर्वक आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रम्हमय या शिवमय होने-रहने का एक क्रियात्मक अध्ययन पध्दति या विधान होता है ।<br />\r\n<br />\r\nस्वाध्याय तो मनुष्य को पशुवत् एवं असुरता और शैतानियत के जीवन से ऊपर उठाकर मानवता प्रदान करता-कराता है परन्तु यह आध्यात्मिक क्रियात्मक अध्ययन विधान मनुष्य को सांसारिकता रूप जड़ता से मोड़कर जीव को नीचे गिरने से बचाते हुए ऊपर श्रेष्ठतर आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह- नूर-सोल-स्प््रािरिट दिव्य ज्योति रूप चेतन-शिव से जोड़कर चेतनता रूप दिव्यता (DIVINITY) प्रदान करता-कराता है । पुन: 'शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द' की अनुभूति कराने वाला चेतन विज्ञान ही योग या अध्यात्म है, जिसका एकमात्र लक्ष्य शरीरस्थ जीव को शरीरिकता-पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप जड़ जगत् से लगा-बझा ममता-मोहासक्ति से सम्बन्ध मोड़कर चेतन आत्मा से सम्बन्ध जोड़-जोड़ कर जीवों को आत्मामय या ब्रम्हमय या चिदानन्दमय या दिव्यानन्दमय या चेतनानन्दमय बनाना ही है । मुक्ति-अमरता तो इसमें नहीं मिलता है; मगर शान्ति-आनन्द तो मिलता ही है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>योग या अध्यात्म की महत्ता</strong></p>\r\n\r\n<p>योग या अध्यात्म अपने से निष्कपटता पूर्वक श्रध्दा एवं विश्वास के साथ चिपके हुये, लगे हुये लीन साधक को शक्ति-साधना-सिध्दि प्रदान करता हुआ सिध्द, योगी, ऋषि, महर्षि, ब्रम्हर्षि, तथा अध्यात्मवेत्ता, योगी-महात्मा रूप महापुरुष बना देने या दिव्य पुरुष बना देने वाला एक दिव्य क्रियात्मक विज्ञान है, जो शारीरिकता- पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप माया-मोह ममता-वासना आदि माया जाल से जीव का सम्बन्धा मोड़ता हुआ दिव्य ज्योति से सम्बन्धा जोड़कर दिव्यता प्रदान करते हुये जीवत्त्व भाव को शिवत्त्व या ब्रम्हत्त्व भाव में करता-बनाता हुआ कल्याणकारी यानी कल्याण करने वाला मानव बनाता है, जो समाज कल्याण करे यानी शारीरिकता-पारिवारिकता एवं सांसारिकता में फँसे-जकड़े 'जीव' को छुड़ावे तथा आत्मा या ईश्वर या ब्रम्ह से मिलावे और आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रम्हमय बनावे ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>कर्म एवं स्वाध्याय और योग-अध्यात्म की जानकारी और उपलब्धि की तुलनात्मक स्थिति</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! स्वाध्याय तो कर्म का विरोधी नहीं बल्कि कर्म को गुणों से गुणान्वित कर, अच्छे कर्मों को करने तथा दूषित भाव-विचार व्यवहार-कर्म से दूर रहने को जनाता-सिखाता तथा नैतिकता से युक्त करता हुआ उसे परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप में ग्रहण करने को सिखाता है जबकि अध्यात्म कर्म का घोर विरोधी एवं जबर्दस्त शत्रु होता है। कर्म और योग या अध्यात्म दोनों ही एक दूसरे का विरोधी, शत्रु तथा विपरीत मार्ग गामी होते हैं । कर्म, मन्त्र और प्रार्थना के माध्यम से इन्द्रियों को मजबूत बनाने का प्रयत्न करता है, तो योग-साधना या अध्यात्म नियम-आसन और प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियों को कमजोर बनाने तथा विषय वृत्तिायों से मोड़-खींच कर उनको अपने-अपने गोलकों में बन्द करने-कराने की क्रिया-प्रक्रिया का साधनाभ्यास या योगाभ्यास करने-कराने की विधि बताता एवं कर्म से मोड़ कर योग-साधना में लगाता है ।<br />\r\n<br />\r\nकर्म का लक्ष्य कार्य है जीवमय आत्मा (सोऽहँ) में से जीव का सम्बन्ध काट-कटवा कर चेतन से मोड़ कर शरीर-संसार में माया-मोह, ममता-वासना आदि के माधयम से प्रलोभन देते हुये भ्रमित करते-कराते हुये माया-जाल में फँसाता-जकड़ता व चेतन आत्मा में से बिछुड़ा- भुला-भटका कर शरीरमय बनाता हुआ पारिवारिकता के बन्धान में बाँधाता हुआ, जड़-जगन्मय बना देना ताकि आत्मा और परमात्मा तो आत्मा और परमात्मा है; इसे अपने 'स्व' रूप का भी भान यानी आभाष न रह जाय । यह शरीरमय से भी नीचे उतर कर जड़वत् रूप सम्पत्तिमय या सम्पत्ति प्रधान, जो कि मात्र जड़ ही होता है, बनाने वाला ही कर्म विधान होता है, जिसका ठीक उल्टा अध्यात्म विधान होता है अर्थात् चेतन जीवात्मा( हँऽसो) जड़-जगत् को मात्र अपना साधान मान-जान-समझ कर अपने सहयोगार्थ चालित परिचालित करता या कराता है। कर्म चेतन जीवमय आत्मा(सोऽहँ) को ही जड़वत् बनाकर अपने सेवार्थ या सहयोगार्थ अपने अधाीन करना चाहता है, चेतन मयजीव को सदा ही जड़ में बदलने की कोशिश या प्रयत्न करता रहता है तथा योग-साधना अध्यात्म जड़-जगत् में जकड़े हुये, फँसे हुये अपने अंश रूप जीव को छुड़ा कर, फँसाहट से निकाल कर, चेतन ( हँऽस) बनाता हुआ कि फँसा हुआ था, छुड़ाता है । इसलिये जीव अपने शारीरिक इन्द्रियों को उनके विषयों से मोड़कर, इन्द्रियों को उनके अपने-अपने गोलकों में बन्द करके तब श्वाँस-नि:श्वाँस के क्रिया को करने-पकड़ने हेतु मन को बाँधा कर स्वयं 'अहं' नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव आत्म-ज्योति रूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रम्ह-ज्योति रूप ब्रम्ह या स्वयं ज्योति रूप शिव का साक्षात्कार कर, आत्मामय या ब्रम्हमय बनता या होता हुआ अहँ सूक्ष्म शरीर रूप (जीव) हँऽस रूप शिव-शक्ति बन जाता या हो जाता है । यहाँ पर शिव-शक्ति का अर्थ शंकर-पार्वती से नहीं समझकर, स्वयं ज्योति रूप शिव या आत्म ज्योति आत्मा या ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति से समझना चाहिये।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>सृष्टि की उत्पत्ति और लय-विलय-प्रलय</strong></p>\r\n\r\n<p>'शिव' का अर्थ कल्याण होता है । हँऽस रूप ब्रम्ह-शक्ति या शिव-शक्ति की उत्पत्ति 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्' रूप शब्द-ब्रम्ह गॉड या अलम या परम ब्रम्ह से ही होती है तथा सृष्टि के अन्त में सामान्यत: ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान से तथा मध्य में भी भगवदवतार के माध्यम से तत्त्वज्ञान (Supreme KNOWLEDGE) के यथार्थत: विधि-विधान से परमतत्त्वम् से सोऽहँ से की उत्पत्ति की प्रक्रिया या रहस्य जना-बता दिखा सुझा-बुझा कर 'अद्वैत्तत्त्वबोध' कराते हुये जिज्ञासु को खुदा-गॉड-भगवान् से बात-चीत करते-कराते हुए जब अहँ एवं सोऽहँ-हँऽसो के समस्त मैं-मैं, तू-तू को अपने मुख से निकालते हुये, पुन: अपने ही मुख में समस्त मैं-मैं तू-तू को चाहे वह मैं-मैं तू-तू अहँरूप जीव का हो या हँऽस रूप जीवात्मा का या केवल स: या आत्म शब्द आत्मा का ही क्यों न हो, सभी को ही अपने मुख में ही प्रवेश कराते हुये ज्ञान-दृष्टि से या तत्त्व-दृष्टि से दिखाते हुये, बात-चीत करते-कराते हुये जीव (अहं), जीवात्मा (हँऽसो) व आत्मा (स: या आत्म शब्द) और सृष्टि के सम्पूर्ण को ही 'एक' एकमेव एकमात्र 'एक' अपने तत्त्वम् रूप से अनेकानेक सम्पूर्ण सृष्टि में अपने अंश-उपाँश रूप में बिखेर देते हैं । ऐसा ही अपने निष्कपट उत्कट परम श्रध्दालु एवं सर्वतोभावेन समर्पित शरणागत जिज्ञासुओं को अज्ञान रूप माया का पर्दा हटाकर अपना कृपा पात्र बनाकर अपना यथार्थ यानी 'वास्तविक तत्त्व' रूप परमतत्तवं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अद्वैत्तत्त्वम् को दिखला देते हैं तथा अपने अनन्य समर्पित-शरणागत भक्तों-सेवकों को अपने में भक्ति-सेवा प्रदान करते हुये अपना प्रेम-पात्र बना लेते हैं, तब मध्य में भी लक्ष्य रूप रहस्य को समझा-बुझा कर मुक्ति और अमरता का भी साक्षात् बोध कर-करा देते हैं, तो मध्य में भी अन्यथा सामान्य सृष्टि लय विधान से अन्त में अपने में लय-विलय हो जाया करती है । यही सृष्टि उत्पत्ति और लय है । तत्त्वज्ञान के माधयम से विलय तथा महाविनाश के माध्यम से महाप्रलय होता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आध्यात्मिक सन्तुलन बिगड़ने से पतन और विनाश भी</strong></p>\r\n\r\n<p>अध्यात्म इतना सिध्दि, शक्ति प्रदान करने वाला विधान होता है; जिससे प्राय: सिध्द-योगी, सिध्द-साधक या आध्यात्मिक सन्त-महात्मा को विस्तृत धान-जन-समूह को अपने अनुयायी रूप में अपने पीछे देखकर एक बलवती अंहकार रूप उल्टी मति-गति हो जाती है; जिससे योग-साधना या आध्यात्मिक क्रिया की उल्टी गति रूप सोऽहँ ही उन्हें सीधी लगने लगती है और उसी उल्टी साधना सोऽहँ में अपने अनुयायिओं को भी जोड़ते जाते हैं, जबकि उन्हें यह आभाष एवं भगवत् प्रेरणा भी मिलती रहती है कि यह उल्टी है। फिर भी वे नहीं समझते। उल्टी सोऽहँ साधाना का ही प्रचार करने-कराने लगते है । अहँ नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव को आत्मा में मिलाने के बजाय स: ज्योति रूप आत्मा को ही लाकर अपने अहँ में जोड़ कर सोऽहँ 'वही मैं हूँ' का भाव भरने लगते हैं जिससे कि उल्टी मति के दुष्प्रभाव से भगवान् और अवतार ही बनने लगते हैं, जो इनका बिल्कुल ही मिथ्या ज्ञानाभिमानवश मिथ्याहंकार ही होता है। ये अज्ञानी तो होते ही हैं मिथ्याहंकारवश जबरदस्त भ्रम एवं भूल के शिकार भी हो जाते हैं । आये थे भगवद् भक्ति करने, खुद ही बन गये भगवान् । यह उनका बनना उन्हें भगवान् से विमुख कर सदा-सर्वदा के लिये पतनोन्मुखी बना देता हैं। विनाश के मुख में पहुँचा देता है। विनाश के मुख में पहुँचा ही देता है ।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आध्यात्मिक धर्मोपदेशकों का मिथ्याज्ञानाभिमान</strong></p>\r\n\r\n<p>सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! योग-अध्यात्म विधान स्वाध्याय से ऊपर यानी श्रेष्ठतर तथा तत्त्वज्ञान से नीचे होता है, परन्तु आध्यात्मिक सन्त-महात्मा मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा, जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह, जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर; सेल्फ को ही सोल और सोल (DIVINE LIGHT) या (LIFE LIGHT) को ही (GOD) रूह को ही नूर और नूर को ही अल्लाहतआला या खुदा; जीव या रूह या सेल्फ रूप सूक्ष्म शरीर को ही दिव्य ज्योति और आत्म-ज्योति या दिव्य ज्योति या ब्रम्ह ज्योति या नूर या डिवाइन लाइट या डिवाइन लाइट या जीवन ज्योति या स्वयं ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश तथा हँऽसो के उल्टे सोऽहँ के अजपा जप प्रक्रिया को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह' तथा उनका तत्त्वज्ञान पध्दति; आनन्दानुभूति को ही चिदानन्द रूप 'शान्ति और आनन्द' और सूक्ष्म दृष्टि को ही दिव्य दृष्टि और चिदानन्द को ही सच्चिदानन्द, स्वरूपानन्द को ही आत्मानन्द या ब्रम्हानन्द और आत्मानन्द को ही परमानन्द या सदानन्द; चेतन को ही परमतत्तवं; ब्रम्हपद या आत्मपद को ही परमपद या भगवत्पद; शिवलोक या ब्रम्ह लोक को ही अमरलोक या परम आकाश रूप परमधाम; अनुभूति को ही बोध; आध्यात्मिक सन्त-महात्मा या महापुरुष को ही तात्तिवक सत्पुरुष-परमात्मा या परमपुरुष या भगवदवतार रूप परमेश्वर या खुदा-गॉड-भगवान्; दिव्य दृष्टि को ही ज्ञान-दृष्टि; दिव्य चक्षु को ही ज्ञान चक्षु; सेप्टल आई को ही डिवाइन आई और डिवाइन आई को ही गॉडली आई; अपने पिण्ड को ही ब्रम्हाण्ड; अपने शरीरान्तर्गत अहम् जीव को ही हँऽसो जीवात्मा और जीवात्मा हँऽस को ही ब्रम्हाण्डीय परमब्रम्ह और सर्वसत्ता सामर्थ्य रूप 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह'; शान्ति और आनन्द को ही परमशान्ति और परम आनन्द कहते-कहलाते हुये तथा स्वयं गुरु के स्थान पर सद्गुरु बनकर अपने को भगवदवतार घोषित कर-करवा कर अपने साधाना-विधान या आध्यात्मिक क्रिया-विधान से हटकर, पूजा-उपासना विधान आदि से युक्त होकर अपने जबर्दस्त भ्रम एवं भूल का शिकार अपने अनुयायियों को भी बनाते जाते हैं।<br />\r\n<br />\r\nहँऽसो के स्थान पर उल्टी साधाना सोऽहँ करने-कराने में मति-गति ही इन आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं की उल्टी हो गई होती है या हो जाती है और वे इस बात पर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे पाते हैं कि उनका लक्ष्यगामी सिध्दान्त अध्यात्म या योग है जिसकी अन्तिम पहुँच आत्मा तक ही होती है, परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह या खुदा-गॉड-भगवान् तक इनकी पहुँच ही नहीं है । आदि में शंकर, सनकादि, सप्त ऋषि, व्यासादि, मूसा यीशु, मोहम्मद साहब, आद्यशंकराचार्य, महावीर जैन, कबीर, नानक, दरिया, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, योगानन्द, आनन्दमयी, मुक्तानन्द, शिवानन्द आदि-आदि वर्तमान के भी प्राय: सभी तथाकथित अध्यात्मवेत्तागण जीव को आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा या जीव को ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर आदि घोषित करते-कराते रहे हैं जिसमें शंकर, वशिष्ठ, व्यास, मोहम्मद, तुलसी आदि तो अपने से पृथक् परमात्मा या परमेश्वर या अल्लाहतआला के अस्तित्त्व को स्वीकार किये अथवा श्रीराम या श्रीकृष्ण की लीलाओं के बाद समयानुसार सुधर गये। बाल्मीकि भी इसी में हैं तथा जीव-आत्मा से परमात्मा या परमब्रम्ह या परमेश्वर या अल्लाहतआला या खुदा-गॉड-भगवान् का ही, एकमात्र भगवान् का ही, भक्ति प्रचार करने-कराने लगे। प्राय: अधिाकतर आधयात्मिक सन्त-महात्मा प्रॉफेट-पैगम्बर मिथ्याज्ञानाभिमान के भ्रम एवं भूल वश शिकार हो जाया करते हैं जिससे जीव को ही आत्मा-ईश्वर तथा आत्मा-ईश्वर आदि को ही परमात्मा-परमेश्वर आदि कहने-कहलवाने, घोषित करने-कराने लगते हैं ।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! वर्तमान समस्त के योगी, महर्षि, साधक, सिध्द तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्मनों से सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का अनुरोध है कि योग-साधना या अध्यात्म भी कोई विशेष छोटा या महत्त्वहीन विधान या पद नहीं है । इसकी भी अपनी महत्ताा है । इसलिये स्वाध्याय को ही योग-साधना-अध्यात्म और अध्यात्म या योग को ही तत्त्वज्ञान पध्दति या सत्यज्ञान पध्दति घोषित तथा जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा या जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर या जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह तथा सोऽहँ-ह ँ्सो एवं आत्म-ज्योति को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह' घोषित न करें और मिथ्या ज्ञानाभिमानवश अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कथन रूप झूठी बात कह कर अध्यात्म के महत्त्व को न घटायें ।<br />\r\n<br />\r\nस्वाध्याय को ही अध्यात्म और अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान का चोला न पहनावें अन्यथा स्वाध्याय और अध्यात्म दोनों ही पाखण्डी या आडम्बरी शब्दों से युक्त होकर अपमानित हो जायेगा । आत्मा को परमात्मा का या ब्रम्ह को परमब्रम्ह का या ईश्वर को परमेश्वर का चोला न पहनावें क्योंकि इससे आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकता; ईश्वर कभी भी परमेश्वर नहीं बन सकता; ब्रम्ह कभी भी परमब्रम्ह नहीं बन सकता । इसलिये परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह का चोला आत्मा-ईश्वर या ब्रम्ह को पहनाने से पर्दाफास होने पर आप महात्मन् महानुभावों को अपना मुख छिपाने हेतु जगह या स्थान भी नहीं मिलेगा ।<br />\r\n<br />\r\nइसलिये एक बार फिर से ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द अनुरोध कर रहा है कि अपना-अपना नकली चोला उतार कर शीघ्रातिशीघ्र अपने शुध्द अध्यात्मवेत्ता, आत्मा वाला असल चोला धारण कर लीजिये तथा परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह का चोला एकमात्र उन्हीं के लिये छोड़ दें, क्योंकि उस पर एकमात्र उन्हीं का एकाधिाकार रहता है । इसलियें अब तक पहने सो पहने, अब झट-पट अपने अपने नकली रूपों को असली में बदल लीजिये । अन्यथा सभी का पर्दाफास अब होना ही चाहता है ! तब आप सभी लोग बेनकाब हो ही जायेंगे । नतीजा या परिणाम होगा कि कहीं मुँह छिपाने का जगह नहीं मिलेगा । इसलिये समय रहते ही चेत जाइये ! चेत जाइये !!!<br />\r\n<br />\r\nअब परमप्रभु को खुल्लम खुल्ला अपना प्रभाव एवं ऐश्वर्य दिखाने में देर नहीं है। उस समय आप लोग भी कहीं चपेट में नहीं आ जायें । इसलिये बार-बार कहा जा रहा है कि चेत जायें ! चेत जायें !! चेत जायें !!! अब नकल, पाखण्ड, आडम्बर, जोर-जुल्म, असत्य-अधर्म, अन्याय-अनीति बिल्कुल ही समाप्त होने वाला है । अब देर नहीं, समीप ही है ! इसे समाप्त कर भगवान् अब अतिशीघ्र सत्य-धर्म न्याय-नीति का राज्य संस्थापित करेगा, करेगा ही करेगा, देर नहीं है। 'सत्य' को स्वीकारने-अपनाने में भय-संकोच से ऊपर उठकर यथाशीघ्र स्वीकार कर या अपना ही लेना चाहिये । क्योंकि देर करना पछतावा-प्रायश्चित का ही कारण बनेगा । चेतें।<br />\r\n<br />\r\nसद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! सृष्टि की रचना या उत्पत्ति दो पदार्थों से हुई है जो जड़ और चेतन नाम से जाने जाते हैं । इस जड़ से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी तो भौतिक शिक्षा के अन्तर्गत आती है और चेतन तथा चेतन से सम्बन्धित या चेतन प्रधाान जीव-आत्मा आदि के सम्बन्ध के बारे में क्रियात्मक जानकारी मात्र ही योग या अध्यात्म है। अध्यात्म , स्वाध्याय और तत्त्वज्ञान के मध्य स्थित जीव का परमात्मा से तथा परमात्मा का जीव से सम्पर्क बनाने में आत्मा ही दोनों के मध्य के सम्बन्धांो को श्वाँस-नि:श्वाँस के एक छोर (बाहरी) पर परमात्मा तथा दूसरे छोर (भीतरी) पर जीव का वास होता है । आत्मा नित्य प्रति हर क्षण ही निर्मल एवं स्वच्छ शक्ति-सामर्थ्य (ज्योतिर्मय स:) रूप में शरीर में प्रवेश कर जीव को उस शक्ति-सामर्थ्य को प्रदान करती-रहती है और शरीरान्तर्गत गुण-दोष से युक्त सांस्कारिक होकर जीव रूप से बाहर हो जाया करती है ।<br />\r\n<br />\r\nजब अहँ रूप जीव भगवत् कृपा से स: रूप आत्म-शक्ति का साक्षात्कार करता है तथा स: से युक्त हो शान्ति और आनन्द की अनुभूति पाता है, तब यह जीव आत्मविभोर हो उठता है । इस जीव को आत्मामय या ब्रम्हमय या चिदानन्दमय ही, पूर्व की अनुभूति, जिससे कि यह जीव आत्मा से बिछुड़ा-भटका कर तथा सांसारिकता में फँसा दिया गया था, अपना पूर्व का सम्बन्ध याद हो जाता है कि शारीरिक -पारिवारिक-सांसारिक होने के पूर्व 'मैं' जीव इसी आत्मा या ब्रम्ह के साथ संलग्न था; जिससे सांसारिक-पारिवारिक लोगों ने नार-पुरइन या ब्रम्ह-नाल काट-कटवा कर मुझे इस आत्मा या ब्रम्ह से बिछुड़ा दिया था, जिससे 'मैं' जीव शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द के खोज में इधर-उधर चारों तरफ भटकता और फँसता तथा जकड़ता चला गया था । यह तो परमप्रभु की कृपा विशेष से मनुष्य शरीर पाया। तत्पश्चात् परमप्रभु की मुझ पर दूसरी कृपा विशेष हुई कि मुझे सद्गुरु जी का सान्निधय प्राप्त हुआ तथा परमप्रभु की यह तीसरी कृपा हुई कि मेरे अन्दर ऐसी प्रेरणा जागी, जिससे सद्गुरुजी की आवश्यकता महसूस हुई और गुरु जी के सम्पर्क में आया। तत्पश्चात् परमप्रभु जी के ही कृपा विशेष, जो सद्गुरु कृपा के रूप में हमें 'आत्म' रूप स: से पुन: साक्षात्कार तथा मेल-मिलाप कराकर पुन: मुझ शरीर एवं संसारमय जीव को संसार एवं शरीर से उठाकर आत्मामय जीव(हँऽस) रूप में स्थापित कर-करा दिया। सद्गुरु कृपा से अब पुन: हँऽस हो गया। ध्यान दें कि हँऽस ही जीवात्मा है, जो अध्यात्म की अन्तिम उपलब्धि है। अध्यात्म हँऽस ही बना सकता है, तत्त्वज्ञानी नहीं ! तत्त्वज्ञान आत्मा के वश की बात नहीं होता और अध्यात्म की अन्तिम बात आत्मा तक ही होती है।<br />\r\n </p>\r\n\r\n<p><strong>आत्मा मात्र ही योग या अध्यात्म की अन्तिम मजिल‌ होता है, परमात्मा नहीं ।</strong></p>\r\n\r\n<p>आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धुओं को मिथ्या ज्ञानाभिमान रूप भ्रम एवं भूल से अपने को बचाये रहते हुये सदा सावधान रहना-रखना चाहिये ताकि जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा, जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर, जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह आदि तथा आध्यात्मिक सोऽहँ- हँऽसो-ज्योति को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् और योग-साधाना या अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कह-कहवा कर अध्यात्म के महत्त्व को मिथ्यात्त्व से जोड़कर घटाना या गिराना नहीं चाहिये । सन्त महात्मा ही झूठ या असत्य कहें या बोलना शुरू करें तो बहुत शर्म की बात है और तब 'और' समाज की गति क्या होगी? अत: हर किसी को ही झूठ या असत्य से हर हालत में ही बचना चाहिए । सन्त-महात्मन बन्धुओं को तो बचना ही बचना चाहिए । क्योंकि धर्म का आधार और मजिल दोनों ही 'सत्य ही तो है । सत्य नहीं तो धर्म नहीं ।</p>\r\n', '14 Jun, 2022'), (3, 'नहीं रहता कण-कण में भगवान --सन्त ज्ञानेश्वरजी ।', '<p>सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् के प्लॉट नं 69 सेक्टर नं 14 स्थित पण्डाल में चलरहे सत्संग कार्यक्रम में सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के शीष्य महात्मा महेन्द्रानन्द जी ने प्रवचन में कहा, यह आधुनिक गुरुजन उस सर्वोच्च शक्ति-सत्ता रूप परमेश्वर या खुदा-गॉड-भगवान को कण-कण में बताकर घोर अज्ञानता का परिचय दे रहे हैं । प्रहलाद जैसे भगवद् समर्पित-शरणागत भक्त के रक्षा-मर्यादा के लिये यदि भगवान खम्भे से निकल कर प्रकट हुये तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं हुआ कि भगवान खम्भे-खम्भे में बैठे रहते हैं या उस खम्भे में पहले से बैठे हुये थे । इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान अपने समर्पित-शरणागत भक्त के रक्षा-मर्यादा के लिये परिस्थिति और वातावरण के अनुकूल ही प्रकट होकर उसकी रक्षा-व्यवस्था करते रहते हैं । जैसे द्रोपदी के मर्यादा-रक्षा हेतु, गज के प्राण-रक्षा हेतु और अजामिल को यमदूतों से बचाने हेतु भगवान स्वयं चलकर ही आये थे । सोने-चाँदी लोहे-लकड़ी में तो जीव भी नहीं रहता, भगवान या परमात्मा के होने-रहने की बात तो मात्र कल्पना और अटकल है , कण-कण में भगवान से उत्पन्न और भगवान से पृथक् हुई भगवान की शक्ति मात्र है, जिसको परमाणु बम के फटने पर सुना-देखा जाता है । इस प्रकार कण-कण में भगवान के रहने वाली बात कहकर लोग वास्तव में समाज को अपने घोर अज्ञानता का परिचय देते हुये भरमाते हैं।</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>उनका कहना है कि परमात्मा एक ‘सर्वोच्च-सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम परमशक्ति-सत्ता हैं । उस परमात्मा के समकक्ष कोई भी या कुछ भी नहीं है। सब के सब और सब कुछ भगवान के अधीन और अन्तर्गत ही है । सब की और सब कुछ की उत्पत्ति उसी से और सबकी स्थिति उसी में है। ऐसे उस परमात्मा को सभी के हृदय में वास करने वाला बताना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार बल्ब में पावर-हाउस का होना या लोटे में समुद्र का होना बताया जाना। यह ज्ञानियों के लिये अत्यन्त हास्यास्पद बात है । भगवान है ही एक, इसलिये एक ही शरीर से क्रियाशील होता है, वह भी मात्र अवतार बेला में। जैसे पूरे सत्ययुग में श्रीविष्णु जी महाराज, त्रेतायुग म­ श्रीराम जी महाराज और पूरे द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी महाराज ही भगवान के अवतार थे । अर्थात् अभी तक तो एक-एक युग में मात्र एक-एक शरीर में ही भगवान हुआ करता था किन्तु आज भगवान सबमें हो गया ? ऐसा समझना सरासर भूल नहीं तो और क्या है ?</p>\r\n\r\n<p> </p>\r\n\r\n<p>सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद</p>\r\n', '20 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `programcalendartb` -- CREATE TABLE `programcalendartb` ( `id` int(11) NOT NULL, `program_name` varchar(200) NOT NULL, `from_date` varchar(20) NOT NULL, `to_date` varchar(20) NOT NULL, `address` varchar(500) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `programcalendartb` -- INSERT INTO `programcalendartb` (`id`, `program_name`, `from_date`, `to_date`, `address`, `added_on`) VALUES (4, 'श्रीकृष्णजन्माष्टमी', '2022-06-19', '2022-06-20', 'परमधाम आश्रम, महुअर, किरावली, आगरा, उत्तरप्रदेश, भारत, मोबाइल नंबर 09196001364 ', '19 Jun, 2022'), (5, 'विजयादशमी', '2022-06-22', '2022-06-23', 'परमभाव धाम आश्रम, मझवारा, सुल्तानपुर, उत्तरप्रदेश, भारत, मोबाइलनंबर-09196001364 ', '19 Jun, 2022'), (6, 'सदगुरुपुर्णिमा उत्सव', '2022-06-09', '2022-06-10', 'पिपरा धाम, पिपरा भुआल,बिशुनपुरा बाज़ार, देवरिया, उत्तर प्रदेश, उत्तरभारत, मोबाइल 09196001364 ', '19 Jun, 2022'), (7, 'रक्षाबंधन', '2022-06-18', '2022-06-20', 'पुरुषोत्तम धाम आश्रम, पुरुषोत्तम नगर, सिद्धौर, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश, उत्तरभारत, मोबाइल 09196001364 ', '19 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `sadgranthlinktb` -- CREATE TABLE `sadgranthlinktb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `downloadlink` varchar(500) NOT NULL, `readerlink` varchar(500) NOT NULL, `language` varchar(30) NOT NULL, `image_name` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `sadgranthlinktb` -- INSERT INTO `sadgranthlinktb` (`id`, `title`, `downloadlink`, `readerlink`, `language`, `image_name`, `added_on`) VALUES (2, 'Sadgranth2', 'https://drive.google.com/file/d/1iFxV-SpgUmdwkx8oBKIB4f0ZrkBRXXdP/view', 'https://drive.google.com/file/d/1iFxV-SpgUmdwkx8oBKIB4f0ZrkBRXXdP/view', 'English', '1656057851-4.jpg', '24 Jun, 2022'), (3, 'मोक्ष प्राप्ति का विधान', 'https://drive.google.com/file/d/1RP7tB7u08PuoHUVBMuC-tvjkhwndG9mb/view?usp=sharing', 'https://drive.google.com/file/d/1RP7tB7u08PuoHUVBMuC-tvjkhwndG9mb/view?usp=sharing', 'Hindi', '1656684700-26P-30-MOKSHA PRAPTI.jpg', '01 Jul, 2022'), (4, 'तत्त्वज्ञान की अविरल प्रवाह ', 'https://drive.google.com/file/d/1iFxV-SpgUmdwkx8oBKIB4f0ZrkBRXXdP/view?usp=sharing', 'https://drive.google.com/file/d/1iFxV-SpgUmdwkx8oBKIB4f0ZrkBRXXdP/view?usp=sharing', 'Hindi', '1656684830-27P-31-TATTVAGYAN KI AVIRAL PRAWAH.jpg', '01 Jul, 2022'), (5, 'सत्संग एवं भगवद दर्शन', 'https://drive.google.com/file/d/19jEXeyzcfJya2QO_8ft7twVzM3rocnbD/view', 'https://drive.google.com/file/d/19jEXeyzcfJya2QO_8ft7twVzM3rocnbD/view', 'Hindi', '1656684907-28P-33-SATSANG & BHAGWAD DARSHAN.jpg', '01 Jul, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `satsangprogramtb` -- CREATE TABLE `satsangprogramtb` ( `id` int(11) NOT NULL, `program_name` varchar(500) NOT NULL, `from_date` varchar(20) NOT NULL, `to_date` varchar(20) NOT NULL, `address` varchar(500) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `satsangprogramtb` -- INSERT INTO `satsangprogramtb` (`id`, `program_name`, `from_date`, `to_date`, `address`, `added_on`) VALUES (1, 'Satsang-Bhajan-Kirtan Program', '2022-07-05', '2022-07-09', 'Belatal Tiraha (Tagela), Shree Nagar, Dist.- Mahoba, U.P. ', '04 Jul, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `shankasamadhancategorytb` -- CREATE TABLE `shankasamadhancategorytb` ( `id` int(11) NOT NULL, `category_name` varchar(500) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `shankasamadhancategorytb` -- INSERT INTO `shankasamadhancategorytb` (`id`, `category_name`, `added_on`) VALUES (2, 'शंका समाधान - 2', '14 Jun, 2022'), (3, 'शंका समाधान - 1', '14 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `shankasamadhantb` -- CREATE TABLE `shankasamadhantb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(1000) NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `category` varchar(300) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `shankasamadhantb` -- INSERT INTO `shankasamadhantb` (`id`, `title`, `discription`, `category`, `added_on`) VALUES (1, 'जिज्ञासु:- महात्मा जी वैसे तो एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी आज कि चार युग होते हैं, सभी जानते हैं लेकिन ये चौथा युग संगम युग है, पाँचवा युग संगम है वो आपने आज बताया है। वास्तव में ये है भी है सही। ये मैं भी मानता था। इसलिये इसका मुझे सहारा मिला आपका। मैं बड़ा प्रसन्न हुआ।', '<p> सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय sss ! ये पाँचवा नहीं है। हर एक युग जाता है और दूसरा आता है तो दोनों का जो संधि समय है, मिलन बिन्दु है तो दोनों एक दूसरे को कुछ प्रभावित करते हैं। पिछला अगले में अगला पिछला में। वो जो प्रभावित समय है उसको संगम युग कहा जाता है इसी के दूसरे नाम को संधि बेला कहते हैं। संधि बेला कह दीजिये। संगम युग कह दीजिये। तो ये हर किसी में होता है। दो नदियाँ भी मिलेंगी, दो नदियाँ मिलेंगी तो मिलन बिन्दु पर कुछ दूर दोनों एक दूसरे को प्रभावित करके आगे जायेंगे तो संगम कहलायेगा। दो रेल लाइन मेलेंगे तो जंक्शन कहलायेगा। दोनों पटरियाँ कुछ भिन्न किस्म की होंगी। मिलन बिन्दु पर पहले से कुछ आगे तक दो ही पटरी नहीं होगी। तीन चार पटरियाँ होंगी कुछ दूर तक। फिर इसी तरह से रोडवेज मिला यानी हर लाइन में। देखिये जब आत्मा मिलेगा शरीर से, आत्मा और शरीर मिलेंगे तो आत्मा-चेतन, शरीर-जड़ दोनों कैसे क्रियाशील होंगे तो दोनों का जो मिलन बिन्दु होगा तो शरीर से रूप आकृति और आत्मा से क्रियाशीलता दोनों मिलकर के एक थर्ड भाग क्रियेट करते हैं, वो है जीव जो दोनों के बीच बीचौलिया का काम का काम करता है। इधर शरीर के और उधर आत्मा के, आत्मा से शरीर के जैसे ज्वाइंट है। इस माउथपीस और स्टैंड ये सुविधा के लिये ज्वाइंट न रहे तो ये दोनों कैसे जुड़ेंगे? कहीं भी दो चीज जब मिलेगा तो एक तीसरी वस्तु एक ज्वाइंट मिलेगा। वैसे ही दो युग मिल रहा है ये ज्वाइंट है। ज्वाइंट माने संगम युग।</p>\r\n', '3', '15 Jun, 2022'), (3, 'जिज्ञासु:- द्वापर है, त्रेता है, कलयुग है, सतयुग है।', '<p>सन्त ज्ञानेश्वर जी:- द्वापर त्रेता नहीं, त्रेता द्वापर। सतयुग चार चरण वाला धर्म का, त्रेता तीन चरण वाला, द्वापर दो चरण वाला, कलयुग एक चरण। इसलिये सतयुग, त्रेता, द्वापर; द्वापर, त्रेता नहीं। एक दो तीन नहीं है, चार तीन दो एक है। ये गणना एक दो तीन नहीं है, चार तीन दो एक है। तो सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग, ऐसा है।</p>\r\n', '3', '22 Jun, 2022'), (4, 'जिज्ञासु:- ऐसा है, तो ये चारों कब-कब आते हैं एक दिन में?', '<p>सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कभी नहीं। तीन मिलते रहते एक युग में। कलयुग है यानी सतयुग आ रहा है तो पीछे कलयुग जा रहा है तो आगे त्रेता प्रतीक्षा में है। जब सतयुग पूर्ण हो जायेगा तो पीछे कलयुग और आगे आने वाला है त्रेता, जब त्रेता आयेगा तो पीछे सतयुग ओर आगे आने वाला द्वापर, जब द्वापर जाने वाला होगा तो पीछे त्रेता और आगे आने वाला कलयुग, जब कलयुग आने वाला होगा तो पीछे द्वापर, आगे आने वाला सतयुग एक सर्किल है, इसी तरह से क्रमशः आता रहता है।</p>\r\n', '3', '22 Jun, 2022'), (5, 'जिज्ञासु:- इस समय कौन युग चल रहा है?', '<p>सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इस समय संगम युग है, कलयुग गया, सतयुग आया। दोनों का एक-दूसरे में जो प्रभावित क्षेत्र है, वहीं संगम कहलाता है। इस समय संगम युग है तो कलयुग गया, सतयुग आया, अब दोनों के एक-दूसरे में जो प्रभाव है वो प्रभावित समय है ये। संगम युग है। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय sss । और कोई भाई बन्धु। अभी पौने चार हो रहा है और छः बजे फिर आना है।</p>\r\n', '2', '22 Jun, 2022'), (6, 'जिज्ञासु:- नमस्कार सरकार! एक बात है ये जो बोलता है वो कौन है?', '<p>सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भइया ! अभी तो आप शरीर बोल रही हो, दिखाई दे रहा है। जब खोजने चलोगी तो पता चलेगा कि जीव है। अभी तो दिखाई दे रहा है शरीर बोल रही है लेकिन शरीर बोलती नहीं है। जब खोजोगी, पाओगी तो दिखाई देने लगेगा कि जो हम बोल रहा है न, ‘हम’ शरीर नहीं जीव है। यही तो देखना चाहिये कि ‘हम’ कौन हैं। जब जीव से आगे बढ़ोगी कि जीव कहाँ से आ गया? तो पता चलेगा कि ये आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म था और माया के क्षेत्र में जब आया तो दोष-गुण से आवृत्त करके माया ने ही ईश्वर को जीव बना दिया। तो दोष-गुण से युक्त आत्मा जीव है और दोष-गुण से निवृत्त जीव आत्मा है। ये जो बोल रहा है जीव है मइया। आप भाग लो न, सब दिखलायेंगे। आप इसमें शरीक हो तो तेरे को जीव भी दिखलायेंगे और ईश्वर भी तुम्हें दिखलायेंगे। परमेश्वर तो तब तक नहीं दिखलायेंगे, जब तक समर्पण नहीं करोगी। लेकिन जीव ईश्वर दिखला देंगे। अरे भाग लो हम तेरे को ही दिखा देंगे मइया। तू क्या बकवास में पड़ी है। तू इसमें शरीक हो, हम तेरे को ईश्वर दिखा देंगे। अभी पास कर दे रहे हैं, भाग लो तेरे को ईश्वर दिखा देंगे। जीव भी तेरे को दिखायेंगे।</p>\r\n', '3', '22 Jun, 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `shavadkoshtb` -- CREATE TABLE `shavadkoshtb` ( `id` int(11) NOT NULL, `title` varchar(500) NOT NULL, `discription` longtext NOT NULL, `iframe` varchar(1000) NOT NULL, `refrence` varchar(500) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `shavadkoshtb` -- INSERT INTO `shavadkoshtb` (`id`, `title`, `discription`, `iframe`, `refrence`, `added_on`) VALUES (1, 'अध्यात्म', 'अध्यात्म जीव का आत्मा से मिलन तथा दरश – परश और मेल – मिलाप करते हुए आत्मामय कायम करने – कराने का एक क्रियात्मक साधना पद्धति है |', '', '', '09 July 2022'), (2, 'तत्त्वज्ञान', '‘तत्त्वज्ञान’ ही वह ‘अशेष ज्ञान’ पद्धति है जिसे यथार्थत: जान लेने के पश्चात कुछ भी जानना और पाना शेष नहीं रह जाता |', '', '', '09 July 2022'), (3, 'प्रभु', 'भगवान् (सम्पूर्ण जगत की उत्त्पति, स्थिति और संहार करने वाले सर्वशक्तिमान परमेश्वर)', '', '', '09 July 2022'), (4, 'सन्त', 'सन्त का सामान्यत: अर्थ तो लोग भगवद नाम कीर्तन-भजन-सन्यास रूप में करने वाले को, तपस्वी को, ब्रह्मचारी को, योगी-साधक-सिद्ध-महात्मा को, अध्यात्मवेत्ता को आदि आदि को से लगाया करते हैं, मगर वास्तव में यथार्थत: सन्त का भाव – ‘अन्तेन सहित: स सन्त: ।’ अर्थात ‘अन्त सहित जो, वह ही सन्त है ।’ दूसरे शब्दों में जिस भगवत्ता से सम्पूर्ण सृष्टी या अखिल ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हो, जिस भगवत्ता से सम्पूर्ण सृष्टी संचालित हो तथा अन्तत: जिस भगवत्ता में सम्पूर्ण सृष्टी लय-विलय कर जाती है, उस ही; एकमात्र उस ही भगवत्ता के यथार्थत: ज्ञान से युक्त रहता है, वास्तव में वह ही एकमात्र सन्त होता-रहता है । सन्त रूप में या तो खुद भगवान ही होता रहता है अथवा अनन्य भगवद प्रेमी, अनन्य भगवद सेवक, अनन्य भगवद भक्त अवं अनन्य भगवद ज्ञानी मात्र ही होता- रहता-आता है ।', '', 'संदर्भ – कैसा होता है ‘सत्संग’ ? और किसे कहते हैं ‘सन्त’ ? पेज नंबर – 26', '09 July 2022'), (5, 'सत्संग', 'सत्संग को दूसरे शब्दों में यह भी रूप दिया जा सकता है – कि भगवान-खुदा-गॉड की यथार्थत: जानकारी प्रत्यक्षत: दर्शन, स्पष्टत: बात-चीत करता-कराता हुआ पहचान तत्पश्चात उसका सम्पर्क कराकर उस भगवान-खुदा-गॉड से सम्बन्ध को जोड़-स्थापित करता हुआ एकमात्र उसी के सहारे उसी के शरणागत रहता हुआ अपने को पूर्णत: सर्वतो भावेन उसी के प्रति समर्पित-शरणागत कराने वाली सारी जानकारी ही सत्संग है ।', '', 'संदर्भ – कैसा होता है ‘सत्संग’ ? और किसे कहते हैं ‘सन्त’ ? पेज नंबर – 11', '09 July 2022'), (6, 'संसार', 'जड़ और चेतन नामक दो वस्तुओं से गुण और दोषमय दो वृत्तियों से बनी चौरासी लाख योनियों द्वारा अपने गुण और कर्म से युक्त संस्कारों के अनुसार परमेश्वर के संकल्प से उत्पन्न एवं संचालित एक कर्म तथा भोग स्थल ही संसार है।\r\nइस प्रकार संसार वह कर्म एवं भोग से युक्त स्थान है, जहाँ पर जीव अपने संस्कारों के आधार पर परमात्मा के निर्देशन में चौरासी लाख योनियों के माध्यम से विचरण करता है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 7', '09 July 2022'), (7, 'जड़', 'जड़ से तात्पर्य पदार्थ (Matter) से होता है जो चेतनाहीन होता है, जो क्रमिक रूप से उत्पन्न होते हुये पाँच प्रकारों में जाकर स्थित हो गया है। जैसे – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी ।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 7', '09 July 2022'), (8, 'चेतन (आत्मा)', 'परमात्मा, खुदा गॉड या सर्वोच्च सत्ता-शक्ति के संकल्प से उत्पन्न दिव्य ज्योति, डिवाइन लाइट, नूरे इलाही या चाँदना ही चेतन आत्मा (Soul) है', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 19', '09 July 2022'), (9, 'जीव', 'सूक्ष्म रूप में इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से युक्त आत्मा ही जीव (Self) या सूक्ष्म शरीर है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 22', '09 July 2022'), (10, 'जाग्रतावस्था', 'जीव या सूक्ष्म शरीर का क्रियाशील रूप में शरीर में कायम (स्थित) रहना ही जाग्रतावस्था है। जीव की क्रियाशीलता ही इन्द्रियों की क्रियाशीलता के रूप में आभासित होती है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 22', '09 July 2022'), (11, 'आलस्य', 'जीव या सूक्ष्म शरीर का शरीर के अन्दर क्रियाहीन अवस्था में स्थित रहना ही आलस्य है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 22', '09 July 2022'), (12, 'स्वप्नावस्था', 'जीव या सूक्ष्म शरीर का पुनर्वापसी की अवस्था में रहते हुये क्रियाशील अवस्था में शरीर से बाहर रहना ही जीव की स्वप्नवास्था है। स्वप्न मन की कल्पना या बुद्धि का विवर्त नहीं है अपितु जीव का स्थूल शरीर से क्रियाशील रूप में अलग रहना ही स्वप्न है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 22', '09 July 2022'), (13, 'सुषुप्ति अवस्था', 'जीव या सूक्ष्म शरीर का पुनः वापसी की अवस्था में रहते हुये स्थूल शरीर से बाहर क्रियाहीन अवस्था में रहना ही सुषुप्ति अवस्था है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 22', '09 July 2022'), (14, 'तुरीयावास्था', 'जीव या सूक्ष्म शरीर का साधना या ध्यान आदि के माध्यम से आत्मा या कारण शरीर से मिलकर स्थूल शरीर से बाहर एकाकार अवस्था में स्थित रहना ही तुरीयावस्था है। यह साधना सिद्धि की अवस्था होती है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 23', '09 July 2022'), (15, 'विचार', 'जीव या सूक्ष्म शरीर के कार्य करने के एकमात्र माध्यम को विचार कहते हैं।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 23', '09 July 2022'), (16, 'शक्ति', 'परमात्मा से उत्पन्न चेतन तथा विचार-शक्ति (Consciousness or Thinking Power)से रहित ज्योति मात्र ही शक्ति (Power) है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 23', '09 July 2022'), (17, 'ध्वनि', 'शक्ति की गतिशीलता से (गति से) उत्पन्न आवाज (Voice) ही ध्वनि(Sound) है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 24', '09 July 2022'), (18, 'प्रकाश', 'चक्षु(दृष्टि) एवं अतीन्द्रिय के माध्यम से पकड़ में आने वाली किसी वस्तु एवं शक्ति के रूप में पकड़वाने (दिखाने) वाली जानकारी ही प्रकाश (Light) है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 24', '09 July 2022'), (19, 'गुण', 'किसी वस्तु या शक्ति विशेष की लक्ष्य प्राप्ति की अनुकूलता से युक्त विशेषता ही गुण (Merit) है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 25', '09 July 2022'), (20, 'दोष', 'किसी वस्तु या शक्ति विशेष की लक्ष्य प्राप्ति की प्रतिकूलता से युक्त विशेषता ही दोष (Demerit) है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 25', '09 July 2022'), (21, 'सत्त्व गुण', 'पूर्णतः सत्यमय बनाने अथवा सत्य को प्राप्त कराने वाला विचार, कार्य एवं भोग आदि सत्त्व गुण है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 24', '09 July 2022'), (22, 'रजो गुण', 'सत्यासत्यमय बनाने अथवा सत्यासत्य संयुक्त रूप को प्राप्त कराने वाले विचार, कार्य एवं भोग आदि ही रजो गुण हैं।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 25', '09 July 2022'), (23, 'तमो गुण', 'असत्यमय बनाने अथवा सत्य से हटाकर घोर पतन को प्राप्त कराने वाला विचार, कार्य एवं भोग आदि तमोगुण हैं।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 25', '09 July 2022'), (24, 'शरीर', 'शरीर (Body), कोषों (Cell) से निर्मित वह आकृति है, जिसमें आत्मा (Soul) जीव (Self) बनकर तथा जिससे संसार में कर्मकर तदनुसार भोग भोगती है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 34', '09 July 2022'), (25, 'सृष्टि चक्र', 'चेतन आत्मा और शक्ति के द्वारा जीव और वस्तु रूप में परिवर्तित होकर आपसी सहयोग के माध्यम से कर्म करते और भोग भोगते हुये बार-बार कारण-सूक्ष्म-स्थूल तत्पश्चात स्थूल-सूक्ष्म-कारण आकृतियों (शरीरों और वस्तुओं) में परिवर्तित होते रहना ही सृष्टि चक्र है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 41', '09 July 2022'), (26, 'नाम', '‘नाम’ का अर्थ उस ‘शब्द-विशेष’ से है, जिसके माध्यम से किसी सत्ता-शक्ति अथवा व्यक्ति-वस्तु विषय की जानकारी प्राप्त हो।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 106', '09 July 2022'), (27, 'रूप', '‘रूप’ का अर्थ उस ‘आकृति-विशेष’ से है जिसके माध्यम से किसी सत्ता-शक्ति अथवा व्यक्ति-वस्तु की पहचान अथवा ‘बोध’ रूप परिचय प्राप्त हो।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 106', '09 July 2022'), (28, 'अमृत-पान', 'प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जिह्वा-मूल के ऊपर एक कण्ठ-कूप होता है। इस कूप को अमृत-कूप भी कहते हैं। गर्भस्थ शिशु की जिह्वा, जिह्वा-मूल से ही ऊपर उठकर उसी कण्ठ-कूप में पड़ी रहती है और शिशु अमृत-पान करता रहता है। बाहय व्यवहार से सिमटकर इंद्रियाँ अन्तरमुखी होकर ध्यान के अन्दर रहते हुये जिह्वा को खींचकर जिह्वा-मूल से ऊपर कण्ठ-कूप में स्थिर करने वाली पद्धति ही खेंचरी मुद्रा या अमृत-पान कहलाता है, जो गर्भस्थ शिशु का स्वतः ही होता रहता है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 123', '09 July 2022'), (29, 'ध्यान-मुद्रा', 'ध्यान-मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसके अन्तर्गत दृष्टि बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी होकर उर्ध्वमुखी रूप में आज्ञा-चक्र में टिकायी जाती है। यही दिव्य-दृष्टि तथा तीसरी दृष्टि भी है, जिससे युक्त रहने के कारण शंकर जी त्रिनेत्र भी कहलाते हैं। आत्म-ज्योति का साक्षात्कार इसी ध्यान-मुद्रा अथवा दिव्य-दृष्टि से ही होता है।', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 123', '09 July 2022'), (30, 'अनहद्-नाद', 'आत्म-ज्योति के अन्तर्गत होती रहने वाली दिव्य-ध्वनि को श्रवण करने वाली क्रिया प्रक्रिया ही अनहद्-नाद है। यह क्रिया-प्रक्रिया सदा-सर्वदा निरन्तर धुन के रूप में असीम (कितने प्रकार की ध्वनि इसमें निहित रहती है अब तक निश्चित नहीं हो सका है। ) रूप में होता रहता है अर्थात यह सीमा से रहित होता है, इसीलिए इसे अनहद्-नाद कहा जाता है। यह दिव्य-ध्वनि दिव्य-आनन्द से युक्त होती है, जिसे योगी लोग कानों को बन्द कर-कर के सुना करते हैं', '', 'सन्दर्भ: कैसे हुई स्थूल जगत की रचना ? पेज न. 123', '09 July 2022'), (31, 'यम', 'अष्टांग योग के अन्तर्गत यम पहला अंग या योग कि आठ सीढ़ियों में यम पहली सीढ़ी है, जिसका सीधा सम्बन्ध स्वभाव से होता है अर्थात् यम कोई क्रिया-विशेष नहीं होता है, बल्कि भाव को असत्य से हटाकर या खींचकर सत्य से युक्त करके सत्यमय बनाना, हिंसा से हटा या खींचकर अहिंसक बनाना, साम्पत्तिक दृष्टि, उसमें भी चोरी, लूट, डकैती, अपहरण, राहजनी आदि से हटा कर या खींचकर ईमानदार बनाना, वासना तथा ममता एवं आसक्ति से हटाकर या खींचकर ब्रह्मचर्य (स्त्री प्रसंग या स्त्री चिंतन से दूर) तथा (परमब्रह्म को जान, पहचान कर ब्रह्ममय आचरण) बनाना तथा परिग्रह (सम्पत्ति संग्रह) से हटाकर या खींचकर अपरिग्रही (सम्पत्ति त्यागी) बनाना आदि यम के अन्तर्गत अथवा यम के द्वारा ही होता है', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 51', '09 July 2022'), (32, 'सत्य', 'कथनी के अनुसार ही करनी तथा करनी के अनुसार ही कथनी करना या होना ही सत्य है। शाश्वतता या अमरता, एकरूपता एवं अपरिवर्तनशीलता परमभाव वाला सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्य ही यथार्थतः सत्य है ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 52', '09 July 2022'), (33, 'अहिंसा', 'अहिंसा हिंसा का ही विलोम शब्द हैं । हिंसा का सामान्य अर्थ हत्या से कहा और समझा जाता है परन्तु हिंसा का विशिष्ट अर्थ किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का छोटा या बड़ा कष्ट देना ही हिंसा है । ठीक इसके प्रतिकूल किसी भी जीव को किसी भी प्रकार से एवं किसी भी प्रकार का भी कष्ट न देना ही अहिंसा है । अहिंसा जीव-कल्याण का सर्वोत्तम सिद्धान्त है ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 55', '09 July 2022'), (34, 'अस्तेय', 'अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। चोरी न करने हेतु सर्वप्रथम यह देखना पड़ेगा कि चोरी क्या है? तो देखने, जानने में आता है कि किसी के भी सम्पत्ति को बिना उसको जनाये या बिना उसके जाने उठा या ले लेना तथा अपना बनाकर छिपे रूप में उपभोग करना ही चोरी होता है। चोरी करना सामाजिक रूप से घृणित कर्म है ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 63', '09 July 2022'), (35, 'जढ़ता', 'शरीर और संपत्ती रूप जड़-जगत् में अपने चित्त को लगाकर शरीर और संपत्ति प्रधान वृति को कर लेना ही जढ़ता है। अर्थत् अपने शरीर, परिवार या शारीरिक सम्बन्धी जन तथा संपत्ति मात्र के विकास और व्यवस्था में ही अपने को लगाये रखना जढ़ता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 64', '09 July 2022'), (36, 'भ्रष्टता', 'समाज में सत्य-न्याय-धर्म-नीति एवं समाज कानून विरोधी समस्त कार्य ही भ्रष्टता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 64', '09 July 2022'), (37, 'ब्रह्मचर्य', 'ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ तो अविवाहित एवं स्त्री-प्रसंग रहित जीवन से लगाया जाता है परन्तु ब्रह्मचर्य की यथार्थतः इसमें नहीं है अपितु – ‘ब्रह्ममय आचरण (वृत्ति और कृत्ति)’ ही यथार्थतः ब्रह्मचर्य है। मात्र स्त्री-प्रसंग ही ब्रह्मचर्य भंग होने का लक्षण नहीं होता है अपितु स्त्री चिन्तन भी उसी में आता है। अविवाहित रहते हुये भी स्त्री-चिन्तन में पड़े या डूबे रहना भी मानसिक व्यसन है और सैकड़ों हजारों स्त्रियों के बीच या साथ रहते हुये यदि ब्रह्मचर्य आचरण (वृत्ति एवं कृत्ति) है तो इसका ब्रह्मचर्य पर कोई असर या प्रभाव नहीं पड़ता।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 68', '09 July 2022'), (38, 'अपरिग्रह', 'अपरिग्रह का अर्थ है “सम्पत्ति-संग्रह न करना”। लगभग ९०% अपराध का आधार-विन्दु सम्पत्ति संग्रह होता है और वर्तमान में संसार में चोरी, डकैती, लूट एवं घूसखोरी जैसा भ्रष्ट-अपराध भी “सम्पत्ति-संग्रह” के कारण ही हो रहा है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 70', '09 July 2022'), (39, 'नियम', 'योग-साधना की सिद्धि के लिये शारीरिक एवं वैचारिक शुद्धि हेतु आवश्यक जानकारी एवं पद्धति ही नियम है। यह पाँच प्रकार का है जैसे -----1 शौच 2 तप 3 संतोष, 4 ईश्वर प्रणिधान और 5 स्वाध्याय।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 73', '09 July 2022'), (40, 'शौच', 'शौच का अर्थ है शुद्धि या पवित्रीकरण से है। शारीरिक शुद्धि मानव जीवन के आनन्द हेतु जितनी आवश्यक है इसकी अनुभूति लगभग प्रत्येक को ही थोड़ा-बहुत अवश्य होती है तथा क्षमतानुसार सभी थोड़ा-बहुत करते ही हैं। परन्तु यदि योग-साधना करना है अर्थात् अपने जीव को आत्म-ज्योति रूप आत्मा से मिलाकर आत्मामय जीवन बिताने हेतु शारीरिक शुद्धिकरण या पवित्रीकरण तथा वैचारिक शुद्धि अत्यावश्यक होता है।शौच मुख्यतः दो प्रकार का होता है आभ्यांतर और बाह्य अथवा नेति और धौति।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 73', '09 July 2022'), (41, 'नेति', 'शारीरिक शुद्धिकरण के अन्तर्गत नेति बाह्य शुद्धि की क्रिया है। जिसके अन्तर्गत मल-विसर्जन, मूत्र-विसर्जन, स्नान, मुख प्राक्षालन, पाद प्राक्षालन आदि क्रियायें अति हैं। नेति-क्रिया से शरीर की शुद्धि होती है जिसके परिणाम स्वरूप इंद्रियाँ तथा शरीर के शेष अंगों में भी शुद्धता एवं स्वच्छता के सठ स्फूर्ति बनी रहती है, जिससे मस्तिष्क सामान्य तथा शरीर को गलत रास्ते पर नहीं भटका पता है ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 74', '09 July 2022'), (42, 'धौती', 'धौती का अर्थ धोने अथवा धुलने से होता है । शारीरिक शुद्धिकरण में धौती अन्तः करण की शुद्धि एवं सफाई से होता है । धौती-क्रिया के अन्तर्गत दन्त-धौती, वस्त्र धौती, वारि-धौती के साथ ही वायु-धौती भी आता है । शारीरिक शुद्धि हेतु जितनी आवश्यकता बाह्य-शुद्धिकरण की है, उससे जरा (थोड़ा) सा भी कम आवश्यकता अन्तः शुद्धि की भी नहीं है, बल्कि उससे भी अधिक आवश्यक एवं मर्यादित है ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 79', '09 July 2022'), (43, 'तप', '‘तप’ का अर्थ धर्म के क्षेत्र में कठिन श्रम या शरीर को धर्म हेतु ‘तपाना’ या कठिनाइयों को झेलना या परेशानियों का सहन-करना अथवा परमात्मा या सत्य-धर्म-न्याय-नीति हेतु ही शरीर को हर प्रकार से समर्पित करना है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 82', '09 July 2022'), (44, 'सन्तोष', 'सन्तोष का अर्थ ‘तुष्टि’से है अर्थात् अन्ततः इच्छा की तृप्ति और इच्छा की समाप्ति। कामनाओं से मुक्त होना अथवा किसी भी व्यक्ति या वस्तु पर ममता और आसक्ति की अनुपस्थिति ही सन्तोष का होना है। सन्तोष संसार की सर्वोत्तम उपलब्धि है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 83', '09 July 2022'), (45, 'स्वाध्याय', '‘स्वाध्याय’ का तात्पर्य ‘स्व’ मात्र के अध्ययन (मनन-चिन्तन)से है।स्वाध्याय के अन्तर्गत मनन-चिन्तन, निदिध्यासन आदि आता है। मनन-चिन्तन निदिध्यासन आदि विचार कि ही एक प्रक्रिया है इसके अन्तर्गत विचारक बन्धुगण शान्त एकांत स्थान में बैठकर अपने चित्त की वृत्तियों को विचार या चिन्तन के माध्यम से बाह्य क्रिया-कलापों से खींच कर अन्तः करण में विचार-मन्थन किया करते हैं कि ‘हम’ क्या हैं? कहाँ से आये हैं? कैसे-कैसे आये हैं ? क्यों आये हैं ? क्या कर रहे हैं ? क्या करना चाहिये ? क्या हम यह शरीर हैं ? आदि आदि विषय-बातों को लेकर जो मनन-चिन्तन किया जाता है, वही स्वाध्याय है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 88', '09 July 2022'), (46, 'ईश्वर-प्राणिधान', 'ईश्वर-प्राणिधान से तात्पर्य ‘अपने’ को ईश्वर के भक्ति में लगाने’ से है। इसके अन्तर्गत ‘ईश्वरीय-धारणा’ करनी पड़ती है। यह स्वाध्याय से ऊपर (उत्तम या श्रेष्ठ) विधान होता है क्योंकि स्वाध्याय एक अहंकारिक पद्धति या विधान होता है जब कि ईश्वर-प्राणिधान ‘स्व’ को ‘ईश्वर’ के प्रति मिलाने तथा भक्ति करने-कराने का विधान है। ईश्वर प्राणिधान के अन्तर्गत साधक व्यक्ति को अपने ‘स्व’ रूप ‘जीव’ को अन्य सांसारिक विधानों से खींचकर आत्मा या ईश्वर में लगाना पड़ता है। बार-बार अपने चित्त को बाह्य वृतियों से समेट कर ईश्वर-भक्ति के प्रति लगाना पड़ता है। इसीलिए इसे ईश्वर-प्राणिधान नाम से जाना जाता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 90', '09 July 2022'), (47, 'आसन', 'आसन योग का तीसरा सोपान या तीसरा अंग है जिसके द्वारा शरीर हष्ट-पुष्ट एवं नाडियाँ योग-साधना के योग्य बनती है। आसन शारीरिक गठन मात्र के लिये ही नहीं, अपितु योग-साधना की एक अनिवार्य कड़ी है। साधक के लिये आसनों की यथार्थ जानकारी तथा उसी के अनुसार अभ्यास करने से शरीर चुस्त और दुरुस्त तो होती ही रहती है, अन्तःकरणमें तेजी भी बढ़ता है जिसके माध्यम से सिद्धियाँ भी आकर सेविका का कार्य करती है, हालाँकि यथार्थ योगीया सिद्ध-साधक सिद्धियों के चक्कर में न पड़कर सदा अपने लक्ष्य की ओर दृष्टि लगाये रखता हैपरन्तु सामान्य साधक जन पथ-भ्रष्ट होकर चमत्कार के रूप में फंस-फंसाकर चमत्कार प्रदर्शन में लग जाते हैं जो योग सिद्धि को समाप्त करने या होने के लिये पर्याप्त है। जहाँ तक योग-साधना का सवाल है आसन को अनिवार्यतः अंग मानना ही पड़ेगा। आसन ही वह शारीरिक क्रिया है जो नस-नाड़ियोंको अपने मनमाना गति-विधियों से नियंत्रित रखते हुये साधना हेतु उत्प्रेरित करता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 92', '09 July 2022'), (48, 'सिद्धासन', 'योग-सिद्धि अथवा साधना-सिद्धि हेतु यह आसन सिद्धासन ही श्रेष्ठतम् तथा सर्वोत्तम आसन है ।सिद्धासन के अन्तर्गत बायाँ पैर की एड़ी को गुदा-मूल तथा दायाँ पैर की एड़ी को लिंग-मूल के नीचे करके सीना-गर्दन और ललाट एक सीध में करके सीधा बैठना होता है ।अभ्यास में सबसे सुगम या आसन तथा लाभ में अच्छा गुणकारी सिद्धासन ही है ।तो उसे सर्वप्रथम आसनों का अभ्यास करना चाहिये ।आसनों को मात्र कसरत ही नहीं समझना चाहिये क्योंकि कसरत+दिव्यभाव =आसन होता है ।कोई पहलवान किसी भी आसन-प्राणायाम वाले योग-सिद्ध पुरुष के समक्ष किसी भी स्तर पर ठीक (बराबरी) नहीं कर सकता है ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 93', '09 July 2022'), (49, 'स्वस्तिकासन', 'स्वस्तिकासन से तात्पर्य ‘स्वस्तिक’ चिन्ह जैसे आसन से है सनातन धर्म के अन्तर्गत कर्म-कांडी विधानोंमें स्वस्तिक चिह्न एक मर्यादित तथा मान्यता प्राप्त धर्म-चिह्न के रूप में स्थान पाता है। सेठ-साहूकार इसको विशेष महत्व की दृष्टि से देखते हैं तथा इसे शुभ-मंगलमय दृष्टि से देखते हैं। उसी स्वस्तिक चिह्न जैसे आकृति होने के कारण इस आसन का नाम स्वस्तिकासन पड़ा। इसके अन्तर्गत बायाँ पैर को दायाँ जंघा के नीचे दायाँ पैर को बायाँ जंघा पर रखकर सीना-गर्दन तथा ललाट एक सीध में रखते हुये स्थिरता पूर्वक बैठना ही स्वस्तिकासन है।आसनों को कसरत-भाव से नहीं, अपितु दिव्य-भाव से करना चाहिये। किसी भी आसन का अभ्यास करते हुये जबर्दस्ती नहीं करना चाहिये। अभ्यसानुसार समय बढ़ाना चाहिये ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 93', '09 July 2022'), (50, 'पद्मासन', 'पद्म जैसे आकार वाला होने के कारण इस आसन को पद्मासन कहा जाता है। यह आसन गुण में तो किसी भी आसन से कम नहीं, अपितु अधिक ही होता है परन्तु इसके करने में थोड़ी कठिनाई या परेशानी या कष्ट होता है, इसीलिये इसको सिद्धासन के बाद स्थान मिलता है। इसके साथ ही पद्म से स्वस्तिक का भावनात्मक महत्त्व अधिक है इसीलिये स्वस्तिकासन भी इसके पहले ही अपना स्थान ले लेता है क्योंकि योग-आसन, कसरत प्रधान नहीं अपितु भाव प्रधान होता है।पद्मासन में बायाँ पैर को दायाँ जंघा पर तथा दायाँ पैर को बायाँ जंघा पर रखकर सीना-गर्दन तथा ललाट को एक सीध में करके सीधा बैठना होता है। पद्मासन का अभ्यास प्रारम्भ करने में थोड़ी परेशानी या कष्ट अवश्य होता है परन्तु धीरे-धीरे अपने अभ्यास को बढ़ाते जाय तो यह आसन बहुत ही गुणकारी होता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 93', '09 July 2022'), (51, 'वीरासन', 'वीर पुरुषों जैसा उत्तान सीना अथवा उभरा हुआ सीना जैसा आसन होने के कारण ही यह ‘वीरासन’ नाम से जाना और कहा-सुना जाता है। वीरासन शेर जैसा बैठने वाला आसन होता है, इसके अन्तर्गत दोनों पैरों को दोनों जंघाओं (अपने-अपने) के नीचे करके उभरा हुआ सीना तथा गर्दन और ललाट सीधा थोड़ा तना हुआ बहादुर जैसा बैठने वाला विधान ही आता है। वीरासन यदि भोजन के पश्चात् किया जाय, तो पेट सम्बन्धी गड़बड़ी तो होता ही नहीं, यदि पहले से होगा भी तो दूर होते देर नहीं लगेगा। इस देर से तात्पर्य घण्टा मिनट से नहीं, अपितु निकला हुआ पेट भी पचककर सीना उभरने लगता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को बहादुरी में परिवर्तित किये बिना नहीं छोड़ता। मर्दानगी वीरासन में ही झलकती है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 94', '09 July 2022'), (52, 'शवासन', 'शव के समान ही उत्तान लेटकर किया जाने वाला शवासन होता है। जहाँ तक पर-काया-प्रवेश तथा शरीर से बाहर निकाल कर कार्य करना या विचरण करना अथवा देवलोकों का भ्रमण करके लौटना आदि-आदि समस्त गति-विधियों इसी शवासन के माध्यम से ही होता है।इच्छानुसार शरीर से बाहर-विचरण करना तथा वापस आकार शरीर में प्रवेश कर सामान्य मानव के बीच रहना इसी आसन की देन है। यह आसन अतिशीघ्र ही अति-प्रभावकारी होता है। इसका प्रयोग सक्षम गुरु के अनुपस्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये। शरीर को छोड़ कर बाहर गया हुआ जीवात्मा पुनः वापस लौटेगा या नहीं इसकी गारण्टी नहीं दी जा सकती है। यह कारण है कि जब आत्म-नियंत्रण की क्षमता आने के पूर्व यह आसन वर्जित होता है। यह भी संभाव्यता रहती है कि निकला हुआ जीवात्मा कुछ दिनों तक न लौट सके, तब तक इधर शरीर समाप्त कर दी जाय। यह आसन बिल्कुल शव के समान ही लेटना है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 94', '09 July 2022'), (53, 'शीर्षासन', 'शीर्षासन सिर के बल अर्थात् ऊपर पैर और नीचे सिर करके सीधा खड़ा होने वाला आसन ही शीर्षासन होता है। शीर्षासन शारीरिक एवं रक्त शुद्धि के लिये विशेष गुणकारी आसन है इस आसन से रक्त की गति उल्टी हो जाती है जिससे रक्त सम्बन्धी काफी दोष दूर हो जाया करता है परन्तु इस आसन की मर्यादा योग-साधना के अन्तर्गत विशेष तो नहीं है परन्तु शरीर शुद्धि हेतु रक्त-शुद्धि और रक्त-शुद्धि हेतु यह आसन भावप्रधान न होकर कसरत प्रधान होता है। फिर भी शरीर हेतु यह आसन अवश्य ही करने योग्य है। यह अनेक बीमारी की अचूक औषधि भी है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 95', '09 July 2022'), (54, 'प्राणायाम', 'प्राणायाम प्राणों का आयाम तथा उसकी जानकारी ही है। अर्थात् ‘यथार्थ’ जानकारी के साथ प्राणों का आयाम ही प्राणायाम हैं। प्राणायाम मात्र शरीर का ही प्राण नहीं हैं अपितु योग-साधना का भी प्राण प्राणायाम ही है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 95', '09 July 2022'), (55, 'रेचक', 'शरीर के अन्तर्गत निहित वायु को प्रस्वास के द्वारा शरीर से बाहर निकालने या बाहर फेंकने की प्रक्रिया को ही रेचक कहते हैं। रेचक नाड़ी शोधन की सर्वोत्तम क्रिया है। इसके अन्तर्गत शरीर के अन्दर की समस्त वायु को इस प्रकार से बाहर निकाला जाता है कि शरीर बिल्कुल ही वायु शून्य आभासित होने लगे। जितनी आवश्यकता शरीर को पूरक कि है उससे थोड़ी भी कम आवश्यकता रेचक कि ही नहीं है क्योंकि जब स्थान खाली नहीं रहेगा तो कोई व्यक्ति या वस्तु वहाँ कैसे जायेगा ? ठीक उसी प्रकार जब तक शरीर के अन्दर की वायु को भीतर से रेचक क्रिया से बाहर निकाल नहीं देंगे तब तक शरीर के अन्दर पूरक की क्रिया से आत्म-शक्ति कैसे प्रवेश करेगी, अर्थात् नहीं कर पायेगी। इस प्रकार पूरक की जितनी आवश्यकता शरीर को पड़ती है उससे जरा सा भी कम आवश्यकता पूरक हेतु रेचक की भी नहीं है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 101', '09 July 2022'), (56, 'पूरक', 'पूरक-क्रिया शरीर की प्राण-वायु मात्र ही नहीं,अपितु प्राण-वायु के साथ आत्म-शक्ति (सः) भी पूरक-क्रिया के अन्तर्गत शरीर में प्रवेश करती है ।अब इससे समझ लेना चाहिये कि शरीर हेतु पूरक की कितनी आवश्यकता है ।शरीर के अन्दर ली जाने वाली अथवा प्रवेश करने वाली प्राण-वायु की प्रवेश करने वाली क्रिया ही पूरक है ।पूरक का सामान्य अर्थ भी है –कमी को पूरा करना ।पूरक वह क्रिया है जिसके द्वारा जीव को क्रियाशील होने हेतु आत्म-शक्ति प्राप्त होती या मिलती रहती है ।यह आत्म-शक्ति परमात्मा से चलकर प्राण-वायु के साथ पूरक-क्रिया के रूप में नासिका छिद्रों से शरीर में प्रवेश कर मूलाधार में पहुँचकर जीव रूप में परिवर्तित होकर या जीव रूप धारण कर शरीर को चलाता या क्रियाशील करता रहता है जिसकी यथार्थतः जानकारी करने और रखने वाला व्यक्ति तो योगी-यति,ऋषि-महर्षि तथा आध्यात्मिक साधक-सिद्ध,सन्त-महात्मा ,आलिम-औलिया,पीर-पैगम्बर,पादरी,प्राफेट्स आदि आदि कहलाते हैं और नाजानकार तथा मात्र कर्मो में जकड़ा हुआ व्यक्ति सांसारिक या गृहस्थ-वर्ग का कहलाता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 102', '09 July 2022'), (57, 'कुम्भक', 'शरीर के भीतर या बाहर,स्वास या प्रस्वास, रेचक या पूरक की यथा स्थान रोक रखना ही कुम्भक है। कुम्भक ही वह क्रिया-प्रक्रिया है जिसके द्वारा रेचक और पूरक की आवश्यकता तथा महत्व की यथार्थता की अनुभूति कराता या यथार्थता को आभासित करता है। कुम्भक-क्रिया करने से रेचक तथा पूरक की क्षमता एवं शक्ति-सामर्थ्य में असाधारण गतिं से वृद्धि होती है। कुम्भक-क्रिया का अभ्यासी और सिद्ध शरीर इतनी ताकतवर या बलवान तथा गम्भीर हो जाती है कि जीप-ट्रक को क्या कहा जाय ।स्टीमर या रेल इंजन को भी चुनौती दी जाती रही है। गरिमा सिद्धि की प्राप्ति भी कुम्भक क्रिया से ही प्राप्त होती है। पाठक बंधुओं ऐसा संसार में कोई प्राणी नहीं है जो कठिन श्रम या भार या बल संबंधी कार्यों में बिना कुम्भक के सहारे कार्य सम्पन्न कर पता हो। आप स्वयं अनुभव करें कि किसी भर को उठाने या धक्का देने या अचानक बल प्रयोग में स्वतः ही क्षणिक कुम्भक हो जा रहा है कि नहीं। तो देखने में आयेगा कि हो रहा है। इतना ही नहीं, आप सुनते भी होंगे कि झट से कह दिया जाता है कि इनका ‘दम’ टूट गया। जरा सोंचे कि ‘दम’ क्या था ? जो रेचक तथा पूरक में परिवर्तित हो गयी। बंधुओं इतना ही नहीं बारम्बार तेजी के साथ जब रेचक-पूरक होने लगता है तो यह भी कह दिया जाता है कि इनका ‘दम’ फूल रहा है अर्थात् हार या थक गये हैं अर्थात् दम या कुम्भक टूट गया है। यह बात अवश्य ही ज्ञेय या जानने योग्य है कि दम या कुम्भक बल, गम्भीरता आदि स्थिर ताकत या शक्ति का ही पर्याय होता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 102', '09 July 2022'), (58, 'प्रत्याहार', '‘विषयादीन्द्रिय निग्रहः प्रत्याहार। अर्थात् श्रोत्रादि इन्द्रियों का, शब्द-स्पर्शादी विषयों या इन्द्रियों का अपने वृतियों से संयत होते हुये मन का वश में होना ही प्रत्याहार है। यहाँ पर सामान्यतः तीन-विषय, इन्द्रियों तथा मन का जिक्र या वर्णन जन पड़ता है परन्तु मुख्यतः दो ही---विषय तथा इंद्रिय ही व्यवहार में आते हैं। इसलिए इन विषयों और इन्द्रियों दोनों को नियंत्रित अथवा अपने वश में करके रखना ही प्रत्याहार है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 104', '09 July 2022'), (59, 'विषय', 'पदार्थ-तत्त्वों या वस्तुओं की जानकारी कराने वाले माध्यम को उसका विषय कहा जाता है। जैसे आकाश तथा आकाश-तत्त्व बहुल वस्तुओं की जानकारी का माध्यम ‘शब्द’ है, जो शब्द उसका विषय हुआ। वायु तथा वायु तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने वाला माध्यम स्पर्श है, तो स्पर्श वायु तत्त्व का विषय हुआ। पुनः अग्नि तथा अग्नि तत्त्व का विषय हुआ तो जल तथा जल तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने का विषय रस है, जो रस जल तत्त्व का विषय हुआ और पृथ्वी अथवा थल तथा थल तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने वाला माध्यम गंध है, तो गंध थल तत्त्व का विषय हुआ। अंततः पाँचों पदार्थ तत्त्वों के मेल-मिलाप से ही हम आप के शरीर की रचना हुई अथवा शरीर उत्पन्न हुआ है। यही कारण है कि पाँचों पदार्थ तत्त्वों की जानकारी कराने वाला शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध है। इसलिए शरीर तथा वस्तुओं का विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध मात्र पाँचों ही हुआ।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 104', '09 July 2022'), (60, 'इंद्रियाँ', 'इन्द्रियों से मेरा तात्पर्य विषयों की जानकारी करने तथा उसके अनुसार साथ व्यवहार करने से है। इंद्रियाँ मुख्यतः से दो प्रकार की हैं, पहला-ज्ञानेंद्रियाँ और दूसरा कर्मेन्द्रियाँ। ज्ञानेन्द्रियों का कार्य वस्तुओं का विषयों के अनुसार जानकारी करना तथा कर्मेन्द्रियों का कार्य जानकारी के अनुसार व्यक्तियों और वस्तुओं से व्यवहार करना है। इन्द्रियों के माध्यम से ही शरीर जानकारी तथा व्यवहार करती हुई।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 105', '09 July 2022'), (61, 'धारणा', 'अष्टांग योग का छठवाँ अंग धारणा है।धारणा जीवन का एक आधारभूत सिद्धान्त है। यह मात्र योग का ही नहीं,अपितु संसार में शारीरिक-पारिवारिक विकास की धारणा तथा सामाजिक विकास या उत्थान की धारणा; आत्मउत्थान या कल्याण की धारणा तथा सामाजिक सुधार और समाजोद्धार की धारणा,धारणा से तात्पर्य उद्देश्य या लक्ष्य से है। धारणा के बगैर किसी को सफलता मिले यह सोचना ही मूर्खता की बात है। क्योंकि धारण बिना कार्य तो उद्देश्य विहीन कार्य हुआ और जिस कार्य का उद्देश्य ही न हो आखिरकार उसमें सफलता-किस बात की सोची जाय? उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति ही सफलता है,तब उद्देश्य या लक्ष्य ही न हो जिसमें उसमें सफलता की बात ही कहाँ? अर्थात् कहीं नहीं। धारणा के बगैर ध्यान-समाधि सब व्यर्थ है। किस बात का ध्यान होगा और ध्यान नहीं तो समाधि भी नहीं। धारणा मात्र योग में ही प्रस्तुत होने वाला शब्द या क्रिया-प्रक्रिया नहीं अपितु एक व्यापक उद्देश्य या व्यापक लक्ष्य वाला शब्द है। अंततः जो धारण करने योग्य हो उसे ही धारण करना धारणा है। यथार्थतः धारणा ही धर्म की आत्मा है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 116', '09 July 2022'), (62, 'ध्यान', 'ध्यान से तात्पर्य आत्म-ज्योति के साक्षात्कार की पद्धति से है। ध्यान ही शिव का तीसरा नेत्र कहलाता है। दिव्य-दृष्टि भी ध्यान को ही कहा जाता है। योग-साधना या अध्यात्म की ‘अहं भूमिका’ ध्यान पर आधारित होता है। शरीर की आँख आँख है तो योग-साधना या अध्यात्म की आँख ‘ध्यान’ है। ध्यान आँख जैसा न हीं है बल्कि आँख है ही। स्थूल संसार देखने के लिये स्थूल आँख है और आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या चेतन-ज्योति या डिवाईन लाइट या नूरे-इलाही या आलिमें नूर या चाँदना या आसमानी रौशनी या सहज प्रकाश या निज-प्रकाश या परम-प्रकाश या भर्गो या ज्योति या दिव्य-ज्योति रूप को साक्षात्कार करने के लिये दिव्य-दृष्टि या तीसरी आँख या ध्यान ही है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 121', '09 July 2022'), (63, 'समाधि', 'समाधि से तात्पर्य जीव का ध्यान-साधना से आत्म-ज्योति रूप आत्मा से मिलकर आत्मामय स्थिति में रहने से है। अर्थात् साधना द्वारा शरीस्थ जीव का कुण्डलिनी की उर्ध्वगति से भू-मध्य स्थिति आज्ञा-चक्र में आत्म-ज्योति रूप आत्मा से मिलकर आत्मामय होकर स्थिति रहने का नाम ही समाधि है। यह अष्टांग योग का आठवां और अन्तिम अंग या सोपान है। योग की समस्त क्रियायों की अन्तिम परिणति ही समाधि है। समाधिस्थ पुरुष बाह्य समस्त क्रियायों से शून्य होकर आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति से मिलकर स्वयं भी ज्योतिर्मय होकर समाधि भंग तक शान्ति और आनन्द से युक्त चिदानन्द की अनुभूति में पड़े रहते हैं। परमात्मा के अलावा यह सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ, सबसे उच्च तथा सबसे उत्तम अवस्था या पद होता है। इससे उच्च, श्रेष्ठ और उत्तम परमात्मा तथा परमात्मा के प्रेमी, सेवक तथा ज्ञानी यानी परमात्मा तथा परमात्मा के जानकार अनुयायी ही होते हैं और कोई अन्य नहीं। इस अवस्था को प्राप्त साधक ही सिद्ध योगी-ऋषि, महर्षि, राजर्षि तथा अध्यात्मवेत्ता भी होता है। मात्र तत्त्वज्ञानदाता तथा उनका अनुयायी तत्त्वज्ञानी ही इससे श्रेष्ठ है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 129', '09 July 2022'), (64, 'तुरीयावस्था', 'तुरीयावस्था योग या अध्यात्म की अन्तिम उपलब्धि है जो समाधि के पश्चात् की अवस्था होती है जिसमें बिना ध्यान साधना के ही स्थिति ध्यान समाधि जैसी बराबर ही बनी रहती है। ऐसे सिद्ध पुरुष ही समाज में महापुरुष या सिद्ध पुरुष कहलाते हैं।\r\nइस अवस्था तक पहुँच जाने वाले सिद्ध पुरुष साधनाओं से ऊपर हो जाते हैं जिन्हे किसी भी प्रकार के साधना की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। इस अवस्था वाला सिद्ध पुरुष समाज में गिरता ही नहीं, अपितु समाज का जरा सा भी असर अर्थात् कोई प्रभाव ऐसे सिद्ध महापुरुषों पर छूता तक नहीं है। ये ही समाज की भाषा में निर्विकारी, निर्विचारी, निर्विकल्प वाले सिद्ध महापुरुष आदि आदि उपाधियों से उच्चारित होते हैं। ऐसे सिद्ध महापुरुष आत्मानन्द या चिदानन्द या ब्रहमानन्द या दिव्यानन्द में इतने डूबे रहते हैं कि सब कुछ ही ब्रह्ममय या आत्मामय या ईश्वरमय ही दिखलायी देता है।', '', 'सन्दर्भ: अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा), पेज न. 132', '09 July 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `slogantb` -- CREATE TABLE `slogantb` ( `id` int(11) NOT NULL, `slogan_text` longtext NOT NULL, `slogan_by` varchar(150) NOT NULL, `added_on` varchar(20) NOT NULL ) ENGINE=InnoDB DEFAULT CHARSET=utf8mb4; -- -- Dumping data for table `slogantb` -- INSERT INTO `slogantb` (`id`, `slogan_text`, `slogan_by`, `added_on`) VALUES (1, 'कण -- कण में भगवान् -- यह घोर है अज्ञान | सबमें है भगवान् -- मूर्खतापूर्ण है यह ज्ञान |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (2, '‘अन्तेन सहितः सः सन्तः ।’', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (3, 'ॐ-सो हँ- हँ सो- शिव ज्योति भी भगवान नहीं , भगवान \" परमतत्त्वम \" है | स्वाध्याय, अध्यात्म , ही ज्ञान नहीं , ज्ञान \" तत्त्वज्ञान \" है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (4, 'जिद - हठ छोड़ो , झूठे गुरु से तुरन्त नाता तोड़ो | मुक्ति - अमरता परमप्रभु से तुरन्त नाता जोड़ो |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (5, 'आडम्बर - ढोंग - पाखण्ड मिटावें | अपने को सत्पुरुष बनावें || \"धर्मं - धर्मात्मा - धरती \"की रक्षा में जुड़कर अपने मानव जीवन को सफल बनावें ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (6, 'शरीर - जीव - ईश्वर - परमेश्वर यथार्थत: ये चार हैं | चारों को दिखलाने और मुक्ति - अमरता देने हेतु भगवान सदानन्द लिये अवतार हैं |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (7, 'झूठा गुरु अजगर भया , लख चौरासी जाय | चेला सब चींटी भये नोची - नोंची के खांय ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (8, 'पानी पियो छान कर | गुरु करो जानकर ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (9, 'ईमान - सच्चाई - संयम - सेवा , यही है सबसे सुन्दर मेवा | अपनाना हो अपना लो भाई , भगवन रहेंगे सदा सहाई | नहीं जानोगे नहीं समझोगे , जग में होगी तेरी हंसाई ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (10, 'गृहस्थ का जीवन मौत की प्रतीक्षा | भगवद भक्त - सेवक का जीवन परमधाम की यात्रा ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (11, 'भक्त- सेवक भगवान का यात्री परमधाम का |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (12, 'पूर्ति - कीर्ति - मुक्ति परमेश्वर वालों के पीछे रहती है फ़िरती - फ़िरती |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (13, 'जीव को मोक्ष , जीवन को यश - कीर्ति | परमेश्वर वालों के पीछे रहती है फ़िरती - फ़िरती ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (14, 'गुरु करो दस - पांचा | जब तक मिले न सांचा ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (15, 'दीन्हीं ज्ञान हर लीन्ही माया | सच्चे भगवदवतारी की पहचान है ||', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (16, 'स्वाध्याय - अध्यात्म ही ज्ञान नहीं | ज्ञान \" तत्त्वज्ञान \" है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (17, 'रूह ही नूर नहीं , नूर ही अल्लाहताला नहीं ..........सन्त ज्ञानेश्वरजी |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (18, 'जीव ही आत्मा नहीं , आत्मा ही परमात्मा नहीं ........... सन्त ज्ञानेश्वरजी |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (19, 'परमब्रम्ह से शब्दब्रह्म का ज्ञान मिलता है और शब्दब्रम्ह से परमब्रम्ह का पहचान होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (20, 'गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं , गायत्री कोई मन्त्र भी नहीं है | गायत्री तो मात्र एक छन्द है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (21, 'सोs हँ परमात्मा तो है ही नहीं; विशुद्धत: आत्मा भी नहीं है ; ये पतनोमुखी क्रिया है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (22, 'ॐ-सो हँ- हँ सो- शिव ज्योति भी भगवान नहीं , भगवान \" परमतत्त्वम \" है। स्वाध्याय, अध्यात्म , ही ज्ञान नहीं , ज्ञान \" तत्त्वज्ञान \" है।।', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (23, 'दोष रहित - सत्यप्रधान मुक्ति - अमरता से युक्त सर्वोत्तम जीवन विधान ही \" धर्म \" है।', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (24, 'परम ब्रह्म परमेश्वर अल्लाहताला गॉड शरीर नहीं है अपितु एक सर्वोच्च सत्ता शक्ति है जो अविनाशी है अजन्मा है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (25, 'तत्वज्ञान परमात्मा के द्वारा ही तथा परमात्मा के साथ ही समय-समय पर प्रकट होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (26, 'एक परम ब्रह्म परमेश्वर ही ऐसा परम सत्ता शक्ति है जो मोक्ष दे सकता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (27, 'जब तक आत्मा और परमात्मा का एकत्व बोध नहीं होगा तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (28, 'मंत्रों की नाजानकारी उतनी बुरी नहीं होती जितना बुरा की ना जानकारी होते हुए भी अपने को उसका जानकार बनना |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (29, 'सर्वतभावेन भगवत समर्पित शरणागत रहने चलने में ही व्यक्ति पूर्ति कीर्ति और मुक्ति तीनों वाला हो जाता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (30, 'युवा बंधुओं आगे आओ अपने को सतपुरुष बनाओ धरती धर्म के रक्षा हेतु अब सत्य धर्म ही अपनाओ |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (31, 'भक्ति सेवा पूजा आराधना का एकमात्र अधिकारी भगवत अवतार सद्गुरु ही है जो परमतत्व का साक्षात्कार कराता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (32, 'हम संसार हैं कि शरीर हैं कि जीव है कि ईश्वर हैं कि शिव हैं कि भगवान हैं सबसे पहले आप हम सब की आवश्यकता है यह जानने की आखिर इसमें हम क्या हैं?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (33, 'धर्म उन्मुक्तता अमरता से युक्त एक अनिवार्य सच्चा जीवन विधान सर्वोत्तम जीवन विधान होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (34, 'भगवदावतार के सिवाय यथार्थता भगवान को जानता ही कौन है कि भगवान के संबंध में सत्संग करेगा ?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (35, 'भगवान की विचित्र लीला को खुद भगवान के सिवाय और कोई नहीं जानता |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (36, 'भगवान का कृपा पात्र जो भगवान को तथा उनके प्रभाव को तत्त्वत: जान लेता है वास्तव में वह भी भगवदमय ही हो जाएगा |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (37, 'पुरातत्व विभाग को विद्यातत्त्वम का पर्याय मानना जड़ता एवं मूढ़ता के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (38, 'समाज सुधार एवं समाज उद्धार हेतु विद्यातत्त्वम की मात्र उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि शरीर को क्रियाशील होने हेतु जीवात्मा की |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (39, 'अध्यात्म या योग के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित नारद, ब्रह्मा और शंकर जी आदि को भी भगवान विष्णु, राम और कृष्ण की भक्ति करनी पड़ती है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (40, 'अपने अस्तित्व कर्तव्य और मंजिल को जाने बिना मानव जीवन उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार बिना दूध के गाय को पालना |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (41, 'मनुष्य योनि के अतिरिक्त सभी योनियों को मात्र कार्यकारी शक्ति उपलब्ध हुई है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (42, 'आसन शारीरिक गठन मात्र के लिए ही नहीं अपितु योग साधना की एक अनिवार्य कड़ी है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (43, 'वीरासन यदि भोजन के पश्चात किया जाए तो पेट संबंधी गड़बड़ी होता तो है ही नहीं यदि पहले से होगा भी तो दूर होते देर नहीं लगेगा |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (44, 'जनेऊ यानी जनाने वाला जिसको देखने मात्र से लोग जान जाएं की ये ब्रह्मचारी है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (45, 'परमेश्वर के यहां सुपर कंप्यूटर से भी आगे सुप्रीम कंप्यूटर होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (46, 'जिस प्रकार जीव के बगैर शरीर का कोई अस्तित्व और महत्व नहीं रहता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के बगैर जीव का भी अस्तित्व और महत्त्व समाप्त हो जाता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (47, 'इंद्रियों और विषयों की जानकारी करते हुए उसके गुण दोष क्या उसके प्रभाव को यथार्थता समझ ले तो ना ही विषय का भय ही होता और ना ही इंद्रियों पर रोक लगाने की आवश्यकता ही पड़ती है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (48, 'कर्म कांडी व्यक्ति और वस्तु या शरीर और संपत्ति प्रधान होते हैं जो जड़ तथा नाशवान होते हुए वस्तुतः अस्तित्व हीन होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (49, 'तत्वज्ञान या विद्यातत्त्वम ना तो कर्मकांड ही होता है और ना योग साधना वाला अध्यात्म ही बल्कि दोनों का ही उत्पत्तिकर्ता संचालनकर्ता विलय रूप नियंत्रण कर्ता के साथ ही साथ सभी के कमियों का पूरक होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (50, 'जीवन का चरम और परम लक्ष्य रूप मुक्ति अमरता के साक्षात बोध को प्राप्त करते हुए अपने जीवन को सफल सार्थक बना लेना ही है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (51, 'गुरु और गुरु भक्ति का अभीष्ट भगवत प्राप्ति और मुक्ति अमरता का बोध रूप अद्वैत तत्व बोध के लिए मात्र ही होनी चाहिए ना कि इससे बिछड़े रहने के लिए |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (52, 'अध्यात्म में इतनी क्षमता सामर्थ नहीं है कि वह परमेश्वरीय रहस्यों को दिखा या बता जना ही सके |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (53, 'संसार, शरीर, जीव, ईश्वर और परमेश्वर पांचों की यथार्थता ठीक-ठीक परिचय पहचान जिससे प्राप्त होता है उसे ही सद्गुरु कहते हैं |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (54, 'वर्तमान के उद्देश विहीन शिक्षा ने मानव जीवन को विकृत कर दिया है वर्तमान के शिक्षा में परिवर्तन करके विद्यातत्त्वम पद्धति अनिवार्य है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (55, 'भगवदावतार की विद्यातत्त्वम पद्धति से ही समाज का सर्वांगीण विकास संभव है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (56, 'संसार - शरीर प्रधान रहो पशु बनो, जीव प्रधान रहो पुरुष बनो, आत्मा प्रधान रहो महापुरुष बनो, परमात्मा परमेश्वर प्रधान रहो सत्पुरुष बनो |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (57, 'जीवात्मा और परमात्मा दोनों एकदम प्रथक प्रथक हैं परमात्मा सभी जीवात्मा को कर्म और भोग के अनुसार सृष्टि चक्र में घुमाता नचाता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (58, 'गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं कोई मंत्र भी नहीं बल्कि मात्र एक छंद है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (59, 'संशय से युक्त श्रद्धा से रहित पुरुष के लिए ना लोक का ही सुख है ना परलोक का ही जो जन्म मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करता रहता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (60, 'कुरान की आयतों को जानने समझने के लिए जिस्मानी चश्मा रूहानी चश्मा नूरानी चश्मा और मेहरबानी चश्मा चाहिए |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (61, 'पतित पावन उद्धारक केवल परमात्मा परमेश्वर भगवान का अवतार होता है जिसके शरण में आने वालो को वह संपूर्ण पाप भव के बंधन काटकर मुक्ति अमरता देता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (62, 'युवा बंधुओं अपना समय मत गवाओ को अपने को महापुरुष बनाओ साथ ही साथ अपने माता-पिता के उद्धार तथा कल्याण का माध्यम बनो |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (63, 'संसार के विषय वस्तुओं से वैराग्य और प्रभु चरणों में अनन्य प्रेम अनुराग |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (64, 'संसार, शरीर व जीव तो अनादि है ही नहीं आत्मा भी अनादि नहीं है अनादि तो एकमात्र परमात्मा ही है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (65, 'यदि आपने परमतत्त्व को जाना नहीं तो सारा शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है यदि आपने उस परमतत्त्व को जान लिया तो भी शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (66, 'विद्यातत्त्वम पद्धति विद्यार्थी को भोग( जुटाना–खाना–पखाना) नहीं बल्कि जीव को मोक्ष (मुक्ति–अमरता) और जीवन को यश–कीर्ति देता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (67, 'सोऽहँ तो अहंकार बढ़ाने और पतन को ले जाने वाली एक सहज स्थिति ही है यह जब आत्मा ही नहीं है तो फिर परमात्मा कैसा?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (68, 'नमक से लेकर के अमरलोक तक की पूर्ति (गारंटी) देने वाला एकमेव एक परमेश्वर ही है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (69, 'परमेश्वर के शरणागत हो करके अपने मानव जीवन को सफल बनाइए l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (70, 'कर्म का लक्ष्य भोग, योग का लक्ष्य ब्रह्ममय समाधि अवस्था है और धर्म का लक्ष्य मोक्ष परमधाम है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (71, 'तत्त्वज्ञान दाता सद्गुरु अपने शिष्य को विज्ञान सहित तत्वज्ञान को संपूर्णता सहित देता है फिर जानना और पाना कुछ भी शेष नहीं रह जाता l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (72, 'जीव, ईश्वर व परमेश्वर के भेद को न जानने वाले तीनों को एक ही या दो ही बताते हैं यह उनकी घोर अज्ञानता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (73, 'कोई भी क्या है और कितने में था या है इसकी साक्षात जानकारी देने वाला ज्ञान ही तो तत्वज्ञान है जो एकमात्र भगवद अवतारी सद्गुरु से ही प्राप्त होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (74, 'परमेश्वर संपूर्ण ब्रह्मांड से बाहर होता है इसलिए परमेश्वर के यहां काल और कर्म नहीं होता है काल कर्म तो माया के क्षेत्र में होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (75, 'महापुरुष–सत्पुरुष बनने होने में कामिनी कांचन (शरीर, वस्तु) बाधक होता है जबकि साहस, निष्ठा एवं समर्पण– शरणागति सहायक होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (76, 'सत्य पुरुषत्व (मुक्ति–अमरता) को पाने में एकमात्र परिवार ही बाधक और विनाशक होता है किसे अपनाएं और न अपनाएं यह आप पर है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (77, 'भोगी व्यसनी का विनाश हो जाता है और ज्ञानी प्रभु सेवक यश कीर्ति और मोक्ष भी पाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (78, 'नार–पूरइन काटने के पश्चात शिशु को माता–पिता आदि द्वारा वाह्य आडंबर में फंसाकर अंतर्मुखी से बहिर्मुखी बना दिया जाता है यह शिशु के प्रति सबसे बड़ा घात है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (79, 'परमेश्वर ज्योतियों का भी पिता है क्योंकि संपूर्ण ज्योतियां उसी से प्रकट और उसी में विलय हुआ करती हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (80, 'समर्पण का मतलब परमात्मा परमेश्वर को कुछ देना नहीं होता है अपने बल्कि परमात्मा परमेश्वर का बनकर संपूर्ण का संपूर्णतया पाना होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (81, 'भोगी–व्यसनी–अज्ञानी मूढ़ हैं लोग जो तत्त्वज्ञानदाता सदगुरु को साधारण मनुष्य समझते हैं, ज्ञानी–वैरागीजन तो परम ब्रह्म परमेश्वर के साक्षात पूर्ण अवतार के रूप में उन्हें जानते और देखते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (82, 'अभ्यांतर कुंभक शक्ति को ही संगठित रूप स्थिरता प्रदान करने वाली क्रिया प्रक्रिया है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (83, 'यदि आप ज्ञान का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो ईमान–सच्चाई–संयम–सेवा अपनाना परम आवश्यक है इन चारों के बिना ज्ञान का लाभ असंभव है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (84, 'विज्ञान अंतिम सीमा चरम तक जाकर के जहां समाप्त होता है वहां से अध्यात्म शुरू होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (85, 'धर्म–अर्थ–काम और मोक्ष के बीच अपने जीवन को रखा है उसी को पुरुषार्थी कहते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (86, 'जीव के उद्धार और जीवन के सुधार का सर्वोत्तम विधान ही वास्तव में सच्चा धर्म है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (87, 'जब आप पूर्णता अपने को भगवान को सौंप देंगे तो भगवान भी पूर्णता आपकी रक्षा व्यवस्था करेंगे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (88, 'सारे दुख सुख की अनुभूतियां हम जीव को ही होती हैं नरक की यातनाएं भी जीव को झेलना पड़ता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (89, 'शरीर से संसार तक मूलक या शरीर–संसार प्रधान गतिविधि को कर्म क्षेत्र कहते हैं तो जीव से परमात्मा तक परमात्मा प्रधान गतिविधि को धर्म क्षेत्र कहते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (90, 'हम शरीर नहीं बल्कि शरीर हमारी है हम तो शरीर रूपी गाड़ी का एक चालक मात्र हैं जो ईश्वर द्वारा परिचालित एवं परमेश्वर द्वारा संचालित है होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (91, 'परमेश्वर का स्मरण करने के लिए भी तो परमेश्वर को जानना देखना अनिवार्य है यदि परमेश्वर को जाने ही नहीं तो परमेश्वर का स्मरण कैसे करेंगे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (92, 'योग ही ज्ञान नहीं ॐ – सोऽहँ भी भगवान नहीं वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान है परमतत्त्वम रूप आत्मतत्त्वम ही सच्चा भगवान है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (93, 'जीव का आत्मा से मिलना ही योग अध्यात्म कहलाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (94, 'यह अनमोल मानव शरीर परमेश्वर प्राप्ति के लिए ही परमेश्वर ने दी है अतः इसे भोग व्यसन में मत फसाओ l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (95, 'सत्य सदा सर्वदा ही सर्वोच्च–सर्वश्रेष्ठ–सर्वोत्कृष्ट तथा एक रूप और अपरिवर्तनशील होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (96, 'संत ज्ञानेश्वर जी के अनुसार दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्तता, मुक्ति और अमरता से युक्त भरा–पूरा जीवन ही धर्म है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (97, 'भगवत कृपा उसी पर होती है जो परमेश्वर के बिना रह नहीं सकता ऐसे ही जिज्ञासु पर वे कृपा करके अपना तत्त्वरूप प्रकट कर देते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (98, 'ब्रह्मा–इंद्र–शंकर आदि लोकपाल भी परमात्मा–परमेश्वर–परमब्रह्म को नहीं जान पाते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (99, 'परिवारिक ममता मोह को ज्ञान रूपी तलवार से काटना और परम प्रभु से साटना ही सद्गुरु का एकमात्र कर्तव्य होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (100, 'तत्त्वज्ञान भगवान का परिचय पहचान होता है इसलिए उसका दाता केवल परमात्मा ही होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (101, 'किसी भी विषय वस्तु से लाभ लेने के लिए उसके बारे में तीन चीजें जानना अनिवार्य है क्या है? क्यों है? और उसका उपयोग हम किस तरह करें कि उसका सही समुचित लाभ मिले ?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (102, 'परमात्मा–परमेश्वर–परमब्रह्म को कोई नहीं जान पाता जब तक कि वह खुद भूमंडल पर अवतरित होकर अपना परिचय पहचान न करावे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (103, 'परमात्मा के जिज्ञासु को सदा ही आगे की सत्यता को अपनाते रहना चाहिए तभी वह परमात्मा तक पहुंच सकता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (104, 'खुदा–गॉड–भगवान यहोवा के पीछे रहने वाले लोग अलग–अलग संप्रदाय कायम नहीं कर सकते क्योंकि वह है ही एकमात्र एक ही l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (105, 'बार–बार के आवागमन के दु: सह यातना से छुटकारा पाने के लिए भगवद समर्पित–शरणागत होना रहना चलना अनिवार्य है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (106, 'जप, तप, व्रत, नियम, उपवास, यज्ञ, तीर्थ, स्नान, दान, हवन, मूर्तिपूजा, सदग्रंथों के पाठ, योग तथा मुद्राओं आदि की साधना से मोक्ष नहीं मिलता मोक्ष तो एक मात्र तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (107, 'परमेश्वर की विशेष कृपा से ही अधम से अधम जीव भी महापुरुष, ऋषि, ब्रह्मऋषि बनकर सर्वोच्च यश–कीर्ति सहित मुक्ति–अमरता को भी पाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (108, 'लोहे की हथकड़ी तो खुल जाती है परंतु मोह–ममता वाली हथकड़ी बिना तत्त्वज्ञान के करोड़ों जन्मों तक खुलनी आसान नहीं है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (109, 'भौतिक संसाधन तो कभी भी मोक्ष का कारण नहीं हो सकता बल्कि संसार में फंसाने का मूल कारण है इसलिए गुरु की पहचान भौतिक संसाधन से नहीं करना चाहिए l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (110, 'जो संपूर्ण मैं–मैं, तू–तू सहित सृष्टि के आदि अंत को जनाता–दिखाता है वास्तव में वही सच्चा संत होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (111, 'विद्यातत्त्वम या परमविद्या या तत्त्वज्ञान पद्धति एकमात्र परमात्मा के अवतार रूप अवतारी सत्पुरुष हेतु ही सुरक्षित रहता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (112, 'शरीर में स्थित जीव को तथा जीव के अपने असली पिता परमेश्वर को जाने देखें तथा उसके प्रति समर्पित–शरणागत हुए बगैर मुक्ति अमरता संभव ही नहीं है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (113, 'संपूर्ण ब्रह्मांड के किसी भी विषय–वस्तु अथवा शक्ति सत्ता की संपूर्ण रहस्यत्मक जानकारी ज्ञान में समाहित होता है इसलिए संपूर्ण की रहस्यात्मक जानकारी कराने वाला केवल तत्त्वज्ञान दाता भगवदावतार ही होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (114, 'जहां पर दो नदियां मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन स्थल ही संगम कहलाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (115, 'इंगला पिंगला और सुषुम्ना- तीनों प्रसिद्ध प्राप्त नाड़ियों का मिलन ही योगी महात्माओं के लिए संगम है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (116, 'परमात्मा–परमेश्वर–खुदा–गॉड–भगवान को जो तत्त्वत: जानेगा–देखेगा वह तत्काल ही परमतत्त्वम में प्रवेश करता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (117, 'परमात्मा के संकल्प शक्ति से ब्रह्म शक्ति की उत्पत्ति होती है और ब्रह्म शक्ति से ॐ की उत्पत्ति होती है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (118, 'खुदा–गॉड–भगवान कोई यंत्र–मंत्र–तंत्र तो है ही नहीं वह अहम् ब्रह्मास्मि भी नहीं है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (119, 'एक घड़ी, आध घड़ी का सत्संग संत सद्गुरु का संगत कोटि अपराधों को मिटाने वाला होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (120, 'मानव जीवन का उद्देश्य गुरु खोजना पाना या गुरु भक्ति करना मात्र नहीं है खोजना पाना तो भगवान और मोक्ष है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (121, 'योग ही ज्ञान नहीं ॐ –सोऽहँ भगवान नहीं वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान है अलम गॉड ही खुदा गॉड भगवान है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (122, 'सद्गुरु कभी भी किसी को भी परिवारिक भोग व्यसन की स्वीकृति नहीं देता क्योंकि वह मोक्ष (मुक्ति–अमरता) दाता होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (123, 'पाप–कुकर्म और झूठ–फरेब में अभ्यस्त व्यक्ति भोग–व्यसन की लालसा में परमेश्वर के क्षेत्र में ठहरने से कतराता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (124, 'परमेश्वर को ज्योतिर्बिंदु रूप बताना अज्ञान भ्रम और जनमानस को भरमाना भटकाना है क्योंकि परमेश्वर ज्योतिर्मय शिव का भी उत्पत्ति व संचालन कर्ता होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (125, 'वेद का अर्थ पहले तो शुद्ध रूप से होता है जानना, जानकारी व्यापक रूप से समाहित हो जिसमें वह एक वेद सदग्रंथ है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (126, 'विद्यातत्त्वम पद्धति को जनाने–दिखाने वाला भगवदावतारी के सिवाय और कोई भी नहीं हो सकता l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (127, 'जिसको पैसा परिवार चाहिए उसको कभी परमेश्वर तथा उससे मिलने वाला लाभ नहीं मिल सकता l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (128, 'जब–जब सृष्टि के अधिकारीगण सृष्टि की व्यवस्था संभालने में असमर्थ होते हैं तब-तब परमप्रभु भूमंडल पर आते हैं जिन्हें अवतारी कहा जाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (129, 'सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं विशुद्धता :आत्मा भी नहीं है यह तो पतनमुखी क्रिया है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (130, 'धर्म का चोला पहनकर धन उपार्जन करना ऐसो आराम करना धर्म नहीं है दोष–रहित, सत्य–प्रधान, मुक्ति–अमरता युक्त वाला सर्वोच्च जीवन विधान ही धर्म है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (131, 'शिक्षा, स्वाध्याय, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान इन चारों की सरहस्य जानकारी केवल सद्गुरु भगवदावतारी से ही प्राप्त होती है अन्य किसी से नहीं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (132, 'वेद की ऋचाएं पढ़ रट के परमेश्वर की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्ही के अंग भूत पार्षद हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (133, 'सत्य का परिचय–पहचान धन–जन, अट्टालिका, आश्रम की मात्रा संख्या से नहीं अपितु भगवदावतारी से प्राप्त तत्त्वज्ञान से होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (134, 'कोई भी मूर्ति–फोटो, मिट्टी, पत्थर, कागज जैसे जड़ पदार्थ से ही बनी होती है इसलिए वह जड़ पदार्थ ही होती है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (135, 'कोई भी मूर्ति भगवान या परमात्मा नहीं हो सकता बल्कि भगवदावतार के प्रतीक मात्र हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (136, 'ग्रंथ किताब पढ़ रट करके जो सीखता है उसको ज्ञानी नहीं बल्कि विद्वान कहते हैं परमप्रभु–परमेश्वर–भगवान का तत्त्व दर्शन, परख–पहचान करने वाले भगवत कृपा पात्र को मात्र ही ज्ञानी कहते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (137, 'सभी पंथ–संप्रदाय वाले कहते हैं कि खुदा–गॉड–भगवान एक है फिर यह अनेक संप्रदाय, वर्ग भेदभाव क्यों ? सभी एक धर्म–एक भगवान–एक खुदा गॉड का क्यों नहीं ?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (138, 'शरीर का सबसे पहले और सबसे बड़ा हित शुभचिंतक जीव ही है जीव के बाद ही घर–परिवार–संसार आपका हितदाई है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (139, 'असत्य–ममता–मोह रूपी अंधकार, मृत्यु रूपी भव क्षेत्र त्यागकर सत्य–दिव्य ज्योति–ईश्वर को तथा अमरता के क्षेत्र–भगवत क्षेत्र को ग्रहण करने में ही जीवन की सार्थकता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (140, 'अधूरा–अक्षम गुरु घातक और विनाशक गुरु होता है सक्षम और पूरा (सच्चा) गुरु तो मुक्ति–अमरता का साक्षात बोध दाता होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (141, 'भगवदावतारी परम प्रभु का संदेश सुनते ही जीव का पहला कर्तव्य परम प्रभु के चरण शरण में जाना ही होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (142, 'ॐ और सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं विशुद्धता; आत्मा भी नहीं है यह तो क्रमशः परमात्मा के पौत्र और पुत्र मात्र ही हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (143, 'हे प्रभु आपके चरणो में कोटिश: कोटिश: प्रणाम प्रार्थना है कि अपने सेवक जनों को अनुशासित शरणागत बनाए रखें |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (144, 'मुसल्लम ईमान से दीन की राह में जान व माल सहित कुर्बान होने के लिए हमेशा तैयार रहें वही सच्चा मुसलमान है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (145, 'स्वार्थ और परमार्थ दो शब्द हैं स्वार्थ निंदनीय त्याज्य है तो परमार्थ बंदनीय ग्राहय है परिवार ही स्वार्थ का मूल है जहां स्वार्थ फलता–फूलता है परमेश्वर का क्षेत्र (आश्रम) ही पारमार्थिक क्षेत्र है जहां परमार्थ फलता–फूलता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (146, 'वास्तविक सत्य इतना आसान नहीं कि जो चाहे वही जना दिखा दे इसके लिए मात्र भगवदावतारी (सद्गुरु) ही सक्षम होता है |', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (147, 'परिवारिक जीवन जीव के लिए मीठा जहर और ज्ञानमय जीवन परम शांति और परमानंद सहित मुक्ति अमरता दायक होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (148, 'सहस्त्रों यत्नशील सिद्ध पुरुषों में कोई कोई ही तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (149, 'तत्त्वज्ञान भगवान का परिचय पहचान होता है इसलिए उसका दाता केवल वही परमात्मा होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (150, 'भगवदावतार रूप सद्गुरु का आदेश पालन ही भक्त सेवकों की भक्ति सेवा है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (151, 'धर्म पथ ज्ञान मार्ग में जितनी संघर्ष और कठिनाइयां हैं उतना ही सर्वोत्तम उपलब्धि भी है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (152, 'आत्मा ईश्वर ब्रह्म शक्ति शिव का सर्व प्रथम खोजकर्ता शंकर जी हैं इसलिए शंकर जी शिव जी के नाम से भी जाने जाते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (153, 'परमात्मा परमेश्वर भगवान से उत्पन्न ब्रह्म ज्योति ही आत्मा ईश्वर ब्रह्म शिव है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (154, 'घर परिवार संसार को छोड़कर भगवान के शरण में आने से किसी की भी कभी भी कोई मर्यादा नहीं गिरती अपितु सदा सर्वदा बढ़ती ही रहती है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (155, '84 लाख योनियों चार भागों में है जड़ज, उदभीज, अंडज और पिंडज l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (156, 'परमेश्वर के शरणागत होने रहने पर लोक और परलोक दोनों का निर्वाह बहुत ही सहजतापूर्वक हो जाता है लोग लाभ परलोक निबाहु परमेश्वर वालों को ही तो मिलता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (157, 'पूर्ति कीर्ति मुक्ति - तीनों वाला होने रहने चलने में ही मानव जीवन की सार्थकता है जो भगवत शरणागत हुए बगैर संभव ही नहीं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (158, 'खुदा गॉड भगवान द्वारा तथा उसके निर्देशन या आज्ञा में ही होने वाले संपूर्ण कार्य ही सत्य ही होते हैं क्योंकि परमात्मा ही एकमात्र परम सत्य होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (159, 'मानव जीवन की सफलता रोटी कपड़ा मकान रूपी भोग मात्र के पीछे दौड़ने में नहीं ! अपितु भगवत प्राप्ति सहित मोक्ष प्राप्ति में है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (160, 'तत्त्वज्ञान दाता सद्गुरु के पास ही अध्यात्म का संपूर्ण रहस्य सहित सृष्टि की संपूर्णतया जानकारी होती है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (161, 'तत्त्वज्ञान रूप भगवत ज्ञान पाने के लिए हजारों मनुष्य में कोई एक ही यत्न करता है और उन यत्न करने वाले जिज्ञासुओ में भी कोई एक बिरला ही भगवत प्राप्त होकर भक्ति सेवा में उतरता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (162, 'खुदा–गॉड–भगवान कोई यंत्र–मंत्र–तंत्र तो है ही नहीं वह अहम् ब्रह्मास्मि भी नहीं है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (163, 'अहम् ब्रह्मास्मि से तात्पर्य मैं ब्रह्म से है यह लोग जीव को ही आत्मा या ब्रह्म मानने कहने तथा उसी का उपदेश भी करने लगते हैं ये अहंकारी व्यक्ति होते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (164, 'दुनिया का एक भी ऐसा सदग्रंथ नहीं है जो पूर्णत: सत्य और पूर्णत: असत्य हो l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (165, 'जनमानस को ये बात जान लेना चाहिए कि ब्रह्मा ना तो कभी अवतार रहे हैं ना है और ना कभी होंगे फिर ब्रह्मा नाम से भगवदावतार की घोषणा करना समाज को दिग्भ्रमित करना नहीं तो और क्या है ?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (166, 'त्याग और समर्पण के बगैर अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के सफलता की कल्पना करना भी घोर अज्ञानता एवं मूड़ता का सूचक और परिचायक है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (167, 'महावीर, बुद्ध, यीशु और मोहम्मद साहब परमात्मा–परमेश्वर के संदेश वाहक (अंशा अवतारी) थे परमात्मा परमेश्वर नहीं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (168, 'अल्लाहताला का आदेश काटने का मतलब बिहिस्त के बाग अमरलोक से पतन मृत्यु लोक की प्राप्ति l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (169, 'मूसा अल्लाहताला के प्रिय पैगंबर थे जिन्होंने अल्लाहताला का संदेश पैगाम यहूदियों को दिया था l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (170, 'पतनकारी भ्रामक और मिथ्या तथ्यों को उजागर करना निंदा या शिकायत करना नहीं अपितु समाज को सजग सावधान करते हुए पतन बिना से बचाना है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (171, 'सद्गुरु पूरे ब्रह्मांड में एक मात्र एक ही होता है क्योंकि वह परमात्मा –परमेश्वर –परमब्रम्ह –खुदा –गॉड –भगवान का पूर्ण अवतार होता है योग साधना वाले गुरु कभी भी सद्गुरु नहीं होते तत्त्वज्ञान दाता ही सद्गुरु होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (172, 'सत्संग के बगैर भगवत प्राप्ति का कोई दूसरा विधान है ही नहीं जब भी भगवान मिलेगा तत्वत: मिलेगा सत्संग के पश्चात समर्पण शरणागत के पश्चात ही मिलेगा l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (173, 'स्वार्थ पाप का जड़ है परोपकार पुण्य है तो भगवान का बनकर रहना चलना परमार्थ l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (174, 'सत्संग वह विधान है जिसमें तत्त्वज्ञान मिलता है तत्त्वज्ञान में साक्षात भगवान मिलता है और वह भगवान मुक्ति अमरता का बोध कराता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (175, 'तत्त्वज्ञान ही मानव जीवन का लक्ष्य मंजिल है तत्त्वज्ञान में ही मुक्ति अमरता का बोध है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (176, 'परमेश्वर–खुदा–गॉड ना तो कण-कण में और ना ही किसी के अंदर ही रहता है वह तो परमधाम–बिहिस्त–पैराडाइज का वासी है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (177, 'युवक-युवतियों आगे आओ आडंबर–ढोंग–पाखंड मिटाओ अपने को सत पुरुष बनाओ l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (178, 'सच्चा सद्गुरु अपने शिष्य को कभी नौकरी पेशा में रहने नहीं देता है बल्कि तन, मन, धन संपूर्ण का समर्पण कराकर धर्म धर्मात्मा धरती की रक्षार्थ भगवत भक्ति सेवा में लगाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (179, 'भगवत लीला को अनन्य प्रेमी, अनन्य भगवत–सेवक और अनन्य भगवत–भक्त मात्र ही जान समझ देख पहचान पाते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (180, 'धर्म विषयक जिज्ञासाओं का बोधगम्य में समाधान न पाने से एक सच्चा खोजी प्रायः नास्तिक हो जाता है नास्तिकता की समाप्ति तत्त्वज्ञान में है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (181, 'अपने सदगुरु के रीति-रिवाजों परंपराओं की रक्षा करना कायम रखना ही शिष्य का प्रमुख कर्तव्य होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (182, 'मानव जीवन को पाकर के यदि भगवान नहीं पाए यदि मुक्ति–अमरता का साक्षात बोल नहीं पाए तो जीवन की अन्य सारी उपलब्धियां व्यर्थ हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (183, 'भगवत कृपा होता ही उसी पर है जो परमेश्वर के सिवाय कुछ भी और किसी को भी नहीं चाहता तत्त्वज्ञान उसे तभी मिल पाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (184, 'शैतान रूप अहंकार को किसी भी तरह ठोकर मार–मार कर जगा–जगा कर समाप्त करना ही संत सद्गुरु का एकमात्र लक्ष्य कार्य होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (185, 'परिवारिक पैसा और धर्म–मोक्ष–भगवान यह दोनों एक साथ कदापि संभव नहीं है जिसको परिवार, पैसा चाहिए उसको भगवान कदापि नहीं मिल सकता l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (186, 'भगवान अवतार रूप सद्गुरु के तत्त्वज्ञान को जान देख प्राप्त करके अपने जीवन को पूर्णता समर्पित शरणागत कर उनकी चरण रज को अपने माथे (ललाट) पर लगाना ही वास्तविक टीका कहलाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (187, 'धर्म–धर्मात्मा–धरती, सत्य–धर्म रक्षक को ही मुक्ति–अमरता और सर्वोत्तम यश–कीर्ति की प्राप्ति होती है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (188, 'धर्म–धर्मात्मा–धरती रक्षा यह धरती का सबसे सर्वोत्तम कार्य है जिसको संपादित करने स्वयं भगवान अवतरित होते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (189, 'आत्मा एक आत्म ज्योति है तो परमात्मा आत्म ज्योति रूप आत्मा का उद्गम स्रोत तथा विलय कर्ता रूप है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (190, 'सत्य ज्ञान के बगैर असत्य सत्य का यथार्थ ज्ञान होना कठिन ही नहीं अपितु असंभव ही होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (191, 'तन, मन, धन तीनों का भगवान के चरण शरण में समर्पित शरणागत करके निष्कपट भाव से भक्ति सेवा में लगा सेवक भगवान का अत्यंत प्रिय होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (192, 'योग–अध्यात्म के लिए शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण या पवित्रीकरण अनिवार्य है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (193, 'जीव का आत्मामय होने रहने वाला क्रियात्मक पद्धति को ही अध्यात्म विद्या–परा विद्या कहते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (194, 'संपूर्ण शंकाओं का समाधान केवल भगवदावतार ही कर सकता है दूसरा कोई नहीं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (195, 'धर्म और मोक्ष के वाला जीवन जहां का मालिकान पूर्णतया भगवान के हाथ में है इसी जीवन में ही मुक्ति अमरता रूप मोक्ष संभव है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (196, 'कर्म और भोग के बीच का जीवन जहां का मालिकान माया के हाथ में होता है ऐसे क्षेत्र में रहकर मुक्ति अमरता कदापि संभव ही नहीं है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (197, 'त्याज्य को त्याग कर धारण करने योग्य परमात्मा को धारण कर अपने जीवन को उसमें स्थित करना ही धर्म है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (198, 'कामना के उत्पन्न होने का कारण शरीरस्थ जीव को संपूर्णतत्व से गिरकर अभावग्रस्त होना ही है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (199, 'ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं ! बिना ज्ञान के मुक्ति कदापि संभव नहीं है ज्ञान खिलता है वैराग्य से ज्ञान ठहरता है वैराग्य से l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (200, 'गुरु गुरु के लिए नहीं बल्कि भगवत प्राप्ति के लिए किया जाता है गुरु मात्र पोस्टमैन डाकिया की तरह होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (201, 'संपूर्ण को संपूर्णतया जानकारी कराने वाला चार विधान है जिसको शिक्षा, स्वाध्याय, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान कहते हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (202, 'आदि में शब्द (वचन) था शब्द परमेश्वर के साथ था और शब्द ही परमेश्वर था l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (203, 'हम को अपना हमार (शरीर संपत्ति) को परमेश्वर के चरण शरण में समर्पित कर परमात्मा के परमभाव को जानते देखते समझते तथा बोध करते हुए परमात्मामय होकर रहना चाहिए l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (204, 'जनमानस ने आपको धर्म भाव दिया उसके बदले आप जनमानस को धर्म की वास्तविक जानकारी नहीं दे सकते तो आप धर्म उपदेशक कैसे ?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (205, 'भक्तों को भगवान से हर पल क्षमा प्रार्थना करते रहना चाहिए कि प्रभु हमारा विवेक आपकी भक्ति सेवा में लगे और हम भगवदमय रहे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (206, 'अष्टांग योग का यथार्थत: जानकार केवल भगवदावतार ही होता है क्योंकि योग का अभीष्ट आत्मा–ईश्वर–ब्रह्म की उत्पत्ति कर्ता परमेश्वर होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (207, 'देव द्रोहिता छोड़ दो सोSहँ से मुख मोड़ लो जीव, ईश्वर और परमेश्वर को जान देख संबंध जोड़ लो l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (208, 'तत्त्व से जानना तत्त्व को देखना तत्त्व में प्रवेश होना संपूर्ण को संपूर्णतया जानना देखना ये भगवदावतार का परिचय पहचान होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (209, 'ज्ञानी का जीवन माने पाप–कुकर्म से परे का जीवन, बुराई–विकृति से ऊपर परे का जीवन एक सच्चा, संतुष्टि प्रदान, संतोष प्रधान जीवन l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (210, 'सत्यता से क्यों हटते हो ढोंग पाखंड से क्यों सटते हो तुझे आडंबर ढोंग खा जाएंगे तब यम के यहां जा पछताएंगे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (211, 'साधन से संसार मिलता है साधना से आत्मा ईश्वर ब्रह्म मिलता है और तत्त्वज्ञान जो साधन साधना दोनों का पिता संचालक होता है से भगवान मिलता है वह भी भगवत कृपा होगी तब l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (212, 'तत्त्वज्ञान ही पूर्ण ज्ञान आशेष ज्ञान या सत्य ज्ञान या भगवत ज्ञान भी होता है यह सभी पर्यायवाची हैं l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (213, 'विज्ञान और अध्यात्म में भी अधूरा अपूर्ण मात्र तत्त्वज्ञान धर्म ही संपूर्ण तत्त्वज्ञान का जड़वाला भुजा विज्ञान, चेतन वाला भुजा अध्यात्म l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (214, 'परमात्मा–परमेश्वर का भूमंडल पर भगवदावतार गोपनीयता के साथ साथ आश्चर्यमय भी इसलिए होता है क्योंकि पूरे युग में एक समय एक ही बार भूमंडल पर अवतार रहता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (215, 'तत्त्वज्ञान किसी का विरोधी नहीं होता बल्कि सबका सहयोगी रूप संरक्षक और बिना किसी प्रतिकार के ही पूरक होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (216, 'भगवत ज्ञानियों का संगम यानी प्रभु की भक्ति तथा प्रभु से मिला सत्संग के पश्चात श्रद्धा समर्पण शरणागत रूपी नौका में बैठकर प्रभु तत्त्व का साक्षात्कार ज्ञान प्राप्ति से ही मुक्ति अमृता रूप परमशांति संभव है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (217, 'अध्यात्मिक योगियों का संगम योग साधना की अवस्था में इंगला पिंगला जब सम होकर सुषुम्ना तीनों नाड़ियों का मिलन होता है तब आत्मा–ईश्वर–ब्रह्म की प्राप्ति से अपार शांति आनंद रूप चिदानंद की प्राप्ति होती है इससे भी मुक्ति–अमरता रूप परम शांति की प्राप्ति संभव नही', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (218, 'मुक्ति–अमरता का साक्षात बोध नहीं हो तो भगवान कैसा ? बातचीत सहित साक्षात दर्शन रूप भगवत प्राप्ति नहीं हो तो ज्ञान कैसा ? और जब ऐसा ज्ञान ही नहीं मिला तो वह गुरु कैसा ?', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (219, 'वेद धन कमाने का साधन नहीं है बल्कि वेद हमको हमारा जीवन, वेद हमको सृष्टि का रहस्य, वेद हमको शरीर, जीव, ईश्वर और परमेश्वर का रहस्य बताने वाला एक सदग्रंथ है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (220, 'मिथ्यावादी विनाश को प्राप्त होता है और सत्यवादी लोक परलोक दोनों में उच्च स्थान प्राप्त करता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (221, 'शिक्षा का अर्थ प्रधान होना ही भ्रष्टाचार का मूल कारण है अतः शिक्षा में आमूल चूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (222, 'यदि आप मृत्यु क्षेत्र में बैठे हैं तो इससे निकलिए और अमरत्व के क्षेत्र में जुड़िए ऐसा कर पाने में आप तभी सफल हो सकेंगे जब आप धर्म से जुड़ेंगे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (223, 'जो समर्पित शरणागत होकर ईमान–सच्चाई से भक्ति सेवा में रहेगा उसे यहीं पर परमेश्वर प्रमोशन दे देता और वह परमेश्वर की समीपता प्राप्त कर लेता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (224, 'परमेश्वर नमक से लेकर परमधाम तक देता है किंतु है ईमान और संयम के साथ शरणागति को देखता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (225, 'परमेश्वर की प्राप्ति तभी होती है जब जिज्ञासु प्रबल श्रद्धा भाव से सर्वतोभावेन सदगुरुदेव जी के माध्यम से अपने को भगवान को पूर्णता अर्पित कर दे l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (226, 'पहली शिक्षा, स्वाध्याय है दूसरा, तीसरा है योग अध्यात्म विधान तत्त्वज्ञान को चौथा जानो जिससे मिलता है खुदा–गॉड–भगवान l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (227, 'ज्ञान मोह को काटता है और मोक्षदाता परम प्रभु में साटता है वैराग्य आसक्ति में फंसने से बचाता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (228, 'कोई भी परिवारिक सांसारिक व्यक्ति मोक्ष नहीं पा सकता मोक्ष के लिए भगवत समर्पण शरणागति अनिवार्य है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'), (229, 'परमात्मा ना कण कण में ना घट घट में होता है बल्कि परमात्मा परम धाम का वासी होता है और अवतारी बेला में अवतारी के शरीर से भूमंडल पर क्रियाशील होता है l', 'संत ज्ञानेश्वर जी', '09 July 2022'); -- -------------------------------------------------------- -- -- Table structure for table `user` -- CREATE TABLE `user` ( `user_id` int(11) NOT NULL, `person_name` varchar(150) NOT NULL, `user_name` varchar(100) NOT NULL, `user_password` varchar(50) NOT 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